दृढ़ और सौम्य राजनेता: राजमाता विजयाराजे सिंधिया

राजमाता विजयाराजे सिंधिया की 100वीं जयंती पर स्मरण आलेख

विवेक कुमार पाठक

राष्ट्रवादी विचारधारा से लेकर जनसंघ से जन्मी और राजमाता द्वारा पाली पोसी गई भारतीय जनता पार्टी के लिए राजमाता विजयाराजे सिंधिया कितनी आदरणीय बुजुर्ग हैं ये पिछले मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में देश ने देखा। मौजूदा सक्रिय राजनीति में भाजपा शीर्षस्थ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब ग्वालियर चंबल अंचल में पार्टी प्रत्याशियों के लिए जनसमर्थन मांगने आए तो सबसे ज्यादा याद उन्होंने राजमाता विजयाराजे सिंधिया को ही किया। तब विशाल जनसमूह के समक्ष पीएम मोदी ने कहा कि वो ऐसी ममतामयी मां थीं कि आधी रात को इस बेटे की चिंता कर रहीं थीं। राजघराने में जन्म लेकर भी राजमाता राजसी आभामंडल से दूर थीं। वे छोटे छोटे कार्यकर्ताओं के लिए सहज उपलब्ध थीं। राजमाता की जयंती पर पीएम मोदी ने उन्हें गांवों, जंगलों, आदिवासियों और दूरदराज में बसने वाली जनता की सेवा करने वाली प्रतिबद्ध जननेता बताया था। मोदी ने कार्यकर्ताओं को अनुकरण की सलाह देते हुए कहा था कि वे दृढ़ और सौम्य राजनेता थीं तो प्रतिबद्ध और मेहनती थीं। हम सबको इन्हीं गुणों को राजमाता से आत्मसात करना चाहिए।

राजमाता के जन्मशताब्दी वर्ष के पूर्णता अवसर पर पीएम मोदी का ये वक्तव्य आज फिर  खूब स्मरण हो रहा है। भाजपा की शिखर नेता और रहीं उन्हीं राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आज 100 वी जयंती मनाई जा रही है। आइए राजमाता की कुछ यादें कर लें अतीत के पन्नों से।
बुंदेलखंड की माटी में शौर्य और वीरता की जो कहानियां हम सुनते हैं वो तेवर वहां जन्मी राणा परिवार की बेटी लेखा दिव्येश्वरी में भी आजीवन रहा। राणा परिवार की बेटी लेखा दिव्येश्वरी भारतीय राजनीति की प्रमुख हस्ती बनेंगी तब किसको पता था मगर सागर में जन्मी इस बेटी का वात्सल्य और दृढ़ता अब भारतीय राजनीति का इतिहास और भाजपा की धरोहर बन गया है। वे भाजपा के पालकों में अग्रणी रहीं। राजनीति और सार्वजनिक जीवन में रुचि रखने वाली नई पीढ़ी के लिए राजमाता के बारे में जानना बहुत जरुरी है। राजमाता के नाम से देश भर में ख्यात विजयाराजे सिंधिया वीर छत्रसाल की बुंदेलखंडी माटी सागर से आकर ही ग्वालियर के सिंधिया राजपरिवार की बहू बनीं थीं।
स्वाभिमानी लेखा दिव्येश्वरी से राजमाता विजयाराजे सिंधिया बनने का सफर ये कुछ दिन कुछ महीने और कुछ सालों का प्रताप न था। ये सिंधिया राजपरिवार की विचारशील बहू का उतार चड़ाव भरा सफरनामा था। राजमाता विजयाराजे सिंधिया तब सिंधिया शासक जीवाजीराव सिंधिया की पसंद पर ग्वालियर रियासत की महारानी बनीं। वे परंपराओं का जीवन जीने वाली महारानी नहीं थीं। विजयाराजे सिंधिया एक स्वतंत्र विचार वाली आत्मसम्मान पसंद महिला रहीं।
वे तत्कालीन शासक जीवाजीराव सिंधिया के प्रोत्साहन एवं पंडित जवाहरलाल नेहरु के आमंत्रण पर चुनावी राजनीति में तो आईं मगर कांग्रेस के तौर तरीकों से उनका कांग्रेस से अलगाव कुछ सालों में ही हो गया। संभवत इंदिरा इज इंडिया नारे को अपनाने वाली कांग्रेस और तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व की कार्यशैली उनके उसूलों के खिलाफ थी।विजयाराजे सिंधिया ने दो आम चुनाव में कांग्रेस से सांसद रहने के बाद वैचारिक असहमति के आधार पर कांग्रेस से किनारा किया और जनसंघ को अपना स्थायी विचार बनाया। वे ग्वालियर चंबल संभाग से लेकर संपूर्ण मप्र में जनसंघ और राष्ट्रवादी विचार को मजबूत करने वाली राजनेता रहीं। कांग्रेस के स्वर्णकाल के दौरान विजयाराजे सिंधिया का कांग्रेस से तौबा करना साफ करता है कि वे राजनीति में आत्मसम्मान से समझौता करके सत्ता को स्वीकारने योग्य नहीं मानती थीं। उन्होंने आपातकाल का निडरता से खुलकर विरोध किया। पहले वे स्वतंत्र रुप से कांग्रेस के खिलाफ चुनाव में उतरीं बाद में उन्होंने जनसंघ के दीपक को अपने राजनैतिक जीवन का उजियारा बनाया और उसके दिखाए मार्ग पर चलती रहीं। वे ग्वालियर चंबल संभाग में जनसंघ और राष्ट्रवादी विचारधारा का निरंतर संरक्षण करती रहीं। जिस दौर में कांग्रेस केन्द्र से लेकर राज्य में सत्तारुढ़ थी उस समय एक विपक्षी खेमे में खड़े होना राजमाता के स्वाभिमानी और दृढ़ व्यक्तित्व को प्रकट करता है। ये निर्णय करना लाभ हानि देखने वाले राजनेता की बस की बात नहीं हो सकती मगर विजयाराजे सिंधिया से आम जनता में राजनेता का हृदयशील संबोधन पाने वाली राजमाता ने संघर्ष और स्वाभिमान को ही अपना गहना बनाया।
ग्वालियर चंबल में इंदिरा गांधी और कांग्रेस के वर्चस्व को राजमाता ने हमेशा चुनौती दी। आम चुनाव में उन्होंने कांग्रेस की सर्वोच्च नेता इंदिरा गांधी को रायबरेली में जाकर चुनौती दी हालांकि वे तब जीत न सकीं मगर इंदिरा गांधी के खिलाफ उनके चुनाव लड़ने ने राष्ट्रवादियों में भरपूर जोश भर दिया। आगे जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी तक कार्यकर्ताओं में ये उत्साह सत्ता का मार्ग प्रशस्त्र करता गया।राजमाता विजयाराजे सिंधिया राजनीति की कुशलता में सिद्ध हस्त थीं। मप्र में संविद सरकार गठन में उनकी भूमिका उनकी राजनैतिक कुशलता और चातुर्य को स्पष्ट करने में काफी है।राजमाता वात्सल्य की प्रतिमूर्ति होने के बाबजूद सिद्धांतों और स्वाभिमान के मामले मे कठोर रहीं।अपने पुत्र माधवराव सिंधिया के कांग्रेस में जाने और उससे पूर्व आपातकाल में इंदिरा के तानाशाह रवैए ने उन्हें प्रखर कांग्रेस विरोधी बनाए रखा। वे अपने पुत्र से भी इस निर्णय के कारण रुष्ठ रहीं और इकलौते बेटे के प्रति ममता उनके राजनैतिक उसूलों और सिद्धांतों को पिघला नहीं सकी।1980 में राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और अग्रणी राष्ट्रवादियों के साथ भारतीय जनता पार्टी रुपी पौधा भारतीय राजनीति में रोपा था। इस पौधे को सींचने के लिए सड़क पर संघर्ष के साथ संसाधानों की निरंतर आवश्यकता थी। सिंधिया राजपरिवार की मुखिया राजमाता ने तब राजपरिवार की थैली भारतीय जनता पार्टी को खड़ा करने खोली थी। इस वाकये को याद करते हुए उनकी बेटी  यशोधराराजे सिंधिया पूर्व में भाजपा के अंदर ही भावुक होकर कह चुकी हैं कि राजमाता ने पार्टी को खड़ा करते वक्त मेरे और बड़ी बहन वसुंधरा के गहने देने में पल भर को भी संकोच नहीं किया था।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी जैसे संघर्ष के साथी तब भाजपा को निरंतर सींच रहे थे। वे अपने साथियों और सहयोगियों को अपने रक्तसंबंधियों से ज्यादा स्नेह करती रहीं। 1984 में अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर से बिना राजमाता के प्रोत्साहन के चुनाव नहीं लड़े थे मगर तब राजीव गांधी की राजनैतिक कुशलता ने माधवराव सिंधिया को मैदान में उतारकर जनता के लिए धर्म संकट खड़ा कर डाला। राजपरिवार के प्रति ग्वालियर की जनता में आत्मीयता के चलते तब अटल जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता विजयी होने से वंचित रहे।राजमाता इसके बाद भी अपने राष्ट्रवादी साथियांे के साथ भाजपा को मप्र और देश भर में खड़ा करने निरंतर जुटी रहीं। इस बीच अपने इकलौते बेटे से लेकर परिवार और न जाने क्या क्या बीच में तमाम अंर्तविरोधों के बीच छूटता चला गया मगर राजमाता अपने राजनैतिक मूल्यों और सिद्धांतों पर अडिग बनी रहीं।कांग्रेस में कार्यरत बेटे को अपनाने के लिए उन्होंने राष्ट्रवादी साथियों और कांग्रेस से अपने संघर्ष को कभी नहीं छोड़ा।राजमाता ने कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति के समापन और हिन्दु आत्मसम्मान के लिए तब आज के शीर्षस्थ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रामजन्मभूमि रथयात्रा को भरपूर सहयोग किया। रामजन्मभूमि के लिए अयोध्या में कारसेवकों के आंदोलन का नेतृत्व करने वालों में विजयाराजे सिंधिया सबके साथ थीं। उन्हें इसके लिए मीडिया में हार्डलाइन लीडर कहा गया। 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा ढहाए जाने के जो मामले चले थे तब उन्हें भी भाजपा के दूसरे अग्रणी नेताओं की तरह आरोपी बनाया गया। वे बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की राजनेता रहीं और राम मंदिर निर्माण की आग्रहपूर्वक पक्षधर थीं।
राजनीति में आज की सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी को खड़ा करने के लिए 1980 में नींव बनने वाली राजमाता भाजपा के चंद जमीनी संस्थापकों में से एक हैं। वे भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहीं मगर अपनी बढ़ती उम्र के कारण उन्होंने संगठन और संसदीय क्षेत्र से स्व इच्छा से अपनी भूमिका का संक्षेपण किया।राजमाता के जीवन मूल्य और राजनैतिक कुशलता उनकी संतानों में भी स्वभाविक आते चले गए।  बचपन में अपनी मां राजमाता के राष्ट्रवादी क्रियाकलापों में शामिल रहीं वसुंधराराजे सिंधिया अटल सरकार में केन्द्रीय मंत्री होने के बाद राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। आगे वे राजस्थान में दो दफा इस शीर्ष पद पर रह चुकी हैं तो सबसे छोटी बेटी यशोधराराजे सिंधिया मप्र सरकार की पूर्व कबीना मंत्री एवं वर्तमान में शिवपुरी की विधायक हैं। वे दो बार ग्वालियर की सांसद भी रह चुकी हैं एवं मध्यप्रदेश भाजपा की राजनीति का बड़ा चेहरा हैं। राजमाता के बेटे माधवराव सिंधिया के निधन के बाद से सांसद बने उनके पौत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया मप्र में चुनाव अभियान समिति अध्यक्ष के रुप में कांग्रेस को 15 साल से वनवास से मुक्ति दिलाने 2018 का निर्णायक किला लड़ा जिताने में कामयाब रहे थे। उनकी इस जीत के बाद ही कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें उप्र पश्चिम से राष्ट्रीय महासचिव बनाकर उनका कद बढ़ाया हालांकि भाजपा और पीएम मोदी की लहर में वे 2019 लोकसभा चुनाव में गुना से अन्य कांग्रेसियों की तरह जीतने में नाकामयाब रहे। सिंधिया परिवार में तमाम मतभेद और राजनैतिक दूरियां होने के बाबजूद गरिमामय राजनैतिक व्यवहार बना हुआ है इसे हम राजमाता विजयाराजे सिंधिया के व्यक्तित्व और आभामंडल का प्रभाव कह सकते हैं। आगे देखना दिलचस्प होगा कि मौजूदा भाजपा और राजमाता के परिवार से निकले राजनेता उनके जीवन मूल्यों और विचारों का कितना और कहां तक अंगीकार कर पाते हैं एवं राजनीति से जनसेवा के लक्ष्य में  किस तरह की भूमिका निभाते हैं और उस पर कितने सार्थक और निरंतर कदम चल पाते हैं।

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