भुखमरी की जड़

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_44733146_children_226अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) के ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2008 के अनुसार भारत में भूख की समस्या चिंताजनक स्तर तक पहुंच गई है। भारत की स्थिति अफ्रीका के उपसहारा क्षेत्र के 25 देशों से भी बदतर है। दक्षिण एशिया में सिर्फ बांग्लादेश हमसे पीछे है। यह इंडेक्स निकालने के लिए बच्चों के कुपोषण, बाल मृत्युदर और समुचित कैलोरी से वंचित लोगों की संख्या को आधार बनाया गया। इसके अनुसार भारत में 50% से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इनमें 20% की हालत अत्यधिक चिंताजनक है। कुपोषण के संबंध में मुख्य बात मातृत्व और बच्चों के स्वास्थ्य का है। जो महिलाएं पहले से ही कुपोषण का शिकार रहती हैं, वे स्वाभाविक रूप से कुपोषित बच्चों को जन्म देंगी। यदि जन्म के बाद भी बच्चे को संतुलित आहार नहीं मिल पाएगा तो वह जीवन भर के लिए शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर हो जाएगा। अत: बच्चों के कुपोषण को परिवार से जोड़कर देखना होगा। इस संबंध में स्थिति अत्यंत निराशाजनक है।राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की 2006-07 की रिपोर्ट के अनुसार एक औसत भारतीय महीने मे खाने पर सिर्फ 440 रूपये खर्च करता है। ग्रामीण भारत में यह खर्च 363 रूपये प्रतिमाह है तो शहरी भारत में 517 रूपये। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2005-06 के अनुसार ग्रामीण भारत में एक व्यक्ति प्रति माह फलों पर सिर्फ 12 रूपये खर्च करता है जबकि शहरी व्यक्ति का फलों पर प्रति महीने का खर्च 28 रूपये का है। अनाज और इसके वैकल्पिक खाद्य पदार्थों पर ग्रामीण भारत में 115 रूपये और शहरी भारत में 119 रूपये खर्च होते हैं। इस उपभोग व्यय में स्वस्थ बच्चों का जन्म कैसे होगा ? देश में एक ओर भूख की समस्या बढी है तो दूसरी ओर एक छोटा वर्ग लगातार फलफूल रहा है। पिछले दो दशकों में भारत में एक ऐसा नवधनाडय वर्ग पैदा हुआ है जो उपभोग के मामले में दुनिया में किसी से पीछे नहीं रहना चाहता।

गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, असमान विकास की उपर्युक्त स्थितियां एक दिन में पैदा नहीं हुई हैं। इसकी जड़ स्वायत्तशासी आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थतंत्र के क्रमिक पतन में निहित हैं। आजादी के बाद पूंजी प्रधान विकास रणनीति अपनाने से विकास क्रम में मानव शक्ति का महत्व गौण हो गया। इसके परिणामस्वरूप भारत के अपने शिल्प, लघु व कुटीर उद्योग, कला और पारंपरिक रूप से चलते आ रहे अन्य धंधे धीरे-धीरे खत्म होने लगे। इन धंधों से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली अधिकांश जनता को आय होती थी, लोगों की जरूरतें स्थानीय स्तर पर पूरी होती थी और गरीबों का पेट पलता था। इन धंधों के उजड़ने से गरीबों का सहारा छिनता रहा। इससे धीरे-धीरे गांव उद्योगविहीन हो गए और वहां खेती-पशुपालन के अतिरिक्त नियमित आय का कोई स्रोत नहीं रह गया। अब गांव और खेती एक दूसरे के पर्याय तथा गांव और उद्योग परस्पर विरोधी हो गए।

आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थतंत्र के विखराव के कारण परंपरागत व्यवसायों में लगे करोड़ों लोगों की जीविका छिन गई। बढर्ऌ, लोहार, कुम्हार, चमड़े के कार्य करने वाले , दस्तकार, कपड़ा बुनने वाले लोगों के पेशे विकास की अंधी दौड़ में समाप्त हो गए। इसी के साथ वे शहर भी सूख गए जिनकी ये शान हुआ करते थे जैसे बनारस, आजमगढ, मुरादाबाद। यहां के उत्पाद अब सामान्य की जगह विशिष्ट हो गए ओर हाट-बाजार, गली-कूचे की जगह दिल्ली हाट जैसी जगहों में प्रदर्शन की वस्तु बन गए।

आजादी के बाद खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए कृषि क्षेत्र में पूंजी प्रधान कृषि रणनीति (हरित क्रांति) की शुरूआत हुई। हरित क्रांति ने खाद्यान्न उत्पादन में बढाेत्तरी तो किया लेकिन इसने प्रकृति व किसानों से बहुत बड़ी कीमत वसूल की। इसने ग्रामीण जनसंख्या के विस्थापन और रोजगार संकट को बढाते हुए खाद्यान्न संकट का आधार तैयार किया। इसी का दुष्परिणाम है कि एक ओर सरकारी अनाज खरीद का रिकार्ड बन रहा है वहीं दूसरी ओर 20 करोड़ से अधिक लोग ऐसी हालत में जी रहे हैं कि उन्हें सुबह उठकर पता नहीं होता कि दिन में खाना मिल पाएगा या नहीं।

भूख, कुपोषण, असमान विकास के संकट को बढाने में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण की नीतियों ने आग में घी का कार्य किया। इन नीतियों के माध्यम से विकसित देशों की भीमकाय कंपनियां साम,दाम, दंड, भेद को अपनाकर विकासशील देशों के आत्मनिर्भर ढांचे को तहस-नहस करती हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन जैसी वैश्विक संस्थाओं की नीतियों को भी इन्हीं की सुविधा व आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जाता रहा है। इन नीतियों के तहत विकासशील देशों ने जीवन-यापन की देशज परंपराओं को नकारकर खर्चीली तकनीक आधारित पध्दतियों को अपनाया। इससे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हुआ और एक बड़ी जनसंख्या को प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के इस्तेमाल से वंचित कर दिया गया।

गरीबों, वंचितों, बुनकरों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों के कल्याण के लिए जो योजनाएं चलाई गई उनका स्वरूप दान-दक्षिणा वाला ही रहा है। परंपरागत पेशों के आधुनिकीकरण, इन्हें छोटी मशीनों से जोड़ने और लोगों को बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण देने की महती संभावना को भी भुला दिया गया। उदारीकरण, निजीकरण ने जहां किसानों, मजदूरों, बुनकरों, दस्तकारों के लिए अभाव और दरिद्रता का समुद्र निर्मित किया वहीं दूसरी ओर शिक्षित, कौशल संपन्न युवा वर्ग के लिए समृध्दि के टापू बनाया। इसका परिणाम यह हुआ देश इंडिया व भारत में विभाजित हो गया। यही असमान और विभाजनकारी विकास रणनीति गरीबों, वंचितों को भुखमरी व कुपोषण की गहरी खाई में धकेल रही है।

लेखक- रमेश कुमार दुबे
(लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

फोटो साभार-https://news.bbc.co.uk

5 COMMENTS

  1. श्री दुबे जी ने बहुत मार्मिक स्तिथि व्यक्त की है. वाकई स्तिथि बहुत चिंताजनक है.
    दुनिया में सबसे ज्यादा फसलो, सब्जियों, खाद्य पदार्थो का उत्पादन भारत में होता है फिर भी हमारे देश में भुकमरी. लज्जाजनक है उन सरकारों पर जिन्होंने अपनी नीतियों के कारण यह स्तिथिया निर्मित की. पिछले ६० सालो में बहुत बहुत विकास हुआ है किन्तु सहरो में, गावो में तो अभी भी बिजली पानी की समुचित व्यवस्था नहीं है. स्कूल की किताबो में हरित क्रांति को बहतु बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता है किन्तु उसके दुस्परिनाम नहीं बाते जाते जो की मूल कारण है भुकमरी का. सरकार और सरकार को चलने वाली अफसरों की सोच में बदलाव आ जय तो कुछ ही समय में स्तिथिया बदल सकती है.

  2. कबीर दास ही ने कहा था -“माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंदे मोय,एक दिन ऐसा आयेगा मैं रूंदूंगी तोय”,छल कपट चोरी बेईमानी अपने अपने स्वार्थ के लिये दूसरों का बुरा करना यह सब एक न एक दिन समाप्त होजाना ही है। राजनीति से राजा चला चला गया है लेकिन आम जनता के अन्दर नीति अपनी अपनी बन गयी है,आज मेरे विचार में जो आ रहा है वह आपके विचार में नही आ रहा है,मैं जो चाहता हूँ वह आप नही चाहते है,आप को जो अच्छा लगता है वह मुझे अच्छा नही लग रहा है,इसी बात का फ़ायदा उठाने के लिये यह अपने अन्दर से ही लोग अपनी अपनी नीतियों की दुहाई देकर अपने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये शुरु हो जाते है,अक्सर यह भी देखा जाता है कि हर मनुष्य को दर्द होता है,लेकिन जब वह अपने को राजनीति के अन्दर ले जाता है और ऊपर से लोगों को देखता है तो उसे भी उनके जैसा चलने के लिये अपने आप समानता के भाव पैदा होने लगते है,पहले वह जिस साधारण तरीके से बात करता था उसके सामने कई लोग जब अपनी अपनी बात को लेकर पहुंचने लगते है तो वह अपने को अधिक शक्तिशाली समझने लगता है और यही कमी जनता के हितों से दूर जा पहुंचती है.

  3. हाँ आज़ादी के ६४ वें वर्ष में भी ये हकीक़त जान कर,इस सच्चाई को मानना होगा की देश की सरकारों ने केवल राज किया है ,गरीबी भुखमरी जीवन स्तर सुधरने की दिशा में कोई ठोस काम नहीं किया,शिक्षा चिकित्सा के नाम पर केवल योजनाओं का कागजों में उल्लेख और बंदरबांट का सिलसिला लगातार ज़ारी है ,कहने को हम विकास की गति में निरंतर आगे बढ़ रहें हैं किन्तु समस्याएँ जस की तस बनी हुवि है “किसी कार्य में सफलता ना मिलना ये साबित करता है की प्रयास पूरा नहीं किया गया ” इस बात को मान कर भ्रष्ट आचरण को जड़ मूल से नष्ट करना होगा तब जाकर स्थिती सुधरेगी अन्यथा “हर शाख पे उल्लू बैठा है -अंजामे गुलिस्तान क्या होगा “….बताने की ज़रूरत नहीं है …विजय सोनी अधिवक्ता दुर्ग छत्तीसगढ़

  4. सूखी खेती है और खेती में जब पानी बरसता है तो कुछ समय के लिए राहत मिल जाती है,आबादी का घनत्व बढ़ता चला जा रहा है कोइ भी अपनी चाहत को पूरा नहीं करना चाहता है,सरकार से कोइ राहत मिलाने वाली हो तो राजनीति में रहने वाले लोग अपनी अपनी ताकत लगाकर उस राहत को रास्ते में ही हजम कर जाते है जो हिस्सा हिस्सेदार को मिलना चाहिए वह बंदरबांट हो जाता है.उसके बाद जो भी बचता है वह ठेकेदारों और उनके कारिंदों के काम आ जाता है कागज़ पर राहत का काम पूरा हो चुका होता लेकिन हकीकत अलग ही होती है,न्याय व्यवस्था लगाता पंगु होती जा रही है,धन का मोह किसी भी तरकीसे आदमी के मन से हट नहीं रहा है,अगर प्रजातंत्र का यही मूल्यांकन है तो हम बेकार में इस प्रजातंत्र के बोझ को सर पर रख कर घूम रहे है,लेखक की भावनाओं का आदर करना बहुत जरूरी है और यह भी बहुत जरूरी है की उपरोक्त बातों के लिए आपसी संगठन बनाकर समस्याओं से लड़ना भी आना चाहिए.

  5. जानकर काफी दुख पहुंचा कि भारत में 50% से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। लेखक का कहना सही है कि परंपरागत पेशों के आधुनिकीकरण के कारण ही असमान और विभाजनकारी विकास रणनीति गरीबों, वंचितों को भुखमरी व कुपोषण की गहरी खाई में धकेल रही है।नेताओं को सिर्फ वोट लेने के समय गांव या कस्‍बे की याद आती है, बाद में वहां की समस्‍याओं से उनका कोई लेना देना नहीं रहता।

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