व्यंग्य

व्यंग्य/कुछ कहिए प्लीज!!

भाई जी, अब आप से छुपाना क्या! हम तो ठहरे जन्मजात दुर्बल! शादी से पहले और शादी के बाद बहुत कोशिश की कि दुर्बलता से छुटकारा मिले। पता नहीं कितने दावा करने वालों की गोलियां खाई, कभी बाप के पैसों की तो कभी ससुराल के पैसों की। अपने हाथों में और तो हर तरह की रेखाएं हैं पर किस्मत से अपने हाथों की कमाई खाने वाली रेखा नहीं। खेद, महाखेद, शादी से पहले और शादी के बाद मुर्दों में जान फूंकने वालों के लाख लिखित दावों के बावजूद भी बाडी टस से मस न हुई। उल्टे और भी दुर्बल होती चली गई। विवाह के बाद तो बाडी के ठोस होने का सवाल ही नहीं उठता। और बच्चे हो जाने के बाद तो बाप को दिन में भी लंच करने के लिए टार्च लेकर ढूंढना पड़ता है। जितनी गोलियां खानी हो मन मनाने के लिए खाए जाओ भाई साहब। सावन में अंधे हुए कभी जोत नहीं पा सके, समाज की बहियां खोल कर देख लो।

दुर्बल शरीर में साहसी आत्मा को जैसे कैसे खींच रहा था कि कल सुबह आत्मा ने भी जवाब दे दिया, ‘भाई जान! माफ करना! अब मेरे से भी नहीं चला जा रहा। मैं भी बहुत दुर्बल हो गई हूं। किसी अच्छे से डाक्टर के पास बता देते तो थोड़ा और जी लेती।’

दौलत के नाम पर मेरे पास बस एक यही तो आत्मा है सो आनन-फानन में इसे चेक करवाने सरकारी अस्पताल जा पहुंचा। मेरी खुश किस्मती कहिए या आत्मा की, डाक्टर साहब पहली बार पहले चक्कर में अपनी कुर्सी पर बैठ सुस्ताते पाए गए। और ऊपर से एक और मजे की बात कि उनके पास एक भी रोगी नहीं था।

‘डाक्टर साहेब! ओ डाक्टर साहेब!!’

‘क्या है? कौन है? एम आर है क्या? अरे भैया तुम्हारी ही तो दवाइयां लिख रहा हूं मरने वाले को भी और जीने वाले को भी। आज के दौर में न कोई दवाइयां खाकर जी रहा है और न कोई दवाइयां खाकर मर रहा है। बस अपने आप ही जी रहा है और अपने आप ही मर रहा है। ये दवाइयां तो बेचारी बेकार में नाम हो रही हैं, बदनाम हो रही हैं। मेरा महीने का कमीशन पचास हजार बनता है। लाए हो न?’

‘साहब! मैं एम आर नहीं, मैं तो रोगी हूं।’

‘तो तुमने कुछ सुना तो नहीं? वे हड़बड़ाए से , ‘असल में क्या है न कि मुझे सुस्ताते हुए हरकुछ बोलने की आदत है।’

‘नहीं साहेब नहीं। मैंने कुछ नहीं सुना। असल में क्या है कि मुझे सुनने की आदत ही नहीं है। मैं तो जन्मजात बहरा हूं।’

वैरी गुड!! लंबी उम्र के हकदार रहोगे। देश के संभ्रांत नागरिक लगते हो। कहो, क्या बीमारी है?’

‘आत्मा कमजोर हो गई है।’

‘वैरी गुड यार भाई साहब! इतनी नौकरी में पहला बंदा देखा जिसकी आत्मा दुर्बल हो वरना आज तक तो जो भी आया मरी हुई आत्मा वाला ही आया। डाक्टर होने का मतलब यह तो नहीं होता कि हर मुर्दे में जान डालने के लिए अधिकृत हो जाएं। माना कि मेडिकल साइंस ने तरक्की कर ली है। पर इतनी भी कहां हुई यार कि मरी हुई आत्मा को जिंदा कर दे, हां मरे हुए घोषित बंदे अकसर मुर्दा घर से जिंदा हो भागते रहे हैं। पता नहीं ये मुर्दाघर के डर का कमाल होता है या….अच्छा तो तुम्हें कैसे महसूस हुआ कि…..?’

‘कल आत्मा ने मुझसे कहा जनाब।’

‘वैरी गुड यार, वैरी गुड! इधर तुम्हारी आत्मा तक तुमसे बात कर लेती है और उधर एक मेरी प्रेमिका है कि पूरा घरबार छोड़ उसी के साथ डटा रहा और अब….बहुत लक्की हो यार! लो इस खुशी में सिगरेट लगाओ। ‘कह उनकी आंखों से आसुंओं की धारा बहने लगी। फिर कुछ असंयित हो उन्होंने मेरी आत्मा को चेक करने के लिए मेरे शरीर में इधर उधर गुदगुदी करनी शुरू कर दी। काफी देर तक गुदगुदी करने के बाद जब उन्हें आत्मा नहीं मिली तो उन्होंने चेहरा लटकाए मुझसे पूछा,’ सारी यार! एक बात बताना, ये आत्मा शरीर में होती कहां जैसे हैं? पहली बार ऐसा केस हैंडिल कर रहा हूं न!’

‘चारों ओर से ठीक बीच में।’

‘यहां जैसे?’

‘यहां से थोड़ा ऊपर।’ मैंने बताया तो उन्हें मेरी आत्मा मिल ही गई। उनकी जान में जान आई। उन्होंने महसूसते कहा,’ सच्ची यार! आत्मा है। पहली बार पता चला कि आदमी में आत्मा भी होती है।’ काफी देर तक चेक करने के बाद वे बोले,’ देखो दोस्त! मैं अंधेरे में किसी को भी नहीं रखता। वह चाहे आत्मा हो या परमात्मा। पर तुम्हारी आत्मा ने सच कहा था। वह सच्ची को दुर्बल हो गई है। क्या करते हो?’

‘जब घर में आटा दाल खत्म हो जाते हैं तो पत्नी को ससुर से पैसे लेने भेजने का काम करता हूं।’

‘इससे पहले क्या करते थे?’ उन्होंने ठहाका लगाते पूछा।

‘बाप की जेब साफ किया करता था। ‘मैंने सगर्व सिर ऊंचा करते कहा।

‘गुड!! बड़े कर्मयोगी हो। कीप इट अप!! आत्मा अनेमिक है ।’ कह वे गंभीर हो गए।

‘तो ??’

‘तो क्या? खून का इंतजाम करो। सब ठीक हो जाएगा।’

‘पर जनाब, खून तो मेरे परिवार के किसी भी सदस्य में नहीं। अगर ब्लड बैंक से हो जाता तो??’

‘सारी, ब्लड बैंक में खून केवल वीवीआईपीओं के लिए आरक्षित है ,जनता के लिए नहीं..’

‘तो सरकार का काम क्या है?’ मुझे गुस्सा आ गया। हद है यार! हम देश में किस लिए रहते हैं? हम वोट देकर सरकार क्यों बनाते हैं? हम समाज में किस लिए रहते हैं? अगर देना ही हो तो क्या करना समाज, देश में रहकर?

‘तो ऐसा करते हैं कि नकली खून चढ़ा देते हैं आत्मा को। सस्ता भी है और आसानी से मिल भी जाएगा।’

‘देखो साहब! शरीर के साथ समझौता कर रहा हूं तो इसका मतलब ये तो नहीं कि….,’गुस्सा सा आ गया कुछ।

‘गुस्से में मत आओ यार! चीज असली हो या नकली। जब अंदर चली गयी तो चली गयी। तब किसे पता चलेगा कि अंदर गई चीज असली है या नकली! वैसे भी आत्मा के कौन सी हमारी तरह आंखें हैं? अगर हों भी तो क्या कर लेगी वो? हम भी क्या कर रहे हैं? हमारे पास तो कानून है, सरकार है। टीवी है, अखबार है। जीना किसे अच्छा नहीं लगता?इस दौर में बात इस वक्त असली नकली की नहीं, जीने की है। असली नकली के प्रति अगर हम गंभीर हो गए तो अगले ही क्षण श्मशान पर मुर्दे फूकने को भी जगह न मिले। जब पैदा होता बच्चा मां का दूध न पा सिंथेटिक दूध होंठों से लगा आई आई टी का सपना देखता है। देखने दो। एक सच बात कहूं? यहां इन दिनों जो मरीज आ रहे हैं न ,वे सारे वही हैं जो शुध्दता में विश्वास रखकर जी रहे हैं। नकली खानेवाला यहां एक भी मरीज नहीं आता। डाक्टर होने के नाते गाइड करना मेरा फर्ज था सो कर दिया, आगे जीना मरना तो तुम्हें ही है। सोचकर बता देना। ओके, टेक केअर! गाड ब्लेस यूअर सोल!!’

 

……तो आप क्या सजेस्ट करते हैं भाई साहब??

-अशोक गौतम