दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पूर्व प्रधान सम्पादक, पूर्व केन्द्रीय मंत्री तथा प्रतिष्ठित लेखक श्री अरुण शौरी अपने निर्भीक विचारों के लिए जाते हैं। नवम्बर-दिसम्बर 1992 में अयोध्या में श्रीराममन्दिर निर्माण के लिये कार-सेवा शुरू होनेवाली थी। उसके पहले लिखे गये इस लेख में श्री शौरी ने तत्कालीन परिस्थितियों और सम्भावित परिणामों का सटीक विश्लेषण किया है। यह लेख हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं-
एक- यदि हम अधिक पीछे न जायें तो जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती गांधी को चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी पाकर छह सालों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहरा दिया था।
इसके खिलाफ प्रदर्शन करवाये गये। जज का पुतला जलाया गया। श्रीमती गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में फैसले के खिलाफ अपील की। उनके वकील ने न्यायालय से कहा,
‘’सारा देश उनके (श्रीमती गांधी के) साथ है। उच्च न्यायालय के निर्णय पर ‘स्टे’ नहीं दिया गया तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।‘’
सर्वोच्च न्यायालय ने सशर्त ‘स्टे’ दिया। देश में आपात स्थिति लागू कर दी गई, हजारों लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया। चुनाव-कानूनों में इस प्रकार परिवर्तन किया गया कि जिन मुद्दों पर श्रीमती गांधी को भ्रष्ट-आचरण का दोषी पाया गया था वे आपत्तिजनक नहीं माने गये, वह भी पूर्व-प्रभाव के साथ। कहा गया कि तकनीकी कारणों से जनादेश का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। प्रगतिशील लोगों ने जय-जयकार की, अर्जुन सिंह तथा शंकरराव चह्वाण ने सबसे अधिक।
दो- कई वर्षों की मुकदमेबाजी तथा नीचे के न्यायालयों के कई आदेशों के बाद आखिरकार 1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि वाराणसी में शिया-कब्रगाह में सुन्नियों की दो कब्रें हटा दी जायें। उत्तर प्रदेश के सुन्नियों ने इस निर्णय पर बवाल खड़ा कर दिया। उत्तर प्रदेश की सरकार ने कहा कि न्यायालय का आदेश लागू करवाने पर राज्य की शांति, व्यवस्था को खतरा पैदा हो जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही आदेश के कार्यन्वयन पर दस साल की रोक लगा दी।
संविधान के किसी हिमायती ने जबान नहीं खोली।
तीन- 1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि, जिस मुस्लिम पति ने चालीस साल के बाद अपनी लाचार और बूढ़ी पत्नी को छोड़ दिया है, उसे पत्नी को गुजारा भत्ता देना चाहिये। इसके खिलाफ भावनाएँ भड़काई गईं। सरकार ने डर कर संविधान इस प्रकार बदल दिया कि न्यायालय का फैसला प्रभावहीन हो गया।
”ऐसा नहीं करते तो मुसलमान हथियार उठा लेते”, राजीव भक्तों ने कहा। सेकुलरवादियों ने वाह-वाह की, अर्जुनसिंह, च.ाण ने सर्वाधिक उत्साह के साथ की।
चार-अक्तूबर 1990 में जब वी.पी.सिंह ने मण्डल को उछाला तो उनसे पूछा गया कि यदि न्यायालयों ने आरक्षण-वृद्धि पर रोक लगा दी तो क्या होगा? उन्होंने घोषणा की- हम इस बाधा को हटा देंगे। ‘प्रगतिशील’ लोगों ने उनकी पीठ ठोकी।
पांच- 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी जल विवाद पर अपना फैसला सुनाया-
”न्यायाधिकरण के आदेश मानने जरूरी हैं” सरकार ने आदेश लागू नहीं करवाये। ”कर्नाटक जल उठेगा”, सबको यह समझाया गया।
छह- 22 जुलाई 1992 को जब विश्व हिन्दू परिषद की कार-सेवा हर किसी के गुस्से का निशाना बनी हुई थी तो भाजपा के एक सदस्य ने राज्यसभा में पूछा कि रेल विभाग की कितनी जमीन पर लोगों ने अवैध कब्जा जमाया हुआ है? रेल राज्य मंत्री ने स्वीकार किया कि 17 हजार एकड़ भूमि पर अवैध कब्जा है तथा न्यायालयों के आदेशों के बावजूद यह जमीन छुड़ाई नहीं जा सकी है क्योंकि गैरकानूनी ढंग से हड़पी गई जमीन को खाली कराने से शांति भंग होने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा।
ऐसी अन्य अनेक घटनाएं हैं जिनकी सूची भाजपा ने जारी की है। इनमें जयपुर के ऐतिहासिक बाजारों में अवैध निर्माण को हटाने के न्यायालय के आदेशों से लेकर कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक अवैध मस्जिद को नष्ट करने के आदेशों तक की सूची है, जिनकी अनुपालना शांति भंग होने की आशंका से नहीं की गई। बंगाल की अवैध मस्जिद को तो इसके उलट नियमित कर दिया गया।
नतीजे साफ दिखते हैं
इनका पहला सबक है, कि सरकार और कानून एक खोखला मायाजाल है। जब शासक वर्ग श्रीमती गाँधी की तरह अपने स्वार्थों के लिये कानून को बदल देता है, जब न्यायालय आपात-स्थिति में दिए गये निर्णयों की तरह शासकों के भय से खुद कानून की हत्या कर देते हैं, जब सरकार शाहबानों मामले की तरह एक वर्ग के भय से घुटने टेक देती है, जब सरकार आतंकवादियों की चुनौती का सामना करने में कमजोर साबित होती है तो दूसरे भी यह नतीजा निकालते हैं, कि सरकार को झुकाया जा सकता है- झुकाया जाना चाहिये, कि न्याय और कानून भी ताकतवर के कहे अनुसार चलते हैं।
दूसरा सबक और भी स्पष्ट है कि मुझे दुख है कि न्यायालय इसके लिए और अधिक जिम्मेदार हैं। मामले को निपटाने के स्थान पर अदालतें विवादों को कानूनी पेचीदगियों में फँसा देती है। ऐसी स्थिति में लोग यह मानने को मजबूर हो जाते हैं, कि न्यायालय मामलों के प्रति गम्भीर नहीं है। न्यायालयों के भरोसे रह जाने पर वर्षों तक कुछ नहीं होगा। चालीस साल से अयोध्या का मसला न्यायालय में पड़ा है। सुन्नी-वक्फ-बोर्ड का मुकदमा समयावधि में न होने की अपील दो साल से सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है। गत अक्तूबर-नवम्बर में उ.प्र. सरकार के भूमि अधिग्रहण को न्यायालय में चुनौती दी गई तो कहा गया कि दिसम्बर अंत तक निर्णय हो जायेगा। अभी तक उसकी सुनवाई ही शुरू नहीं हुई है। और अब जब वि.हि.प. ने कार-सेवा आरम्भ कर दी तो सरकार वादा करती है कि वह न्यायालयों को तीन महीने में फैसला देने को कहेगी। सर्वोच्च न्यायालय कहता है, कि कार-सेवा रुकते ही विशेष पीठ में रोजाना सुनवाई शुरु हो जायेगी, अयोध्या से सम्बन्धित सारे मामले सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित कर लिये जायेंगे।
साफ है कि जिन्हें अखबार वाले ‘कट्टरपंथी’ कहते हैं- इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि, सामान्य निवेदनों पर जो न्यायालय और सरकार कान नहीं देते वे एक धक्के में दो सप्ताह में ही ध्यान से बात सुनने को तैयार हो जाते हैं। यह सबक कोई अच्छा नहीं है पर हमारी सरकार और न्यायालयों ने ही यह सबक सिखाया है।
‘मीडिया’ का दोमुंहापन
तीसरा सबक ‘मीडिया’ के लिये है, हालांकि यह स्पष्ट है कि हमारे समाचार जगत ने यह सबक अभी नहीं सीखा है। जहाँ मुस्लिम और सिख साम्प्रदायिकता ने सरकार से मनमानी करवाई है, हमारे समाचार-पत्रों ने दोहरे-मापदण्ड, कुछ मामलों में तो दोगलेपन का सहारा लिया है।
जम्मू के डेढ़ लाख शरणार्थियों की अनदेखी इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। आडवानी जी ने सवाल किया, ”यदि वे मुसलमान होते तो क्या समाचार-पत्र और मानवाधिकार संगठन उनको इस तरह नजर अन्दाज करते?”
अयोध्या मामले में भी अखबारों का यही रुख है। किसी अखबार ने यह नहीं लिखा, कि मध्य-पूर्व के देशों में सड़कें चौड़ी करने जैसे मामूली कारणों से सैंकड़ों मस्जिदें गिरा दी गई हैं।
किसी अखबार ने नहीं लिखा कि सऊदी अरब की सरकार ने सामान्य नहीं बल्कि पैगम्बर के साथियों की कब्रों और मकबरों तक को ध्वस्त किया है।
जब यह दिखने लगा कि वि.हि.प. द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य वजनी हैं तो उनको अनदेखा किया गया। बाबरी कमेटी के प्रतिनिधि जब सरकार के आमंत्रण पर बुलाई गई मीटिंग (श्री चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व के समय) में नहीं आये तो किसी अखबार ने चूं तक नहीं की। यदि वि.हि.प. के लोग नहीं आये होते तो क्या ऐसा ही होता? इस दोगले-पन ने भी हिन्दुओं का गुस्सा उतना ही भड़काया है जितना सरकार के सिख और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के सामने घुटने टेकने ने।
पक्षपात की हद
यह रुका नहीं है। राम जन्मभूमि पर भूमि समतलीकरण के समय कुछ मन्दिरों के गिराये जाने पर अखबारों ने भी तथा वी.पी.सिंह और अर्जुन सिंह ने भी खूब हो-हल्ला किया। चार साल पहले स्वर्ण-मन्दिर की सुरक्षा और सुन्दरता के लिये आस-पास की दुकानों के साथ मन्दिरों को भी ढहाया गया, तो किसी ने आवाज उठाई?
हाल ही की घटनाओं को लें एक दिन समाचार छपा कि, ‘श्री सिंहल का कार-सेवकों को अयोध्या पहुँचने का आह्वान बेअसर रहा’, दूसरे ही दिन अखबारों ने लिखा कि कार-सेवकों की भीड़ के कारण ढांचे को खतरा पैदा हो गया है। एक दिन संत तथा वि.हि.प. कार-सेवा की अपनी जिद पर अड़े बताये गये, दूसरे दिन प्रधानमंत्री से बात-चीत के बाद कार-सेवा बन्द करने को कदम पीछे हटाना माना गया।
पक्षपात का सबसे बड़ा उदाहरण नवीनतम पुरातत्वीय खोजों पर चुप्पी का आया। पहले तो कहा गया, कहाँ है इस बात का प्रमाण कि यहाँ पहले मन्दिर था? जब दस साल पहले की गई खुदाई के निष्कर्ष सामने आये और उनसे सिध्द हुआ कि राम जन्मभूमि पर पहले मन्दिर था तो अखबारों ने पुरातत्व को ही नकार दिया। एक कदम आगे जाकर उन्होंने दुनियाँ के प्रमुख पुरातत्वविदों में से एक तथा भारत के पूर्व महानिदेशक को बदनाम करने की कोशिश की।
अभी हुई खुदाई में और प्रमाण मिले हैं जो विवाद की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। कितने अखबारों ने इसका विस्तृत विवरण प्रकाशित किया? जब कि, देश के दो प्रमुख पुरातत्वविदों ने कहा, कि ये प्रमाण वहाँ मन्दिर होना सिद्ध करते हैं।
नजीता स्पष्ट है, ये दोहरे मापदण्ड यदि जारी रहते हैं तो हिन्दू इन अखबारों की परवाह करना और भी कम कर देगा।
इस दोगलेपन तथा साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के सामने घुटने-टेकू सरकारी नीति के कारण हिन्दू भावनाएँ जितनी उग्र हो गई है उनको कम समझना जबर्दस्त भूल होगी। संदेश साफ है, ”यदि आप शाहबानों के मामले में सरकार से समर्पण करा सकते हैं तो हम अयोध्या के मामले में ऐसा करेंगे। यदि आप 10 फीसदी का वोट बैंक बना रहे हैं तो हम 80 प्रतिशात लोगों का वोट-बैंक बनायेंगे।”
शठे शाठ्यम समाचरेत्
एक नई बात और हुई है। जब विहिप से यह प्रश्न किया गया कि वे राम मन्दिर के सम्बन्ध में कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं, तो जवाब मिला- जिस तरह की अदालत, मीडिया और सरकार आज है, वे हमें सीधे तरीके से काम नहीं करने देंगे इसलिये हमने लोकमान्य तिलक की ”शठै शाठ्यम् समाचरेत्” की नीति अपनाई है। हालात जैसे चल रहे हैं उनमें कोई बदल नहीं हुआ तो हिन्दू तिलक महाराज के इस सिध्दान्त और छत्रपति शिवाजी महाराज की नीति पर चल पड़ेंगे।
कुछ आलोचक कहते हैं कि ”किन्तु इसका मजहब से कोई सम्बन्ध नहीं है।” उनको यह अनुमान नहीं कि वे कितना सही कह रहे हैं। अयोध्या का राम मन्दिर आन्दोलन सात सौ साल पहले हुए एक दुष्कर्म का विरोध नहीं है। यह तो गत सत्तर सालों की राजनीति के विरोध का प्रतीक है, विशेष कर पिछले दस सालों की तुष्टीकरण, दलाली, दोमुंहेपन और वोट बैंक की राजनीति का। इसलिये अयोध्या विवाद का हल किसी ‘फारमूले’ में नहीं है। यदि किसी हल पर सहमति हो भी जाती है तथा राजनीति का स्वरूप ऐसा ही बना रहता है तो अयोध्या से भी बड़ा तथा उग्र आन्दोलन उठ खड़ा होगा। अत: इस राजनीति में परिवर्तन आना चाहिये। यदि प्रधानमंत्री संतों को दिए अपने वचन पर कायम रहते हैं तो परिस्थितियों में सुखद बदलाव आयेगा।
यदि सरकार फिर अपने वादे से मुकर जाती है, सर्वोच्च न्यायालय के सामने निर्णय के लिये उन मुद्दों को नहीं रखा जाता जिन पर संतों से बातचीत में सहमति हुई थी या अदालत फिर टाल-मटोल का सहारा लेती है, तो संत ही नहीं पूरा हिन्दू समाज समझ लेगा कि उनको फिर धोखा दिया गया और फिर क्या होगा कहा नहीं जा सकता।
(यह लेख हमें उपलब्ध कराया है सौरभ कर्ण ने)
sriram bhartityo ke liye jan jan mai rame &aastha ke pratik hai .sivay tustikaran wale netavo ke.
श्रीराम तिवारी जैसे लोग शर्मसार कर देते हैं. अरुण शौरी जी के विचार हमेशा निर्भीक रहे हैं, यदि मीडिया उनको स्थान नहीं देती तो उनका दोष नहीं. उनकी लेखन काफी पैना है. राजनीती के कारन ही सामान्य मुद्दों तक में सुनवाई नहीं हो पाती. अयोद्ध्या विवाद उतना जटिल नहीं है जितना हैतौबा मचा है. लेकिन वोट बैंक ने इसे दुश्वार बना दिया है. कट्टरपंथियों और वोट के दलालों को यदि दूर कर दिया जाये तो 24 घंटे में इसका हल निकल जाये! जनता को इसी मामले में निर्णायक जनादेश देना चाहिए.
ram janm bhumi to ram janm bhumi hi rahegee or ram mandir bhi banega
jai shri ram
ताजुब है की इतनी महत्वपूर्ण ज्ञानवर्धक संभावनाओं से लबरेज आलेख का भारत के मूर्धन्य विद्द्वानो ने कोई संज्ञान नहीं लिया .यह तो पीत पत्रकारिता के पुरोधा की शान में सरासर गुस्ताखी है ,
विनाश काले विपरीत बुद्धि -सारे देश ने सबक सीख लिया –अतीत की भूलों से किन्तु आप अपना वही घिसा -पिटा पुराना खटराग लेकर विध्वंश के अवशेषों में नयी संभावनाएं तलाश रहे हैं .देश की जनता ने आपके सभी सवालों का जबाब समय -समय पर दे दिया है .उसी के परिणाम स्वरूप आप भारत सरकार की केविनेट में वह शपथ ले सके की -मैं ,अरुण शौरी ,इश्वर के नाम पर शपथ लेता हूँ की -मैं -विना किसी राग द्वेष ,पक्षपात {?} या भय …वैरह …वगेरह .
आपको उस स्वर्णिम सत्ता काल में यह ज्ञान ,बुद्धि .वल,विवेक -देश की जनता के समक्ष रखना चाहिए था .आपको इन तमाम घिनोनी घटनाएं तभी क्यों सालती हैं जब आप सत्ता से बाहर हुआ करते हैं . आप बूढ़ी और धुल धूसरित कांग्रेस को सत्ता से हटाने के बजाय बार -बार उसी काठ की हांड़ी को मौका देने की जाने -अनजाने गलतियाँ दुहराए जा रहे हैं -अभी भी आपकी मेधा शक्ति गलत ट्रेक पर गतिमान है .उसे रोकिये -अब जनता के सवालों को लेकर ,मंगाई को लेकर .अलगाव वाद आतंकवाद को लेकर ,नाक्स्सल्वाद को लेकर और अयोध्या विबाद को लेकर rashtreey sahmati banaiye .unche पर जा baithna kathin है किन्तु wahan पर bane rhna और भी kathin .आप चूँकि विद्द्वान हैं अथ इशारे में समझना , थोडा लिखा ज्यादा बांचना जी .जय श्रीराम .जय भारत -सभी धर्मों का आदर हो .-सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया .सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ,मां कश्चिद दुख भागवेत.
श्री राम तिवारी जी आपने ने बोहत ही अछ्ही टिप्पणी की है! आपकी इस सार्थक सोच के लिए आपको बधाई!! आपका शुभ चिन्तक राज सिंह!!!
बहुत सुंदर लेख……..मंदिर तो बनकर रहेगा…
श्री अरुण शौरी जी का लेख अच्छा लगा
सेकुलेर मीडिया में बहुतों की बोलती बंद हो गयी होगी
पंकज झा जी से सहमत, आज सबको अचानक न्यायालय के सम्मान की याद आने लगी है… लेकिन अरुण शौरी साहब द्वारा जो उदाहरण दिये गये हैं उससे सभी की बोलती बन्द हो जाती है…
जब हिन्दू कहते हैं कि आस्था का सवाल है इसलिये राम मन्दिर वहीं बनेगा तो उसे साम्प्रदायिक कहा जाता है, जबकि कुरान जलाने की घोषणा मात्र से उबल पड़ने वाले मुस्लिमों के लिए कोई रोक-टोक नहीं है… यानी हमारी आस्था बेकार की बात है और उनकी आस्था अमूल्य है? इसी को कहते हैं “शर्मनिरपेक्षता”…
बहुत अच्छा प्रयास… विद्वान लेखक की कलम से लिखे गए इतने प्रासंगिक सन्दर्भों को पढाने के लिए धन्यवाद. कांग्रेस को कोई सीख तो लेनी है नहीं लेकिन पाठक गण ज़रूर कारगुजारियों से अवगत होंगे..बढ़िया.