एस. के. रैना
हमारे पड़ोस में रहने वाले बाबूजी की उम्र यही कोई अस्सी के लगभग होनी चाहिए। इस उम्र में भी स्वास्थ्य उनका ठीक-ठाक है। ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते व्यक्ति आशाओं-निराशाओं एवं सुख-दु:ख के जितने भी आयामों से होकर गुज़रता है,उन सब का प्रमाण उनके चेहरे को देखने से मिल जाता है। इक्कीस वर्ष की आयु में बाबूजी फौज में भर्ती हुए थे।अपने अतीत में डूबकर जब वे रसमग्न होकर अपने फौजी जीवन की रोमांचकारी बातों को सुनाने लगते हैं तो उनके साथ-साथ सुनने वाला भी विभोर हो जाता है।विश्व युध्द की बातें,कश्मीर में कबाइलियों से मुठभेड़, नागालैण्ड, जूनागढ़ आदि जाने कहां-कहां की यादों के सिरों को पकड़कर वे अपने स्मृति कोष से बाहर बहुत दूर तक खींचकर ले आते हैं। ऐसा करने में उन्हें अपूर्व आनन्द मिलता है।
एक दिन सुबह-सवेरे उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया।मैं समझ गया कि आज बाबूजी अपने फौजी जीवन का कोई नया किस्सा मुझे सुनाएंगे। एक बार तो इच्छा हुई कि मैं जाऊं नहीं, मगर तभी बाबूजी ने हाथ के इशारे से बड़े ही भावपूर्ण तरीके से एक बार फिर मुझे बुलाया। यह सोचकर कि मैं जल्दी लौट आऊंगा, मैं कपडे बदलकर उनके पास चला गया। कमरे में दाखिल होते ही उन्होंने तपाक से मेरा स्वागत किया।चाय मंगवायी और ठीक मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। घुटनों तक लम्बी नेकर पर बनियान पहने वे आज कुछ ज्यादा ही चुस्त-दुरुस्त लग रहे थे।मैंने कमरे के चारों ओर नज़र दौड़ाई। यह कमरा शायद उन्हीं का था। दीवार पर जगह-जगह विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र टंगे थे। सामने वाली दीवार के ठीक बीचोंबीच उनकी दिवंगत पत्नी का चित्र टंगा था। कुछ चित्र उनके फौजी-जीवन के भी थे।बाईं ओर की दीवार पर एक राइफल टंगी थी जिसको देखकर लग रहा था कि अब यह राइफल इतिहास की वस्तु बन चुकी है। बाबूजी को अपने सामने एक विशेष प्रकार की मुदा में देखकर मुझे लगा कि वे आज कोई खास बात मुझ से करने वाले हैं तथा कोई खास चीज़ मुझे दिखाने वाले हैं। तभी सवेरे से ही उनकी आखें मुझे ढूंढ़ रही थीं।इस बीच मेरा ध्यान सामने टेबिल पर रखे विभिन्न बैजों, तमगों प्रशस्तिपत्रों,मेडलों आदि की ओर गया जिन्हें इस समय बाबूजी एकटक निहार रहे थे।इन मैडलों,प्रशस्तिपत्रों आदि का ज़िक्र उन्होंने मुझ से बातों-ही-बातों में पहले कई बार किया था,मगर इन्हें दिखाने का मौका कभी नहीं मिला था।आज शायद वे इन सब को मुझे दिखाना चाह रहे थे। गौरवान्वित भाव से वे कभी इन मैडलों को देखते तो कभी मुझे। हर तमगे, हर बैज, हर प्रशस्तिपत्र आदि के पीछे अपना इतिहास था, जिसका वर्णन करते-करते बाबूजी, सचमुच, गद्गद् हो रहे थे। यह तमगा फलां युध्द में मिला, यह बैज अमुक पार्टी में अमुक अंग्रेज़ अफसर द्वारा वीरता प्रदर्शन के लिए दिया गया आदि आदि।बाबूजी अपनी यादों के बहुमूल्य कोष के एक-एकपृष्ठ को जैसे-जैसे पलटते जाते वैसे-वैसे उनके चेहरे पर असीम प्रसन्नता के भाव तिर आते।मेरे कन्धे पर अपना दायां हाथ रखते हुए वे अचानक बोल पड़े-
‘और भी कई बैज व तगमे हैं मगर बुढ़िया को ज्यादा यही पसन्द थे।’
बुड़िया का नाम सुनते ही मैं चौंक पड़ा। पूछा-
‘कौन बुढ़िया?’
‘अरे, वही मेरी पत्नी, जो पिछले साल भगवान को प्यारी हो गई।–बड़ी नेक औरत थी वह। मुझे हमेशा कहती थी- निक्के के बाबू, ये तगमे तुम को नहीं,मुझे मिले हैं–। बेचारी घंटों तक इन पर पालिश मल-मलकर इन्हें चमकाती थी।’
मैंने बाबूजी की ओर नज़रें उठाकर देखा। उनकी आंखें गीलीं हो गईं थीं।शब्दों को समेटते हुए वे आगे बोले-
‘बुढ़िया ज्यादातर गांव में ही रही और मैं कभी इस मोर्चे पर तो कभी उस मोर्चे पर,कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में–। वाह! क्या डिसिप्लिन था। क्या रोबदाब था! अंग्रेज़ अफसरों के साथ काम करने का अपना अलग ही मज़ा होता था।’
कहते-कहते बाबूजी फिर यादों के समुद्र में डूब गए।इस बात का अंदाज़ लगाने में मुझे देर नहीं लगी कि बाबूजी आज कुछ ज्यादा ही भावुक हो गए हैं।पहले जब भी मैं उनसे मिला हूं हमारी बातें पड़ौसी के नाते एक दूसरे का हाल-चाल जानने तक ही सीमित रही हैं। प्रसंगवश वे कभी-कभी अपने फौजी जीवन की बातें भी कह देते जिन्हें मैं अक्सर घ्यान से सुन लिया करता। बाबूजी के बारे में मेरे पास जो जानकारी थी उसके अनुसार बाबूजी पहाड़ के रहने वाले थे। बचपन उनका वहीं पर बीता, फिर फौज में नौकरी की और सेवानिवृत्ति के बाद वर्षों तक अपने गांव में ही रहे। पत्नी के गुज़र जाने के बाद अब वे अपने बड़े बेटे के साथ इस शहर में मेरे पड़ौस में रहते हैं।बड़े बेटे के साथ रहते-रहते उन्हें लगभग पांच-सात साल हो गए हैं। बीच बीच में महीेन दो महीने के लिए वे अपने दूसरे बेटों के पास भी जाते हैं। मगर जब से उनकी पत्नी गुज़र गई,तब से वे ज्यादातर बड़े बेटे के साथ ही रहने लगे हैं।
इससे पहले कि मैं उनसे यह पूछता कि क्या ये बैज और मैडल दिखाने के लिए उन्होंने मुझे बुलाया है, वे बोल पड़े-
‘बुढ़िया को ये बैज और तगमे अपनी जान से भी प्यारे थे।पहले-पहल हर सप्ताह वह इनको पालिश से चमकाती थी। फिर उम्र के ढलने के साथ-साथ दो-तीन महीनों में एक बार और फिर साल में एक बार–। और वह भी हमारी शादी की सालगिरह के दिन–।
‘सालगिरह के दिन क्यों? ‘मैंने धीरे-से पूछा।
मेरा प्रश्न सुनकर बाबूजी कुछ सोच में पड़ गए।फिर सामने पड़े मेडलों पर नज़र दौड़ाते हुए बोले-
‘यह तो मैं नहीं जानता कि सालगिरह के ही दिन क्यों? मगर, एक बात मैं ज़रूर जानता हूं कि बुड़िया पढ़ी-लिखी बिल्कुल भी नहीं थी। पर हां, ज़िंदगी की किताब उसने खूब पढ़ रखी थी। मेरी अनुपस्थिति में मेरे मां-बाप की सेवा,बच्चों की देखरेख,घर के अन्दर-बाहर के काम आदि उस औरत ने अकेलेदम बड़ी लगन से निपटाए। आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो सहसा विश्वास नहीं होता कि उस बुढ़िया में इतनी समर्पण-भावना और आत्मशक्ति थी।’ कहते-कहते बाबूजी ने पालिश की डिबिया में से थोड़ी-सी पालिश निकाली और सामने रखे मेडलों और बैजों पर मलने लगे।वे गद्गद् होकर कभी मुझे देखते तो कभी सामने रखे इन मेडलों को। मेडल और बैज धीरे-धीरे चमकने लगे। मुझे लगा कि बाबूजी मुझ से कुछ और कहना चाह रहे हैं किन्तु कह नहीं पा रहे हैं।एक मेडल अपने हाथों में लेकर मैंने कहा-
‘लाइए बाबूजी, इसपर मैं पालिश कर देता हूं।’
मेरे इस कथन से वे बहुत खुश हुए। शायद मेरे मुंह से वे भी यही सुनना चाहते थे।कुछ मेडलों की वे पालिश करने लगे और कुछ की मैं।इस बीच थोड़ा रुककर उन्होंने सामने दीवार पर टंगी अपनी पत्नी की तस्वीर की ओर देखा और गहरी-लम्बी सांस लेकर बोले-
‘आज हमारी शादी की साल गिरह है। बुढ़िया जीवित होती तो सुबह से ही इन मेड़लों को चमकाने में लग गई होती। ये मेडल उसे अपनी जान से भी प्यारे थे।–जाते-जाते डूबती आवाज़ में मुझे कह गई थी- निक्के के बाबू,यह मेडल तुम्हें नहीं,मुझे मिले हैं। हां-मुझे मिले हैं। इन्हें संभालकर रखना- हमारी शादी की सालगिरह पर हर साल इनको पालिश से चमकाना–।’ कहते-कहते बाबूजी कुछ भावुक हो गए। क्षणभर की चुप्पी के बाद उन्होंने फौजी अन्दाज़ में ठहाका लगाया और बोले-
‘बुढ़िया की बात को मैंने सीने से लगा लिया। हर साल आज के ही दिन इन मैडलों को बक्से से निकालता हूं,झाड़ता-पोंछता हूं और पालिश से चमकाता हूं। पालिश करते समय मेरे कानों में बुढ़िया की यह आवाज़ गूंजती है-
‘निक्के के बाबू! ये मेडल तुम को नहीं,मुझे मिले हैं–तुम को नहीं मुझे मिले हैं— ।’