वो सब जो अपने अपने काम छोड़ कर अन्ना को समर्थन देने आये थे और अन्ना हजारे, सभी वापस चले गये। सत्ताओं मे मची हलचल अभी शांत नही है, सत्तायें अभी व्यस्त हैं , इस अचानक आई स्वाभाविक आपदा और चुनौति का सामना करने के लिये साधनो की खोज जारी है. कुछ ने हथियार डाल दिये हैं और स्वीकार कर लिया है कि वो अन्ना के बिल को समर्थन देने को तैयार हैं और कुछ प्रतीक्षा करो और देखो की नीति पर चल रहे हैं।
अन्ना हजारे के उठने के बाद भी एक प्रश्न जंतर मंतर पर अभी तक बैठा हुआ है, कि आखिर कब तक आम आदमी को अपने काम छोड़कर सत्ताओं को समझाने के लिये जंतर मंतर पर आना पड़ेगा? आखिर सत्तायें उन प्रणालियों का ठीक से प्रयोग क्यों नही करती हैं जिसके गुणगान वो पूरे विश्व के सामने करती रहती हैं कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, किंतु ये तथ्य किसी को नही बताती कि हमने इस लोकतंत्र को चौथे नंबर का भ्रष्ट तंत्र भी बनाया है। एक आम आदमी सत्ताओं से सिर्फ यही अपेक्षा रखता है कि उसके जीवन स्तर का सुधार हो, और उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आवश्यक साधन उचित दामो पर उपलब्ध हों, उच्च वर्ग की भूख कुछ अलग प्रकार की है, उसे शक्ति और विलासिता की भूख होती है। सत्ताओं ने उच्च वर्ग की लिप्साओं का लाभ उठाते हुए उनके साथ गठजोड़ स्थापित किये ताकि दोनो को आर्थिक सम्पन्नता के साथ साथ शक्ति केन्द्र मे स्थान भी मिल सके, स्वयं को चुनौति देने वाले सभी कारकों को अपने पक्ष मे करने के लिये उन्होने लोकतंत्र के सभी स्तंभों को अपने जैसी विलासिता देने का लोभ दे कर उन्हे उनके दायित्वों से विमुख किया। लोकतंत्र के चारों खंबे आज लोकतंत्र की छत को मजबूत करने के स्थान पर स्वयं की विलासिता के साधनों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। वो ये भूल रहे हैं कि उनका कार्य लोकतंत्र की उस छत को संभालना है जिसके नीचे सामान्य व्यक्ति रहता है। यदि कोई भी एक स्तंभ अपने दायित्व से मुँह मोड़ता है तो अन्य स्तंभो की ये जिम्मेदारी और बढ जाती है। किंतु वर्तमान परिस्थिति मे स्तंभो मे अहं का भाव और विलासिता की इच्छा जागी हुई है। छत जर्जर है और उसके नीचे रहने वाले सामान्य व्यक्ति को उसकी चिंता है, और यही वो कारण है कि चार दिनों तक वो सामान्य आदमी इस छत को संभालने की चेतावनी देने के लिये जंतर मंतर पर आ डटा था।
देश के विभिन्न नगरों मे बनाये गये इन जंतर मंतरों पर एकत्र लोगो का क्रोध मात्र सत्ताओं के प्रति नही था, उन अन्य संस्थाओं के प्रति रोष भी था जो सत्ताओं को उनके दायित्व का बोध नही करा सके, और बोध कराना तो बहुत दूर वो स्वयं इस शक्ति को प्राप्त करने की भूख मे शामिल हो गये। इंडिया गेट पर हुई नारेबाजी एक स्पष्ट संकेत था कि विभिन्न समाचार चैनलों पर समाचारों को विज्ञापन की तरह दिखाना और पीठ पीछे सत्ता की बिछी हुई दरी पर अपना स्थान बनाये रखने के लिये षडयंत्र रचना, ये स्वीकार नही किया जा सकता।
सत्ताधारी समझदार (घाघ) हो जाते हैं। समय को अनुकूल ना पा कर, समय को अनुकूल होने तक के लिये उन्होने जंतर मंतर पर आ कर अपने लिये समय मांग लिया, और भीड़ के हटते ही अपना चेहरा दिखाना शुरु कर दिया। वो जानते हैं कि लोगो को एकत्र करना बहुत दुरूह कार्य है, और स्वाभाविक रूप से लोग किसी सत्ता के विरोध मे एकत्र हो जायें ये तो दुर्लभ ही होता है। इसी विश्वास को ध्यान मे रखते हुए शायद सत्ताओं ने समय की मांग की। लोकतंत्र की समस्या ये है कि यहाँ हर एक को स्वयं को बचाने के लिये दूसरे को उत्तरदायी ठहराने का मौका मिलता है। सत्ता कहती है हमें जनता ने चुना है, जनता कहती है कि सत्ता ठीक नही है, अधिकारी कहता है कि उसे ऊपर से आदेश है, ऊपर वाला कहता है कि जनकल्याण का पैसा भेजता हूँ, पैसा बीच मे गायब हो जाता है। इस लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतिम छोर पर आम आदमी और प्रथम सिरे पर सत्ताओं की उपस्थिति है, और ये बीच क्या है जहॉ पर सब कुछ विलुप्त हो जाता है इसका उत्तर ब्रह्मा भी नही दे सकेंगे। समस्या निगरानी की है? दायित्व को निभाने की है? लोभी प्रवृत्ति की है? सिस्टम के गलत होने की है? इसका पता किसी के पास नही है। सभी को बरगलाया जाता है कि हमारा तंत्र मजबूत है, दुर्ग के समान मजबूत है, किंतु बहुत चतुराई से दुर्ग के उन चोर दरवाजों का जिक्र हटा दिया जाता है जिसका उपयोग कर के क्वात्रोची, एंडरसन जैसे लोग निकल भागते हैं या फिर राजा, कलमाडी जैसे लोग उन चोर दरवाजो से जनता के धन को ठिकाने लगा देते हैं।
एक सामान्य व्यक्ति के आपाधापी वाले जीवन मे इतना समय निकलने की संभावना नही है कि वो प्रत्येक ६ महिने या साल के बाद सत्ताओं के कार्य का पुनर्वालोकन करे और संतुष्ट ना होने या व्यवस्था के भ्रष्ट होने की स्थिति मे बार बार जंतर मंतरों का निर्माण कर सके और ना ही उसके पास ऐसे टूल हैं जिनका प्रयोग कर के वो चोर दरवाजों को बंद कर सके। जिन्हें राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व का बोध है वो आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं या फिर सत्ताओं के प्रति उदासीन भाव रखते हुए समाज के बीच मे काम करते रहते हैं।
सामान्य व्यक्ति के अंदर विरोध करने का साहस नही होता, विरोध करने के लिये व्यक्ति का प्रसिद्ध होना या फिर पारिवारिक दायित्व का ना होना आवश्यक है। यदि कोई सामान्य व्यक्ति आमरण अनशन करता तो अब तक सत्ताधारियों की भृकुटि उस पर टेढी हो चुकी होती और कई आर.टी.आई कार्यकर्त्ताओं की तरह वो भी मृत्यु को प्राप्त हो चुका होता। सामान्य व्यक्ति का परिवार के प्रति दायित्व का बोध एक ऐसी भावना है जो उसके राष्ट्र के प्रति दायित्व के बोध को कम कर देती है, और नेताओं की विलासिता और शक्ति केंद्र मे बने रहने की इच्छा एक ऐसी लिप्सा है जो राष्ट्र के प्रति उनके बोध को खत्म कर देती है। सत्ता केंद्रो को उनके दायित्वों का बोध बनाये और जगाये रखने के लिये ये आवश्यक है कि अन्ना जैसे व्यक्तियों को अपनी सामाजिक स्वीकृति को हथियार बना कर इस गलत राह मे जाते हुए देश की दिशा को बदलने का प्रयास करना होगा और इस देश को गलत राह पर ले जाने के लिये जिम्मेदार चालकों और परिचालकों को बाहर फैंकना होगा। अन्यथा यदि ये व्यवस्था नही बदली तो आने वाली संताने पूछेंगी कि जब राष्ट्र का पतन हो रहा था उस समय आप लोग क्या कर रहे थे, तो चाहे कितना ही तर्क संगत उत्तर दिया जायेगा, वो स्वीकार्य नही होगा, क्योंकि आखिर स्थिति को सुधारने का दायित्व तो सभी का होता है, और आने वाली पीढी हमें ही दोषी ठहरायेगी।
आपकी यह समन्वित विचार धारा आशा की किरण के रूप में उभर कर सामने आयी है.