किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के समाधान के लिए सार्थक कदमों की जरूरत है- अखिलेश आर्येन्दु

पहले की तरह इस बार के केंद्रीय बजट में कृषि क्षेत्र के लिए मामूली बढ़ोत्तरी की गई है जबकि विभिन्न राज्यों में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं का दौर जारी है। जिन वजहों से किसान आत्महत्याएं कर रहें हैं, न तो राज्य सरकारें समग्रता से उसके समाधान के लिए कोई सार्थक कदम उठा रही हैं और न ही केंद्र सरकार ने इस बजट में कोई ऐसा प्रावधान किया कि किसानों में आशा का संचार होता। जहां तक ग्रामीण विकास के नए बजट की बात है वह पिछले वर्ष की अपेक्षा महज 300 करोड़ से कुछ ज्यादा की बढ़ोत्तरी की गई है। जाहिर तौर पर इतनी बड़ी आबादी के लिए कुछ सौ करोड़ की बढ़ोत्तरी कोई मायने नहीं रखती है। इससे न तो देश में कृषि संबंधी समस्याओं का कोई समाधान निकलने वाला है और न ही किसानों के द्वारा की जा रही आत्महत्याएं ही रुकने वाली हैं। किसानों के द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के समाधान के लिए बजट में कोई अलग से चर्चा नहीं की गई, जो एक बिडंबना ही कही जाएगी। पिछले कई सालों से किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के प्रति सहानुभूति दिखाने के लिए महज इतना भर किया जाता रहा है कि दिखाने के लिए कुछ हजार मुआवजा दे दिया जाता है। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार कभी-कभार उन किसानों के घर जा कर महज सांत्वना भर दे आते हैं। सालों से हो रही किसान आत्महत्याओं की वजह किसानों द्वारा बैंकों से लिए कर्ज को चुकता न कर पाना माना जा रहा है। लेकिन सच्चाई केवल इतनी सी नहीं है। और भी ऐसे तमाम कारण हैं जिनकी वजह से किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। जिन राज्यों के किसान आत्महत्या कर रहे हैं वे पिछड़े और अग्रणी दोनों प्रकार के राज्य हैं।

काला आय बढ़ाना भी चुनौतीपूर्ण है पिछड़े राज्यों के किसानों की महीने भर की आय 425 रुपए से भी कम है। परिवार की सारी जरूरतें इससे पूरी नहीं हो पाती हैं। बहुत से परिवारों को कई दिनों तक भूखे ही सोना पड़ता है। बैंक भी एक बार से अधिक नहीं देते हैं। सेठ से लिया रुपया चुकता नहीं हो पाता है तो आए दिन उसकी गालियां जो खानी पड़ती हैं सो अलग। खेती के लिए नए बीज, खाद, मजदूरों की मजदूरी, सिंचाई, फसलों को बीमारियों से बचाने के लिए महंगी दवाइयां, जुताई, मड़ाई और अन्न भंडारण का खर्च। इस बजट में उर्वरकों का दाम बढ़ा कर किसानों के लिए वित्त मंत्री ने मुश्किलें और भी बढ़ा दी हैं। बुवाई के लिए बीज जो मंहगा हो गया है सो अलग। यानी कृषि संबंधी हर चीज महंगी हो गई है। फसल तैयार होने पर बेचने से किसान को उतनी भी आय नहीं हो पाती है जितनी लागत लगी होती है। इसके अलावा परिवार के खाने के लिए साल भर के लिए सुरक्षित अन्न रखना आवश्यक होता है। लेकिन यदि विभिन्न कारणों से फसल खेत से घर पर आई ही नही ंतो ऐेसे में परिवार के सामने आत्महत्या करने या भूखों मरने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं होता है। यह स्थिति बिहार, उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के किसानों की ही नहीं है, बल्कि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पंजाब और महाराष्ट्र के किसानों की भी है। अप्रसंगिक है किसान आयोग राष्ट्रीय किसान आयोग के गठन के बावजूद किसानों के हित में ऐसी कोई कवायद नहीं शुरू की गई जिससे किसानों की समस्याओं का स्थाई समाधान निकल पाता और किसानों की दशा में कोई सुधार आता। विडंबना ही कही जाएगी कि किसान आयोग का सदस्य किसान न होकर, एक वैज्ञानिक हैं। इसलिए किसानों की दशा के बारे में उनको वैसी जानकारी नहीं है, जैसी की एक किसान को होती है। इस बारे में न केंद्र सरकार को कोई ध्यान है और न ही देशभर में गठित किसान यूनियनों को ही। पिछले सालों में महाराष्ट्र में एक हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं कीं। इसी तरह पंजाब, राजस्थान, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी पिछले साल और इस साल हजारों की तादाद में किसानों ने आत्महत्याएं कीं। लेकिन न तो इन आत्महत्याओं पर मीडिया में कोई खास तवज्जो दी जा रही है और केंद्र तथा राज्य सरकारें भी चुप्पी साधे हुए हैं। इन आत्म हत्याओं से क्या यह नहीं समझा जा सकता है कि कृषि संकट कई स्तरों पर है जो बहुत ही गहरा है? और सबसे गौर करने वाली बात यह है कि राज्य और केंद्र सरकार के लिए यह कोई संकट ही नहीं लगता है। सरकारें यह कभी नहीं सोचती हैं कि जिस कृषि के बल पर देश टिका हुआ है उसकी समस्या का समाधान प्राथमिक स्तर पर क्यों नहीं होना चाहिए? जो किसान तपस्या करके अन्न पैदा करता है, वह भूखा क्यों रहता है और भूख से लाचार होकर आत्महत्या जैसा निंदनीय कदम क्यों उठाता है? पलायन रोकने की चुनौती दूसरी बात यह सोचने की है कि भारतीय किसानों की क्रय-शक्ति कितनी है ? एक महीने में नौकरी वाला या व्यापारी का खर्च पांच हजार से लेकर बीस हजार रुपए तक है। लेकिन किसानों की औसत महीने का खर्च 503 रुपये और पिछड़े प्रदेशों की 425 रुपये मात्र है। यह आंकड़ा भी बहुत सही नहीं लगता है। क्योंकि पिछडे प्रदेशों के किसानों की महीने की औसत आय ही चार सौ के लगभग है। और भूमिहीन किसानों की स्थिति तो और भी नाजुक है। क्या केंद्र और राज्य सरकारें इस बदहाली का ठीक-ठीक अंदाजा लगा सकते हैं कि भारतीय किसान की दशा कितनी दीन-हीन है ? लेकिन सरकार इस मुद्दे पर न कभी सोचती है और न इनके विकास के लिए कोई सार्थक कदम ही उठाया जाता है। क्या सरकार किसानों के विकास की दिशा और दशा को समझकर इनके सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठा सकती ? क्या कृषि संकट का स्थाई समाधान नहीं किया जा सकता है? प्राइवेट और सरकारी ऐसा कोई क्षेत्र नहीं होगा, जिस पर सरकार ने उसके सुधार के लिए समितियों का गठन न किया हो। लेकिन कृषि पर आजादी से लेकर आज तक इसके सुधार हेतु कोई ऐसी समिति गठितं नहीं की गई जिसमें सारे पदाधिकारी और सदस्य किसान हों। केंद्र और राज्य सरकारों ने कोई शोध सारी समस्याओं पर भी नहीं कराया, जिससे सार्थक समाधान की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता था। जब की सभी केन्द्र और राज्य सरकारें यह दावा करती रहती हैं कि वे किसान हितैषी सरकारें हैं। मतलब सबने किसानों को धोखा देने का काम किया है। लेकिन विडंबना यह है कि सरकारें किसानों की हितैषी होने की बड़ी-बड़ी डीगें तो मारती हैं लेकिन किसानों की बढ़ती समस्याओं के समाधान की तरफ सही मायने में किसी का ध्यान नहीं है। फिर कृषि को छोड़कर यदि किसान शहर की तरफ पलायन करता है या व्यापार को अपनाता है तो इसमें गलत क्या है? जिस कृषि प्रधान देश में किसान भूखों मरने और आत्महत्या करने के लिए मजबूर हों, वह देश भला कैसे विकसित देशों में शामिल हो सकता है?

-लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

2 COMMENTS

  1. समाधान गाय आधारित शून्य लागत कृषि हो सकता है। गाय के गोबर और गोमूत्र से जीवामृत और जैविक खाद जैविक कीटनाशक बनाये जाये। रासायनिक खाद पर पूर्णतः प्रितिबंध लगा देना चाहिए इससे यह होगा कि किसान फिजूल खर्च से बचेगा और खुद का बनाया जैविक खाद का इस्तेमाल करेगा। इससे लोगो को बिना जहर का भोजन मिल सकेगा लोग बीमार भी नही होंगे और जमीन की उर्वरकता में जो दिनों दिन गिरावट हो रही है वो भी नही होगी और शुद्ध अन्न खाने से लोग कम बीमार होंगे। रासायनिक खाद के इस्तेमाल से जमीन पथरा गई है जिससे वर्षा का जल जमीन में नही बैठ पाता है फिर जलस्तर में गिरावट आ रही है। हर गांव में बायो गैस स्टेशन लगानी चाहिए जिसे कंप्रेस करके पेट्रोल के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए जिससे देश का हजारो करोड़ रुपये बच जाएगा। किसान को बीज के लिए स्वाबलंबी होना होगा।

  2. अखिलेश जी सप्रेम अभिवादन …………….
    आप का लेख प्रसंसनीय है ………आपको हार्दिक बधाई …..
    लक्ष्मी नारायण लहरे
    पत्रकार
    छत्तीसगढ़

Leave a Reply to LAXMI NARAYAN LAHARE KOSIR Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here