उत्तराखंड की आपदा से उपजे कुछ सवाल

उत्तराखंड की आपदा ने देश को ऐसा गम दिया है, जिसकी भरपाई तो किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती है किंतु इस भीषण आपदा से जो सवाल उभर कर सामने आये हैं उसकी चर्चा विभिन्न रूपों में पूरे देश में हो रही है। यह बात अलग है कि हर कोई अपने-अपने मुताबिक उसकी चर्चा कर रहा है।
इस पूरी आपदा में एक बात उभरकर सामने आई है कि कोई भी आपदा आने पर हमारा सरकारी तंत्रा उससे निपटने में कितना सक्षम है? हमारे राजनेता ऐसी स्थिति में भी क्या अपनी वोट-बटोरू मानसिकता से ऊबर पाते हैं? क्या ऐसे समय में भी उनके अंदर यही भावना रहती है कि यदि सेवा के कुछ कार्य किये जायें तो वह दिखना भी चाहिए? तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं एवं समाजसेवियों के भी मन में यह भाव देखने को मिला कि यदि वे कुछ करते हैं तो करते हुए दिखना भी चाहिए।
सरकारी अमला क्या अपने रूटीन कामों से बाहर निकलने को तैयार है या अपने पुराने घिसे-पिटे तौर-तरीकों एवं मीडिया के समक्ष रूटीन बयानों तक ही सीमित है।
उत्तराखंड आपदा में सेवा भाव के कई तरीके देखने को मिले। एक भाव तो सेना का देखने को मिला जिसने अपनी तारीफ स्वयं नहीं की। उसकी तारीफ देश की जनता एवं पीड़ितों ने की। यानी कि सेवा कार्यों के मामले में जिसने सबसे अधिक देशवासियों का दिल जीता वह सेना ही है। दूसरे तरीके के सेवा कार्य करने वाले वे लोग हैं जो सेवा कार्य तो कर रहे थे किंतु वे सेवा कार्य करते हुए दिखना भी चाहते थे, यानी कि गुप्त दान में ऐसे लोगों का कोई यकीन नहीं है। ऐसे लोगों में कौन-कौन हो सकते हैं? यह सभी को पता हैै।
देश की जनता अच्छी तरह समझती है कि इस आपदा में राहत के तौर पर दान देने वालों में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने अपना नाम गुप्त रखा। इनके मन में ऐसा भाव नहीं आया कि राहत की राशि या चेक देते समय इनकी फोटो खींची जाये और वह फोटो समाचार पत्रों एवं अन्य प्रचार माध्यमों में प्रकाशित हो। यानी कि इन्होंने जो कुछ दिया या किया, बिल्कुल निःस्वार्थ भाव से किया। हालांकि, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि जिन्होंने फोटो खिंचवाकर सेवा का कार्य किया उनके मन में किसी अन्य तरीके का भाव भा।
सरकारों एवं राजनेताओं की एक आदत सी बन चुकी है कि वे जो कुछ भी करते हैं, उसके बदले वे कार्य करते हुए दिखना चाहते हैं। काम करते हुए दिखना कोई बुरी बात नहीं है किंतु यह भी अटल सत्य है कि बिना कुछ किये हुए दिखा भी नहीं जा सकता है। यदि किसी को दिखने का शौक है तो सेना की तरह दिखे। सेना ने किसी से नहीं कहा कि उसने यह किया या वह किया, उल्टे लोगों ने ही सेना के जवानों की तारीफ करते हुए कहा कि जवानों ने अपना भोजन उन्हें दे दिया, अपनी सोने की जगह पीड़ितों को दे दी, सेना के बीमार जवानों ने अपनी बीमारी की परवाह न करते हुए भी लोगों की जान बचाई।
कहने का भाव यही है कि सेवा के बदले जिनकी दिखने की इच्छा थी, वे नहीं दिख पाये। जिनकी दिखने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी उन्हें लोगों ने खूब देखा क्योंकि जिन्होंने दिल से सेवा की उन्हें वास्तव में लोगों ने देखा। जो मात्रा दिखावा करना चाहते थे वे जनता की नजरों से ओझल हो गये।
इस आपदा में ऐसे भी लोग देखने को मिले जिन्होंने पांच रुपये की बिस्कुट दो सौ रुपये में बेची। ऐसे भी लोगों का चेहरा सामने आया जो पीड़ितों की मदद करने की बजाय मृत लोगों के शरीर से गहने चुरा रहे थे, पैसों की लूटपाट कर रहे थे। इसी क्रम में एक ऐसी दास्तान सुनने को मिली जिससे किसी भी पत्थर दिल इंसान का दिल पसीज जाये।
सुनने में आया कि एक डिब्बा ऐसा मिला जिसमें मृत महिलाओं के कटे हुए कान रखे गये थे, अब आपको यह पढ़कर आश्चर्य होगा कि ये कटे हुए कान किसलिये थे? उसका कारण यह था कि लुटेरों ने महिलाओं के कान से गहने निकालने के बजाय जल्दबाजी में कान काटकर ही रख लिया। इस प्रकार की तमाम हृदय विदारक घटनाएं सुनने को मिलीं। ऐसा करने वालों को एक बात निश्चित रूप से समझनी चाहिए कि इस प्रकार के कुकृत्य वे चाहे जितना भी छिपकर करें किंतु ऊपर वाले की नजर से कोई नहीं बच सकता।
इस त्रासदी में एक सवाल यह भी उठा कि यह तबाही मानव निर्मित थी। इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। पर्यावरण को क्षति पहुंचाने से लगातार तापमान बढ़ रहा है जिससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से बाढ़ आती है। पर्यावरण को हर तरह से क्षति पहुंचाई जा रही है। जंगलों एवं पहाड़ों को लगातार काटा जा रहा है। नदियों के किनारे या उसके क्षेत्रा में मकान, दुकान एवं होटल बन गये हैं। थोड़ी सी भी बाढ़ आने पर नदियां उफान पर आ जाती हैं। पहाड़ों के लगातार कटने से भूस्खलन का खतरा बना रहता है। कुल मिलाकर प्रमुख सवाल उभर कर सामने आता है कि यदि प्रकृति एवं प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से छेड़छाड़ होगी तो उसके दुष्परिणाम सामने आयेंगे ही।
मानव भले ही अपने से बुद्धिमान किसी को न समझे किंतु प्रकृति की भी अपनी एक चाल-ढाल है, उससे टकराने की कीमत मानव जाति को चुकानी ही पड़ती है। पहली बार ऐसा हुआ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। जब भी प्रकृति से छेड़छाड़ हुई है, उसके दुष्परिणाम सामने आये हैं। सच भी है कि इन्सान विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति के नियमों को भूलता एवं नकारता जा रहा है।
अतः आज विचारणीय प्रश्न सामने उभर कर आया है कि प्रकृति के साथ मिलकर न चलने का नतीजा खतरनाक साबित हो सकता है इसलिए हम सबकी जिम्मेदारी बनती है कि प्रकृति के नियमों का पालन करें और अपने को हर तरह से सुरक्षित करने का प्रयत्न करें।
इन सब बातों के अलावा उत्तराखंड की भयानक त्रासदी से एक सवाल यह भी उभर कर सामने आया है कि हमारे तीर्थ स्थल पर्यटन स्थलों में तब्दील होते जा रहे हैं। भगवान केदारनाथ, भगवान बद्रीनाथ धाम सहित तमाम धामों की यात्रा लोग अपनी मोक्ष की कामना से करते थे, किंतु अब उसे पर्यटन के रूप में तब्दील कर दिया गया है। गर्मियों में जब लोग गर्मी से परेशान होते हैं तो पहाड़ों की तरफ चले जाते हैं। अब तो तीर्थ स्थलों की तरफ जाने के लिए हनीमून के पैकेज भी बनने लगे हैं।
जब लोग हनीमून के लिए इन पवित्रा धामों की यात्रा करेंगे तो उन धामों की जो विधि-विधान से पूजा होती है वह नहीं हो पायेगी। हनीमून के दौरान लोगों के मन में किस प्रकार का भाव होता है यह सभी को पता है? वैसे यह बहुत अच्छी बात है कि भगवान के दर्शन कर नव विवाहित जोड़े अपने जीवन की शुरुआत करें किंतु भाव भी वैसा ही होना चाहिए, जिस भाव से वे इन तीर्थ स्थलों की यात्रा पर जाते हैं।
सुनने एवं देखने में आ रहा है कि इन पवित्रा धामों के इर्द-गिर्द अपसंस्कृति बढ़ती जा रही है। लोेग इन धामों के आस-पास शराब का भी सेवन करने लगे हैं। भगवान केदारनाथ की गोद में जितने भी श्रद्धालु समा गये, भगवान केदारनाथ जी उनको अपने श्रीचरणों में स्थान दें किंतु लोगों के मन को एक बात बार-बार व्यथित कर रही है कि लोग तो गये थे भगवान केदारनाथ जी के दर्शन करने किंतु उन्हें मिली मौत की सौगात बहुत से लोग बचकर भी आये।
समाज में बार-बार एक सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? भगवान केदारनाथ जी की गोद में इतने लोग लीन हो गये, क्या उनके मन में जरा भी करुणा का भाव नहीं आया। इस संबंध में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि भगवान भोलेनाथ किसी भी कीमत पर नहीं चाहेंगे कि उनके दर्शन के लिए आये भक्त लौटकर अपने घर न जायें, किंतु उनके भी मन में कहीं न कहीं इतनी व्यथा या पीड़ा अवश्य रही होगी जिससे भगवान केदारनाथ जी ने अपने आंखों के सामने यह सब होते हुए देखा। अन्यथा कौन पिता चाहेगा कि उसकी आंखों के सामने उसके इतने पुत्रा मौत की नींद सो जायें। ऐसी स्थिति में यही कह कर संतोष किया जा सकता है कि ‘पाप’ निश्चित रूप से ‘पुण्य’ पर भारी पड़ा। इसी पाप के कारण ऐसे श्रद्धालु भी भगवान केदारनाथ जी की गोद में समा गये, जो पूर्ण से सात्विक एवं आध्यात्मिक भाव से गये थे। यानी कि ‘निगेटिव’ ऊर्जा ‘पोजिटिव’ ऊर्जा पर भारी पड़ी। वैसे भी एक बहुत पुरानी एवं प्रचलित कहावत है कि ‘गेहूं के साथ घुन भी पिसता है।’ कहने का आशय यह है कि पापियों के पाप का खामियाजा ‘पुण्य आत्माओं’ को भी भुगतना पड़ा है।
इसके अतिरिक्त उत्तराखंड त्रासदी से एक सवाल उभर कर यह भी आया है कि क्या माता धारी देवी की प्रतिमा स्थानांतरित करने के कारण ही इस प्रकार की आपदा देखने को मिली है। कहा जा रहा है कि जिस दिन माता धारी देवी की प्रतिमा स्थानांतरित की गई, उसी दिन उत्तराखंड में भीषण तबाही आई। कुछ लोग इस बात का भले ही उपहास उड़ायें किंतु देवी-देवताओं की शक्तियों को चुनौती देना किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि जिस प्रकार अपने देश की शासन व्यवस्था है, वैसे में यही कहा जाता है कि वास्तव में इस देश को कोई दैवीय शक्ति ही चला रही है। सभी के देवी-देवता अलग-अलग हो सकते हैं।
सबके अलग-अलग धर्म हो सकते हैं, मगर दैवीय शक्ति को किसी भी धर्म में नकारा नहीं गया है। धारी देवी की प्रतिमा स्थानांतरित करने से ही ऐसी भीषण आपदा आई, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं, लेकिन मैं इतना निश्चित रूप से कह सकता हूं कि दैवीय शक्ति का सम्मान मानव को हर स्तर पर करना चाहिए, अन्यथा इतिहास गवाह है कि सदियों से आसुरी शक्तियों को नियंत्रित करने का काम दैवीय शक्तियों ने ही किया है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि उत्तराखंड की त्रासदी से जो सवाल उभर कर सामने आये हैं, उस पर पूरी तरह विचार करना चाहिए। पर्यावरण की रक्षा, प्रकृति के नियमों के अनुरूप जीवन यापन, धार्मिक महत्ता को समझकर कोई काम करना आदि तमाम ऐसे सबक हैं जिस पर समाज में पूरी तरह बहस चलनी चाहिए। आपदा के समय अधिकांश लोगों में संवेदनशीलता पैदा हो, इस बात के लिए भी प्रयास होना चाहिए। सबसे बड़ी बात यह है कि अपने सरकारी तंत्रा की विश्वसनीयता को बहाल करने के लिए हर संभव प्रयास होने चाहिए।
अरूण कुमार जैन

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