राजनीति

स्वानुशासन भूले का नतीजाहै ’स्वराज सम्वाद’

Swaraj1600चार बरस पहले इतिहास ने करवट ली। जे पी की संपूर्ण क्रांति के दौर के बाद जनमानस एक बार फिर कसमसाया। वैश्विक महाशक्तियों द्वारा भारत को अपने आर्थिक साम्राज्यवाद की गिरफ्त में ले लेने की लालसा के विरुद्ध धुंआ भी उठा। अन्ना-केजरीवाल की जोङी के साथ मिलकर करोङों भारतीयों ने एक सपना देखा। इसे सुयोग कहिए या दुर्योग कि यह मौका उस दौर में आया, जब बुद्धिजीवी ही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर प्रधान, पंच और गांव के आखिरी आदमी तक राजनीति के चारित्रिक गिरावट के दुष्प्रभाव की चपेट में थे। हाशिये के लोगों की बात करने वाले खुद हाशिये पर ढकेले जा रहे थे। फिलहाल वह धुंआ न आग बन सका और न ही किसी बङे वैचारिक बदलाव का सबब। वह धुंआ, सत्ता परिवर्तन का माध्यम बनकर रह गया। आम आदमी पार्टी में हुए तात्कालिक द्वंद ने यही एहसास छोङा है। जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन का भी दूरगामी एहसास भी यही है। काश! यह एहसास आगे चलकर गलत साबित हो। इस एहसास की सच्चाई पर तो शायद किसी को ही संदेह हो कि इस बीच आम आदमी पार्टी के नेताओं ने उस स्वानुशासन एक नहीं, कई बार खोया, जो कि स्वराज का असल मतलब है। उन्होने अपनी ही बनाई आचार संहिताओं का उल्लंघन किया।

अनैतिकतावाद के व्यापक दुष्प्रभाव का दौर

याद कीजिए, पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ही एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने इसे युद्ध की संज्ञा देते हुए कहा था – ’’प्रेम और युद्ध की कोई आचार संहिता नहीं होती।’’ आम आदमी पार्टी की राजनैतिक मामलों की समिति की विवादित बैठक के बाद टेलीविजन पर बयान देने आये आशुतोष के पीछे एक पुलिसकर्मी के साथ हाथ में हाथ कसे सुरक्षा घेरा बनाये कई हाथ दिखाई दिए। इसका मायने क्या है ? यह भय किससे था ? क्या नजारा और नजरिया सचमुच इस स्तर तक गिर गया है ?क्या सचमुच यह आचार संहिताओ के टूटने का ही नहीं, उसके व्यापक दुष्प्रभाव का भी दौर है ? क्या आम आदमी पार्टी ने भी जनप्रतिनिधि बनने का मतलब जनप्रतिनिधित्व नहीं, ऐसा राजभोग समझ लिया गया है, जो एक तरह के राजरोग का ही पर्याय है।

जे पी ने इस बारे में कहा था – ’’अज्ञात युगों से ऐसे राजनीतिज्ञ होते चले आयें हैं, जिन्होने यह प्रचारित किया है कि राजनीति में आचार नाम की कोई चीज नहीं है। पुराने युगों में यह अनैतिकवाद फिर भी राजनीति का यह खेल करने वाले एक छोटे से वर्ग से बाहर अपना दुष्प्रभाव नहीं फैला सका था। अधिसंख्य लोग राज्य के नेताओं और मंत्रियों के आचरणों से दूषित होने से बचे रहते थे। परंतु सर्वाधिकारवाद, का उदय हो जाने से यह अनैतिकतावाद विस्तार के साथ लागू होने लगा है। यह ऐसा सर्वाधिकारवाद है, जिसके भीतर नाजीवाद-फासीवाद और स्तालिनवाद सभी शामिल है। आज समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसकी चपेट में आ गया है।’’

क्या यह सच नहीं कि जनता भी वोट का बटन दबाते वक्त यदि तमाम नैतिकताओं व उत्तरदायित्वों को ताक पर रखकर जाति, धर्म और निजी लोभ-लालच के दायरे को प्राथमिकता पर रखती है ? क्या यह झूठ है कि उम्मीदवार से ज्यादा, अक्सर पार्टी ही हम वोटरों की प्राथमिकता पर रहती है ? इस नजरिए का ही नतीजा है कि कितनी ही भौतिक, आर्थिक व अध्यात्मिक अनैतिकताओं को आज हमने ’इतना तो चलता है’ मान लिया है। यही कारण है कि आज सत्ता अनुशासन के सारी आचार संहितायें नष्ट होती नजर आ रही हैं। यह बात कङवी जरूर है; लेकिन यदि हम अपने जेहन में झांककर देखे, तो आज का सच यही है।

हालांकि भारत अभी राजनैतिक विषमता और असंतुलन ऐसे चरम पर नहीं पहुंचा है कि शुचिता और बदलाव के सभी द्वार बंद हो गये हों। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समाज और सत्ता के बीच जो समझ और समझौता विकसित होता दिख रहा है, उसकी नींव भी अनैतिकता की नींव पर ही टिकी हैं – ’’तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हे खैरात दूंगा।

अतीत की सीख

’राजसत्ता का अनुशासन’ नामक एक पुस्तक ने ठीक ही लिखा है कि नैतिक गिरावट के इस दौर में पुनः उत्कर्ष का रास्ता अध्यात्म और भौतिक… दोनो माध्यम से हासिल किया जा सकता है; लेकिन शर्त है कि सबसे पहले सतत् सामुदायिक संवाद के पारदर्शी मंच फिर से जीवित हों। इसके लिए नतीजे की परवाह किए बगैर वे जुटें, जिनके प्रति अभी भी लोकास्था जीवित है; जिनसे छले जाने का भय किसी को नहीं है। बगैर झंडा-बैनर के हर गांव-कस्बे में ऐसे व्यक्तित्व आज भी मौजूद है; जो लोक को आगे रखते हुए स्वयं पीछे रहकर दायित्व निर्वाह करते हैं। गङबङ वहां होती है, जहां व्यक्ति या बैनर आगे और लोक तथा लक्ष्य पीछे छूट जाता है। राष्ट्रभक्त महाजनों को चाहिए कि वे ऐसे व्यक्तित्वों की तलाश कर उनके भामाशाह बन जायें। आम आदमी पार्टी के आने पर कुछ भामाशाह शायद यही सोचकर आगे आये थे।

खैर, जिस दिन ऐसे व्यक्तित्व की सही पहचान की जा सकी; उन्हे सहारा दिया जा सका; सच मानिये कि वे छोटे-छोटे समुदायों को उनके भीतर की विचार और व्यवहार की नैतिकता से भर देंगे, उस दिन भारत पुनः उत्कर्ष की राह पकङ लेगा। तब तक देर न हो जाये, देश में दौलत करने वाले संसाधन व सत्ता में सुस्थिरता पैदा करने वाली लोकास्था पूरी तरह लुट न जाये, इसके लिए बुद्धिजीवी वर्ग की कलम व वाणी को औजार बनकर सत्याग्रह करने रहना है। रचनाकारों को रचना के बीज बोते चलना है। केजरीवाल रचना और सत्याग्रह को साथ-साथ साधने में असमर्थ रहे।

स्वराज संवाद से अपेक्षायें

खैर, याद रखने की बात है कि राष्ट्र के उत्थान, राजनीति में बेहतरी और समाज में बदलाव के लिए स्वयं को झोंकने वाले लोग जुनूनी होते हैं। उन्हे हर पल काम चाहिए। सत्याग्रह, अनशन, विरोधी स्वर से पैदा आंदोलन में हर पल, हरेक के लिए काम पैदा नहीं किया जा सकता। रचना ही हर पल.. हरेक को काम दे सकती है। रचना और सत्याग्रह साथ-साथ चलें। बदलाव करना है, तो लक्ष्य बदलाव व सिद्धांत ही हों, जीत नहीं। केजरीवाल ने लक्ष्य बदला। उनका लक्ष्य जीत हो गया। इसीलिए सिद्धांत और बदलाव पीछे छूटता दिखाई दे रहा है। राजनीति बदलकर बेहतर करनी है, तो आगे यह न हो।यही अतीत की सीख भी है और सुंदर भविष्य की नींव भी।

आम आदमी पार्टी में व्यक्तिवाद को चुनौती देने निकले योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण क्या यह कर सकेंगे ? 14 अप्रैल को स्वराज संवाद के जरिए अतीत की खामियों की पहचान कर आगे का तलाशने की कोशिश में क्या उन्हे खुद को याद रहेगा कि स्वराज का असल मतलब क्या है ? ’स्वराज’ की एक व्याख्या ’अपना राज’ के रूप में की गई है। कुछ लोगों की नजर में ;अपना राज’ का मतलब है -भारत पर भारतीयों का राज। अरविंद केजरीवाल की नजरों में ’स्वराज’ का मतलब ’तंत्र पर जनता का राज’ है। किंतु केजरीवाल भूल गये कि गांधी की स्वराज अवधारणा का मतलब जनता का राज न होकर, अपने ऊपर स्वयं का राज था।

सुशासन की पहली शर्त-स्वानुशासन

कहना न होगा कि सुशासन तानाशाही, जबरदस्ती या प्रताङना की बजाय स्वप्रेरणा व स्वानुशासन पर आधारित व्यवस्था का नाम है। स्वानुशासन..सुशासन की पहली निशानी है।अंग्रेजों ने सबसे पहले इसी निशान को तोङा। इसके निशान के टूटने के दुष्परिणाम भारत आज तक भुगत रहा है। यह ’स्वानुशासन’ ही किसी भी प्रकार के तंत्र में ’सुशासन’ की गारंटी देने में सक्षम है।’स्वानुशासन’,’सुराज’ का मूलमंत्र है।’स्वानुशासन’ के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था होने के कारण ही लोकतंत्रिक व्यवस्था को सर्वश्रेष्ठ माना गया। लोकतंत्र में लोकप्रतिनिधियों का स्वानुुशासित होना, सुशासन की खुद-ब-खुद गारंटी है।

हालांकि किसी भी व्यवस्था में स्वानुशासन सबसे आदर्श स्थिति होती है।’स्वानुशासन’ के ख्याल को फिलहालआप मुंगेरीलाल के हसीन सपना कह सकते है; बावजूद इसके एक सत्य, सार्वभौमिक और निर्विवाद है कि अनुशासित हुए बगैर सुशासन संभव नहीं।इससे समझौता नहीं किया जा सकता। इससे समझौता करने का हश्र वही होता है, जो आम आदमी पार्टी का हुआ है।जो सत्ता स्व-अनुशासित नहीं होती, उसके निरंकुश होने का खतरा हमेशा बना रहता है।

सत्ता को अनुशासित करने की भूमिका

इतिहास गवाह है कि जब-जब सत्तायें गिरावट के ऐसे दौर में पहुंची, हमेशा वैचारिक शक्तियों ने ही डोर संभालकर सत्ता की पतंग को अनुशासित करने का उत्तरदायित्व निभाया। इसके लिए उन्हे दंडित, प्रताङित व निर्वासित तक किया जाता रहा है। भारत में लंबे समय तक राजसत्ता धर्मसत्ता द्वारा अनुशासित होती रही। राजा भी धर्मसत्ता के अंकुश से संचालित होता था। कथानक हैं कि निरंकुश होने पर इन्द्र जैसे देवप्रमुख को भी अपने आसन से च्युत होना पङता था। दलाईलामा, नेल्सन मंडेला व आंग सू ची से लेकर दुनिया के कितने ही उदाहरण अंगुलियों पर गिनाये जा सकते हैं।

अतीत में सत्ता को अनुशासित करने की भूमिका में कभी गुरु बृहस्पति और शुक्राचार्य का गुरुभाव, कभी अयोध्या का लोकानुशासन, कभी विदुर की स्पष्टवादिता, कभी कौटिल्य का दुर्भेद राजकवच, कभी माक्र्स-एंगेल्स का कम्युनिस्ट पार्टी घोषणापत्र…. तो कभी गांधी-विनोबा का राजनीतिक नैतिकतावाद दिखाई देता रहा है। आजाद भारत में यही भूमिका राममनोहर लोहिया के मुखर समाजवादी विचारों और जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने निभाई। जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के मामले में यह भूमिका निभाने की कोशिश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करता रहा है। कांग्रेस में यह दायित्व निर्वाह सेवा दल द्वारा किया जाना चाहिए था।

प्रत्येक राजनैतिक दल में जरूरी एक सर्वोच्च नैतिक कार्य बल

यदि राजनीति, सचमुच नैतिक, स्वच्छ और मूल्यपरक बनानी है; दल को दलदल में फंसने से बचाना है, तो एक सुझाव आम आदमी पार्टी को भी समझना होगा। स्वयंको अनुशासित, स्वच्छ, नैतिक बनाये रखने के लिए पार्टी स्वयं एक नैतिक कार्यबल का गठन करे। इसका काम मान्य सिद्धांतों से अलग जाने पर पार्टी नेताओं को टोकना, रोकना तथा सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने के लिए नेता और कार्यकर्ता को प्रेरित, प्रशिक्षित और प्रोत्साहित करना होना चाहिए। मान्य सिद्धांतों की पालना न करने पर दण्डित करने का अंतिम अधिकार भी इसी नैतिक कार्यबल के पास होना चाहिए। यह तभी हो सकता है, जब ऐसे नैतिक कार्यबल का स्थान पार्टी संगठन में सबसे ऊपर हो।

किंतु यहां यह भूलने की बात नहीं कि स्वानुशासित समाज यह भूमिका निभाने में सबसे सक्षम रहा। जो समाज ही स्वयं ही अनुशासित न हो, उसमें सत्ता को अनुशासित करने की क्षमता नहीं होती।अतः नैतिक कार्यबल का खुद में अनुशासित और नैतिक होना जरूरी है। क्या आम आदमी पार्टी, ऐसे नैतिक कार्यबल के लिए इच्छुक होगी। 14 अप्रैल के स्वराज संवाद में जाने वाले आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता क्या अपने अंदर यह क्षमता विकसित कर सकेंगे ? इस सवाल के जवाब की प्रतीक्षा दिल्ली को अवश्य रहेगी।

 

–अरुण तिवारी