राजनीति

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि

-राम लाल

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज अपरिचित नाम नहीं है। भारत में ही नहीं, विश्वभर में संघ के स्वयंसेवक फैले हुए हैं। भारत में लद्दाख से लेकर अंडमान निकोबार तक इसकी नियमित शाखायें हैं तथा वर्ष भर विभिन्न तरह के कार्यक्रम चलते रहते हैं। पूरे देश में आज 35,000 स्थानों (नगर व ग्रामों) में संघ की 50,000 शाखायें हैं तथा 9500 साप्ताहिक मिलन व 8500 मासिक मिलन चलते हैं। स्वयंसेवकों द्वारा समाज के उपेक्षित वर्ग के उत्थान के लिए, उनमें आत्मविश्वास व राष्ट्रीय भाव निर्माण करने हेतु डेढ़ लाख से अधिक सेवा कार्य चल रहे हैं। संघ के अनेक स्वयंसेवक सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समाज के विभिन्न बंधुओं से सहयोग से अनेक संगठन चला रहे हैं।

राष्ट्र व समाज पर आने वाली हर विपदा में स्वयंसेवकों द्वारा सेवा के कीर्तिमान खड़े किये गये हैं। संघ से बाहर के लोगों यहां तक कि विरोध करने वालों ने भी समय-समय पर इन सेवा कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। नित्य राष्ट्र साधना (प्रतिदिन की शाखा) व समय-समय पर किये गये कार्यों व व्यक्त विचारों के कारण ही दुनियां की नजर में संघ राष्ट्रशक्ति बनकर उभरा है। ऐसे संगठन के बारे में तथ्यपूर्ण सही जानकारी होना आवश्यक है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म सं0 1982 विक्रमी (सन 1925) की विजयादशमी को हुआ। संघ के संस्थापक डॉ0 केशवराव बलिराम हेडगेवार थे। डॉ0 हेडगेवार के बारे में कहा जा सकता है कि वे जन्मजात देशभक्त थे। छोटी आयु में ही रानी विक्टोरिया के जन्मदिन पर स्कूल से मिलने वाला मिठाई का दोना उन्होने कूडे में फैंक दिया था। भाई द्वारा पूछने पर उत्तार दिया ”हम पर जबरदस्ती राज्य करने वाली रानी का जन्मदिन हम क्यों मनायें?” ऐसी अनेक घटनाओं से उनका जीवन भरा पड़ा है।

इस वृत्ति के कारण जैसे-जैसे वे बड़े हुए राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ते गये। वंदे मातरम् कहने पर स्कूल से निकाल दिये गये। बाद में कलकत्तामेडिकल कॉलेज में इसलिए पढ़ने गये कि उन दिनों कलकत्ताा क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। वहां रहकर अनेक प्रमुख क्रांतिकारियों के साथ काम किया। लौटकर उस समय के प्रमुख नेताओं के साथ आजादी के आंदोलन से जुड़े रहे। 1920 के नागपुर अधिवेशन की सम्पूर्ण व्यवस्थायें सम्भालते हुए पूर्ण स्वराज्य की मांग का आग्रह डॉ0 साहब ने कांग्रेस नेताओं से किया। उनकी बात तब अस्वीकार कर दी गयी। बाद में 1929 के लाहौर अधिवेशन में जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया तो डॉ0 हेडगेवार ने उस समय चलने वाली सभी संघ शाखाओं से धन्यवाद का पत्र लिखवाया क्योंकि उनके मन में आजादी की कल्पना पूर्ण स्वराज्य के रूप में ही थी। आजादी के आंदोलन में डॉ0 हेडगेवार स्वयं दो बार जेल गये। उनके साथ और भी अनेकों स्वयंसेवक जेल गये। फिर भी आज तक यह झूठा प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि आजादी के आंदोलन में संघ कहां था?

डॉ0 हेडगेवार को देश की परतंत्रता अत्यंत पीड़ा देती थी। इसीलिए उस समय स्वयंसेवकों द्वारा ली जाने वाली प्रतिज्ञा में यह शब्द बोले जाते थे ”………………देश को आजाद कराने के लिए मै संघ का स्वयंसेवक बना हूं………” डॉ0 साहब को दूसरी सबसे बड़ी पीड़ा यह थी कि इस देश का सबसे प्राचीन समाज यानि हिन्दू समाज राष्ट्रीय स्वाभिमान से शून्य प्राय: आत्म विस्मृति में डूबा हुआ है, उसको ”मैं अकेला क्या कर सकता हूं” की भावना ने ग्रसित कर लिया है। इस देश का बहुसंख्यक समाज यदि इस दशा में रहा तो कैसे यह देश खड़ा होगा? इतिहास गवाह है कि जब-जब यह बिखरा रहा तब-तब देश पराजित हुआ है। इसी सोच में से जन्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। इसी परिप्रेक्ष्य में संघ का उद्देश्य हिन्दू संगठन यानि इस देश के प्राचीन समाज में राष्ट्रीय स्वाभिमान, नि:स्वार्थ भावना व एकजुटता का भाव निर्माण करना बना।

यहां यह स्पष्ट कर देना उचित ही है कि डॉ0 हेडगेवार का यह विचार सकारात्मक सोच का परिणाम था। किसी के विरोध में या किसी क्षणिक विषय की प्रतिक्रिया में से यह कार्य नहीं खड़ा हुआ। अत: इस कार्य को मुस्लिम विरोधी या ईसाई विरोधी कहना संगठन की मूल भावना के ही विरुद्ध हो जायेगा। हिन्दू संगठन शब्द सुनकर जिनके मन में इस प्रकार के पूर्वाग्रह बन गये हैं उनके लिए संघ को समझना कठिन ही होगा। तब उनके द्वारा संघ जैसे प्रखर राष्ट्रवादी संगठन को, राष्ट्र के लिए समर्पित संठन को संकुचित, साम्प्रदायिक आदि शब्द प्रयोग आश्चर्यजनक नहीं है। हिन्दू के मूल स्वभाव उदारता व सहिष्णुता के कारण दुनिया के सभी मत-पंथों को भारत में प्रवेश व प्रश्रय मिला। वे यहां आये, बसे। कुछ मत यहां की संस्कृति में रच बस गये तथा कुछ अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ रहे। हिन्दू ने यह भी स्वीकार कर लिया क्योंकि उसके मन में बैठाया गया है-

रुचीनां वैचित्र्याद्जुकुटिलनानापथजुषाम्।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामपर्णव इव॥

अर्थ-जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेड़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें (परमपिता परमेश्वर) आकर मिलते है।

-शिव महिमा स्त्रोत्ताम, 7

इस तरह भारत में अनेक मत-पंथों के लोग रहने लगे। इसी स्थिति को कुछ लोग बहुलतावादी संस्कृति की संज्ञा देते हैं तथा केवल हिन्दू की बात को छोटा व संकीर्ण मानते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भारत में सभी पंथों का सहज रहना यहां के प्राचीन समाज (हिन्दू) के स्वभाव के कारण है। उस हिन्दुत्व के कारण है जिसे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी जीवन पद्धति कहा है, केवल पूजा पद्धति नहीं। हिन्दू के इस स्वभाव के कारण ही देश बहुलतावादी है। यहां विचार करने का विषय है कि बहुलतावाद महत्वपूर्ण है या हिन्दुत्व महत्वपूर्ण है जिसके कारण बहुलतावाद चल रहा है। अत: देश में जो लोग बहुलतावाद के समर्थक हैं उन्हें भी हिन्दुत्व के विचार को प्रबल बनाने के बारे में सोचना होगा। यहां हिन्दुत्व के अतिरिक्त कुछ भी प्रबल हुआ तो न तो भारत ‘भारत’ रह सकेगा न ही बहुलतावाद जैसे सिध्दांत रह सकेंगे। क्या पाकिस्तान में बहुलतावाद की कल्पना की जा सकती है?

इस परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस देश की राष्ट्रीय आवश्यकता है। हिन्दू संगठन को नकारना, उसे संकुचित आदि कहना राष्ट्रीय आवश्यकता की अवहेलना करना ही है। संघ के स्वयंसेवक हिन्दू संगठन करके अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। संघ की प्रतिदिन लगने वाली शाखा व्यक्ति के शरीर, मन, बुध्दि, आत्मा के विकास की व्यवस्था तथा उसका राष्ट्रीय मन बनाने का प्रयास होता है। ऐसे कार्य को अनर्गल बातें करके किसी भी तरह लांक्षित करना उचित नहीं।

संघ की प्रार्थना, प्रतिज्ञा, एकात्मता स्त्रोत, एकात्मता मंत्र जिनको स्वयंसेवक प्रतिदिन ही दोहराते हैं, उन्हें पढ़ने के पश्चात संघ का विचार, संघ में क्या सिखाया जाता है, स्वयंसेवकों का मानस कैसा है यह समझा जा सकता है। प्रार्थना में मातृभूमि की वंदना, प्रभु का आशीर्वाद, संगठन के कार्य के लिए गुण, राष्ट्र के परंवैभव (सुख, शांति, समृध्दि) की कल्पना की गई है। प्रार्थना में हिन्दुओं का परंवैभव नहीं कहा है, राष्ट्र का परंवैभव कहा है। स्वाभाविक ही सभी की सुख शांति की कामना की है। सभी के अंत में भारत माता माता की जय कहा है। स्वाभाविक ही हर स्वयंसेवक के मन का एक ही भाव बनता है। हम भारत की जय के लिए कार्य कर रहे हैं। एकात्मता स्त्रोत व मंत्र में भी भारत की सभी पवित्र नदियों, पर्वतों, पुरियों सहित देश व समाज के लिए कार्य करने वाले प्रमुख व्यक्तियों (महर्षि बाल्मीकि, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक, गांधी, रसखान, मीरा, अम्बेडकर, महात्मा फुले सहित ऋषि, बलिदानी, समाज सुधारक वैज्ञानिक आदि) का वर्णन है तथा अंत में भारत माता की जय। इस सबका ही परिणाम है कि संघ के स्वयंसेवक के मन में जाति-बिरादरी, प्रांत-क्षेत्रवाद, ऊंच-नीच, छूआछूत आदि क्षुद्र विचार नहीं आ पाते।

जब भी कभी ऐसे अवसर आये जहां सेवा की आवश्यकता पड़ी वहां स्वयंसेवक कथनी व करनी में खरे उतरे हैं। जब सुनामी लहरों का कहर आया तब वहां स्वयंसेवकों ने जो सेवा कार्य किया उसकी प्रशंसा वहां के ईसाई व कम्युनिस्ट बन्धुओं ने भी की है। अमेरिका के कैटरीना के भयंकर तूफान में भी वहां स्वयंसेवकों ने प्रशंसनीय सेवा की। कुछ वर्ष पूर्व चरखी दादरी (हरियाणा) में दो हवाई जहाजों के टकरा जाने के परिणाम स्वरूप 300 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई। दुर्भाग्य से ये सभी मुस्लिम समाज के थे लेकिन उनकी सहायता करने ‘सैल्युलरिस्ट’ नहीं गये। सभी के लिए कफन, ताबूत आदि की व्यवस्था, उनके परिजनों को सूचना देने का काम, शव लेने आने वालों की भोजन, आवास आदि की व्यवस्था वहां के स्वयंसेवकों ने की। इस कारण वहां की मस्जिद में स्वयंसेवकों का अभिनंदन हुआ, मुस्लिम पत्रिका ‘रेडियैंस’ ने ‘शाबास आरएसएस’ शीर्षक से लेख छापा। ऐसी अनेक घटनाओं से संघ का इतिहास भरा पड़ा है।

गुजरात, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, अंडमान-निकोबार आदि भयंकर तूफानों में सेवा करने हेतु पूरे देश से स्वयंसेवक गये, बिना किसी भेद से सेवा, पूरे देश से राहत सामग्री व धन एकत्रित करके भेजा, मकान बनवाये। वहां पीड़ित लोग स्वयंसेवकों के रिश्तेदार या जाति-बिरादरी के थे क्या? बस मन में एक ही भाव था कि सभी भारत माता के पुत्र हैं इसलिए सभी भाई-भाई है। अमेरिका, मॉरीशस आदि की सेवा में भी एक ही भाव- वसुधैव कुटुम्बकम्। शाखा पर जो संस्कार सीखे उसी का प्रगटीकरण है यह। इसे देखकर सर्वोदयी नेता श्री सुब्बाराब ने कहा- आरएसएस यानी रेडीनेस फॉर सोशियल सर्विस (नि:स्वार्थ सेवा के लिए तत्परता)।

दूसरा दृश्य भी देखें- जब राजनीतिज्ञों व तथाकथित समाज विरोधी तत्वों द्वारा विशेषकर हिन्दू समाज को विभाजित करने के प्रयास हो रहे हैं तब स्वयंसेवक समाज में सामाजिक समरसता निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं। महापुरुष पूरे समाज के लिए होते हैं- उनका मार्ग दर्शन भी पूरे समाज के लिए होता है तब उनकी जयंती आदि भी जाति या वर्ग विशेष ही क्यों मनायें? पूरे समाज की ही सहभागिता उसमें होनी चाहिये। समरसता मंच के माध्यम से स्वयंसेवकों ने ऐसा प्रयास प्रारम्भ किया है तथा समाज के सभी वर्गों को जोड़ने, निकट लाने में सफलता मिल रही है, वैमनस्यता कम हो रही है। दिखने में छोटा कार्य है किन्तु कुछ समय पश्चात् यही बड़े परिणाम लाने वाला कार्य सिद्ध होगा। मुस्लिम, ईसाई, मतावलम्बियों के साथ भी संघ अधिकारियों की बैठकें हुई हैं किन्तु कुछ लोगों को ऐसा बैठना रास नहीं आता अत: परिणाम निकलने से पूर्व ही ऐसे प्रयासों में विघ्नसंतोषी विघ्न डालने के प्रयास करते रहते हैं।

गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोग, वनवासी, गिरिवासी, झुग्गी-झोपडियों व मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों का दु:ख दर्द बांटने, उनमें आत्मविश्वास निर्माण करने, उनके शैक्षिक व आर्थिक स्तर को सुधारने के लिए भी सेवा भारती, सेवा प्रकल्प संस्थान, वनवासी कल्याण आश्रम व अन्य विभिन्न ट्रस्ट व संस्थायें गठित करके जुट गये हैं हजारों स्वयंसेवक। इनके प्रयासों का बड़ा ही अच्छा परिणाम भी आ रहा है। इस परिणाम को देखकर एक विद्वान व्यक्ति कह उठे- आरएसएस यानी रिवोल्यूशन इन सोशियल सिस्टम (सामाजिक व्यवस्था में क्रांति)।

राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भी स्वयंसेवक खरे उतरे हैं। सन 47-48, 65, 71 के युद्ध के समय सेना को हर प्रकार से नागरिक सहयोग प्रदान करने वालों की अंग्रिम पंक्ति में थे स्वयंसेवक। भोजन, दवा, रक्त जैसी भी आवश्यकता सेना को पड़ी तो स्वयंसेवकों ने उसकी पूर्ति की। यही स्थिति गत कारगिल के युद्ध के समय हुई। इन मोर्चों पर कई स्वयंसेवक बलिदान भी हुए हैं। अनेकों घायल हुए हैं। इन्होंने न सरकार से मुआवजा लिया न ही मैडल। यही है नि:स्वार्थ देश सेवा। संघ का इतिहास त्याग, तपस्या, बलिदान, सेवा व समर्पण का इतिहास है, अन्य कुछ नहीं। सेना के एक अधिकारी ने कहा-”राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का रक्षक भुजदंड है।”

राष्ट्रीय सुरक्षा का मोर्चा हो, दैवीय आपदा हो, दुर्घना हो, समाज सुधार का कार्य हो, रूढ़ि-कुरीति से मुक्त समाज के निर्माण का कार्य हो, विभिन्न राष्ट्रीय व सामाजिक विषयों पर समाज के सकारात्मक प्रबोधन का विषय हो…..और भी ऐसे अनेक मोर्चों पर संघ स्वयंसेवक जान की परवाह किये बिना हिम्मत और उत्साह के साथ डटे हैं तथा परिवर्तन लाने का प्रयास कर रहे हैं, परिवर्तन आ भी रहा है।

इस अर्थ में विचार करेंगे तो स्वयंसेवक राष्ट्र की महत्वपूर्ण पूंजी है। काश! इस पूंजी का सदुपयोग, राष्ट्र के पुननिर्माण में ठीक से किया जाता तो अब तक शक्तिशाली व समृद्ध भारत का स्वरूप उभारने में अच्छी और सफलता मिल सकती थी।

अभी भी देर नहीं हुई है। विभिन्न दलों के राजनैतिक नेता, समाजशास्त्री, विचारक, चिंतक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ‘स्वयंसेवक’ रूपी लगनशील, कर्मठ, अनुशासित, देशभक्ति व समाज सेवा की भावना से ओत-प्रोत इस राष्ट्र शक्ति को पहचानकर राष्ट्रीय पुनर्निमाण में इसका संवर्धन व सहयोग करें तो निश्चित ही दुनिया में भारत शीघ्र समर्थ, स्वावलम्बी व सम्मानित राष्ट्र बन सकेगा। पिछले 85 वर्षों से स्वयंसेवकों का एक ही स्वप्न है- भारतमाता की जय।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक हैं व वर्तमान में  भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) हैं)