ऐतिहासिक विवादों का स्रोत : वैचारिक कुटिलता से कैसे जूझें?-हरिकृष्ण निगम

अभी अधिक दिन नहीं हुए जब सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली विश्वविद्यालय को आदेश दिया था कि वह विशेषज्ञों की एक समिति का गठन कर इस बात की जांच करे कि द्वितीय वर्ष स्नातक के लिए इतिहास की पाठयपुस्तक के एक अध्याय में हिन्दुओं के आराध्य हनुमान के लिए अपशब्द क्यों प्रयुक्त किए गए और उन्हें पाठ्यक्रम से क्यों न निकाला जाए।

दक्षिण एशियाई आख्यात परंपराओं की विविधता व रामायण से संबंधित पाला रिचमैन द्वारा संपादित ग्रंथ में हनुमानजी को एक कामुक चरित्र के रूप में दर्शाया गया है और सीता पतिभक्त नहीं थी और यह भी कहा गया है कि रावण और लक्ष्मण ने सीता को पथभ्रष्ट किया था।

मुख्य न्यायधीश के. जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति वी. सदाशिवम और जे. एम. पांचाल की बेंच ने उपकुलपति दीपक पेंटल से जांच करने के लिए कहा कि इतिहास आनर्स पाठ्यक्रम में यह शामिल कैसे किया गया? सन् 2005 से ही यह आपत्तिजनक सामग्री पढ़ाई जा रही थी और पहले यह प्रकरण दिल्ली उच्च न्यायालय में उठाया गया था, बाद में उसे सर्वोच्च न्यायालय में लाया गया।

काफी अरसे से वामपंथी विचारधारावाले इतिहासकरों ने देश के कुछ प्रमुख शिक्षण संस्थानों, जिनमें जे.एन.यू. अपनी एंटी-स्टैबलिशमेंट छवि बनाने में शुरू से ही कुख्यात रही है, ने अनेक देश विरोधी रुझानो के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अकादमिक स्वतंत्रता व स्वायत्तता के नाम पर एक फैशन सा ही बना डाला। इन संस्थानों तथा एन.सी.इ.आर.टी. की पाठयपुस्तकों में इतिहास का विकृत स्वरूप प्रस्तुत किया गया जिससे विद्यार्थियों के सामने सकारात्मक पक्ष तो दूर की बात है, अपने अतीत से ही वितृष्णा होने लगे।साथ ही हर स्थान पर उन्हें पढ़ाया जा रहा है कि जो भी प्राचीन ज्ञान-विज्ञान है, वह अधिकांश कपोलकल्पित है और उसमें गर्व करने योग्य कोई बात भी उपलब्ध नहीं है।

जब से संप्रग सरकार सत्तारूढ़ हुई है, उन्होने फिर राजनीति प्रेरित पाठयक्रमों का सृजन किया और सबको निर्लज्जतापूर्वक समाप्त किया। जिनको सर्वोच्च न्यायालय तक ने स्वीकृति प्रदान की थी। फिर से इतिहास का विदूषीकरण कर पुस्तकों के साथ छेड़छाड़ की गई और विकृतियों व सेकुलरवादी दुराग्रहों को दोहराया गया। तथ्यों का मिथ्याकरण करने के साथ-साथ न्यायालयों के निर्णयों तक को नकारा गया।

यदि हम मुड़ कर देखें तो सबसे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के मुक्त अध्ययन विद्यालय की बी.ए. के इतिहास के द्वितीय प्रश्नपत्र की आधुनिक भारत से संबंध अध्ययन सामग्री में जहूर सिद्यीकी का ‘सम्प्रदायिकता’ शीर्षक लेख विवादों का केन्द्र बना क्योंकि इसमें राष्ट्रवाद की भावना की भर्त्सना की गई थी और साथ ही सरदार पटेल पर आरोप लगाया गया कि वे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते थे। इसी तरह इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त अध्ययन विश्वविद्यालय सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ के द्वारा ‘भारत में धार्मिक चिंतन और आस्था’ विषय पर जो सामग्री विद्यार्थियों को पढ़ाई जा रही थी उसमें हिन्दुओं के आराध्य देवी देवताओं का घोर अपमान किया गया था। इस पाठ्यक्रम के संयोजक प्रो. ए. आर. खान और प्रो. स्वराज बसु थे। जब शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास व दूसरे संगठनों द्वारा प्रतिरोध किया गया तब मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने वापस लिया।

पर मूल प्रश्न विकृत मानसिकता का है। दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ दिनों पहले इतिहास की बी. ए. (आनर्स) द्वितीय वर्ष की पुस्तक ‘कल्चर इन एन्शियंट इण्डिया’ ने अशालीन टिप्पणियों की सारी सीमाएं लांघ दी और जब विस्मय इस बात पर हुआ कि इन लेखों की संकलनकर्ता डा. अपिन्द्रा सिंह हमारे प्रधानमंत्री की पुत्री हैं। ए. के. रामानुजम के इस लेख में क्या पढ़ाया जा रहा है इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। रावण, मंदोदरी, लक्ष्मण और हनुमान सबके साथ बचकानी हास्यास्पद बातें जोड़ दी गई हैं। स्वच्छंदता और विकृति की पराकाष्ठा मात्र इस टिप्पणी से मिलती है कि रावण और लक्ष्मण ने सीता से व्यभिचार किया। दीनानाथ बत्रा और दूसरे शिक्षाविदों ने जब एक याचिका दायर की तब दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति तथा एकेडमिक क ाउंसिल को नोटिस जारी किए गए।

झूठ के पुलिंदे एन. सी. ई. आर. टी. की अन्य पुस्तकों में भी सर्वत्र विद्यमान हैं। तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठाना और लिखना कि महावीर स्वामी बिना कपड़े बदले या स्नान किए 12 वर्ष तक जंगलों में भटकते रहे आदि अनर्गल बातों को दबाव डालने पर निकाला गया। हमारे पूर्वज गौ मांस खाते थे, शिवाजी धोखेबाज थे, औरंगजेब जिन्दा पीर था- यह सब सामाजिक समरसता भंग करने के मंतव्य से प्रचारित किया गया था। दयानंद इसाई चर्चों के चहेते थे और सहायता लेते थे। तिलक, अरविन्द, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्रापाल उग्रवादी और आतंकवादी थे। देश के सम्मानित नेताओं और अतीत के महापुरुषों के विरुध्द विषवमन अक्षम्य अपराध है, पर वामपंथी व सेकुलरवादी इतिहासकारों की यही विकृति उनके लेखन की शर्त बनी है जिससे जूझना सरल नहीं है क्योंकि प्रतिकार का अपेक्षित मनोबल नदारद दीखता है।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि मार्क्सवादी राजनीति व विद्वता और विश्लेषण के कु छ विशिष्ट पहलू है जिन्हें जानना अत्यंत आवश्यक है। उनका इतिहास लेखन कम राजनीति लेखन ज्यादा है। इतिहास के अनुशासन या सच्चाई से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है। उनके दृष्टिकोण के तीन बिन्दु रहे हैं – ब्रिटिश साम्राज्यवाद, हिन्दू विरोध, मुस्लिम तत्ववाद और वर्ग संघर्ष इन तीनों को नई दृष्टि देता है। वे राष्ट्र की अवधारणा में भी विश्वास नहीं करते हैं। उन्हें सदैव यह कहने में आनंद आता है कि यह देश अनेक राष्ट्रीयताओं का जमघट है। वे यह भी कह रहे हैं कि भारतीय कालक्रमों के बारे में सदैव असावधान रहे हैं और दंतकथाओं का इतिहास बनाने में माहिर रहे हैं। उनकी हठधर्मिता का तो यह आलम रहा है कि वे तैमूर लंग या महमूद गजनवी को आक्रांता कहने को तैयार नहीं हैं। मिथ्याकरण के दौर में वे अकबर की अपेक्षा औरंगजेब की प्रशंसा के पुल बांधते नहीं थकते हैं। समाजशास्त्रों की हर पुस्तक में मनु को कोसना और ॠग्वेद में स्त्रियों के निम्न स्थान की चर्चा करना आज भी उनके विमर्श में प्रमुख स्थान पाता है। इस विकृति से संघर्ष मात्र बौध्दिक स्तर पर नहीं बल्कि एक प्रभावी, आन्दोलनात्मक रूप द्वारा संभव है जो शिक्षा के मूल स्वरूप को बचाने के अभियान द्वारा ही संभव है।

हमारे इतिहास के मिथ्याकरण की दीर्घकालीन मोर्चेबंदी में कांग्रेसी व वामपंथी शुरू से ही येनकेन प्रकारेण एक अधीरता से जुड़े रहे हैं और इस साजिश का पर्दाफाश करना आज के समय की बड़ी मांग है तभी यह दुरभिसंधि जनता को भलीभांति समझ में आ सकेगी।

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