स्वाध्याय और ईश्वरोपसना

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मनमोहन कुमार आर्य

स्वाध्याय का ईश्वरोपसना से क्या कोई सम्बन्ध है? इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है क्योंकि मनुष्य के जीवन से इसका गहरा सम्बन्ध है। प्रायः सभी मतों के लोग ईश्वरोपासना करते हैं परन्तु सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय से पृथक रहते हैं। उन्हें परिवार व अन्यत्र जो उपासना बता दी जाती है, उसी को वह अपना लेते हैं। इन बन्धुओं में अपनी कोई ऊहा व चिन्तन नहीं होता कि वह जो करते हैं वह उचित है या नहीं? विगत एक दो दशकों में देश में अनेक नये मत उत्पन्न हुए हैं। बहुत से मत पहले से भी हैं। वर्तमान में नये नये मतों की उत्पत्ति का क्रम जारी है और आगे भी ऐसा ही चलता रहेगा। सभी मतों में कुछ पद्धतियां समान हैं और कुछ में परस्पर अन्तर भी हैं। सभी में यह परम्परा व मान्यता है कि उनके गुरु जी ने जो कह दिया अथवा दो चार पीढ़ी से जो होता आ रहा है, वही ठीक है, उसे बदला नहीं जा सकता। ऐसे बन्धुओं में अपना विवेक नहीं होता कि वह उपासना जैसे विषय में अपनी कोई स्वतन्त्र राय व मान्यता निर्धारित कर सकें। हमें लगता है कि ऐसे व्यक्तियों का सुधार होना कठिन है। यदि मूल में जाते हैं तो इसका कारण इन बन्धुओं की अविद्या तो सिद्ध होती ही है, इसके साथ ही इनके मतों के आचार्यों की अविद्या भी सिद्ध होती है। यदि सबकी अविद्या दूर हो जाये तो फिर एक उपासना पद्धति का निर्धारण करने में कठिनाई नहीं होगी। मुख्य प्रश्न यही है कि उपासना विषयक अविद्या को किस प्रकार दूर किया जाये?

 

अविद्या को सामान्यतः अज्ञान के नाम से जाना जाता है। अविद्या को दूर करने के लिए सबसे आवश्यक गुण यह है कि मनुष्य को पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिये। जो व्यक्ति यह मान बैठा है कि वह जो कर रहा है वह ठीक है तो फिर ऐसे व्यक्ति को सुधारना कठिन है। अविद्या व अज्ञान दूर करने का सबसे सरल व सार्थक प्रभावशाली उपाय किसी वैदिक विद्वान सद्गुरू से उपदेश ग्रहण करना है एवं सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना है। पहला कार्य तो मनुष्य को पूर्वाग्रहों से मुक्त होना होगा। दूसरा कार्य यह करना है कि उसे वेद व वैदिक साहित्य का निष्पक्ष व जिज्ञासु के रूप में अध्ययन करना। अध्ययन करते हुए जिस बात को पढ़ा जाये उस पर पक्ष विपक्ष के रूप में स्वयं सभी प्रकार के सम्भावित प्रश्न उत्पन्न कर उसका उत्तर जानने का प्रयास करना चाहिये। इस प्रकार से यदि स्वाध्याय वा अध्ययन करेंगे, तो धीरे धीरे मनुष्य को सत्य व असत्य का ज्ञान व स्वरूप स्पष्ट होता जायेगा। उदाहरण के लिए हम ‘सत्यार्थ प्रकाश’ ग्रन्थ का अध्ययन करते हैं जिसमें सभी प्रकार की धार्मिक मान्यताओं को प्रस्तुत करते हुए वेदमत भी दिया गया है तथा इसकी पुष्टि में प्रमाण भी दिये गये हैं। इसी प्रकार इसके कुछ समुल्लासों में अन्य मत-मतान्तरों की मान्यताओं को प्रस्तुत कर उन पर विचार किया गया है और उनकी सत्यता वा असत्यता की परीक्षा निष्पक्ष भाव से, सत्य के निर्णयार्थ की गई है। इन सबको पढ़ते हुए हम अपने मन में सत्यार्थ प्रकाश में पुष्ट मान्यताओं पर विपक्षी बन कर भी विचार कर सकते हैं। यदि हम सफल होते हैं तो हमें अपने विचार व मान्यताओं को वैदिक व आर्य विद्वानों के सम्मुख रखकर अपने विचारों का मण्डन करना चाहिये और सत्यार्थप्रकाश समर्थित व स्वीकार्य विचारों का खण्डन करना चाहिये। यहां हमारा यह दायित्व है कि हम निष्पक्ष भाव से अपनी बात कहें व आर्य व वैदिक विद्वानों की बातें व स्पष्टीकारण एवं समाधानों को धैर्य व निष्पक्ष भाव से सुन कर स्वयं सत्य व असत्य का निर्णय करें। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि एक ही विषय में में दो परस्पर मान्यतायें कदापि सत्य नहीं हो सकती। जैसे यदि ईश्वर निराकार है तो इसका विरोधी विचार साकार सत्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार सर्वव्यापक पदार्थ एकदेशी नहीं हो सकता। असीम असीम ही रहेगा, ससीम नहीं हो सकता। यदि ईश्वर न्यायकारी है तो फिर वह नियमों को तोड़ कर किसी के पाप व गुनाह मुआफ व क्षमा नहीं कर सकता। यदि क्षमा कर देता है तो वह न्यायकारी सिद्ध नहीं होगा। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। उसने यह संसार बनाया है। संसार बनाने के लिए उसे अवतार लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी तो संसार बनाने के बाद किसी दुष्ट को मारने व प्रताड़ित करने के लिए भी उसे अवतार की आवश्यकता नहीं है। वह अपने नियमों व सामथ्र्य के अनुसार उसका वध कर सकता है। आजकल देश व संसार में दुष्टों की क्या कोई कमी है? फिर अवतार क्यों नहीं हो रहे हं? क्या ईश्वर ने  अवतार लेने की शक्ति समाप्त हो गई है? वस्तु स्थिति यह है कि ईश्वर जिस प्रकार किसी जीव को जन्म देता है, उसी प्रकार उसे मार भी सकता है और मारता आ रहा है। एक दिन में विश्व में लाखों लोग मरते हैं। इन्हें कौन मारता है। हमारा तात्पर्य है कि मनुष्यों के शरीरों से उनकी आत्माओें को कौन पृथक करता है। इसका एक ही उत्तर है कि ईश्वर करता है। प्रतिदिन मनुष्य व अन्य प्राणी योनियों में करोड़ों आत्माओं को ईश्वर जन्म देता है और उतनों की ही मृत्यु उसके द्वारा उसके विधान के अनुसार होती है। अतः एक दिन में लाखों करोड़ों मनुष्य व प्राणियों को मारने वाले ईश्वर को किसी एक दुष्ट व महादुष्ट को मारने के लिए अवतार लेना पड़ता हो, यह मान्यता सत्य सिद्ध नहीं होती।

 

ऋषि दयानन्द (1825-1883) के समय में वेद की तो बात ही क्या, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति के हिन्दी भाषा के भाष्य व अनुवाद कहीं सुलभ नहीं थे। महर्षि दयानन्द ने महाभारत काल के बाद पहली बार वेदों के सत्यार्थ वेदभाष्य के रूप में प्रस्तुत किये। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायी विद्वानों ने भी वेदों के हिन्दी भाष्य तैयार कर प्रकाशित कराये। दर्शनों व उपनिषदों के अनेक विद्वानों ने इन पर टिकायें लिखी। महाभारत व रामायण पर भी अनेक ग्रन्थ आर्य विद्वानों ने तैयार कर प्रकाशित कराये। वेदों के स्वाध्याय की प्रचुर सामग्री भी भिन्न भिन्न विषयों व नामों से अनेक विद्वानों के द्वारा तैयार होकर प्रकशित हुई। विगत लगभग एक से डेढ़ शताब्दी से आर्य विद्वानों ने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू व अंग्रेजी ने प्रभूत वैदिक साहित्य का सृजन कर सामान्य पाठकों तक पहुंचाया जिसका सुपरिणाम सामने है। आज जो बातें अन्य मतों के बड़े बड़े पण्डित व विद्वान नहीं जानते हैं उन्हें आर्यसमाज का एक साधारण पाठक व अनुयायी जानता है व अपने जीवन में उसका व्यवहार भी करता है। घर घर में हवन होते हैं। सामूहिक सन्ध्या होने के साथ आर्य ग्रन्थों का स्वाध्याय भी होता है। ईश्वर की उपासना का अर्थ है कि ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर मनुष्यों व सभी प्राणियों पर उसके अनेकानेक उपकारों को स्मरण कर कृतज्ञता व धन्यवाद व्यक्त करना। महर्षि दयानन्द ने ईश्वरोपासना के लिए “सन्ध्या” नाम की पुस्तक लिखी है जिसमें आचमन, इन्द्रियस्पर्श, मार्जन, प्राणायाम, अघमर्षण, मनसा परिक्रमा, उपस्थान, गायत्री, समर्पण और नमस्कार मन्त्रों का विधान कर सभी मन्त्रों के हिन्दी में अर्थों को भी प्रस्तुत किया है। मन्त्रों व इनके अर्थों को पढ़कर स्वाध्यायकत्र्ता व उपासक ईश्वरोपासना से पूर्णतः परिचित हो जाता है। योगदर्शन पर भी महात्मा नारायण स्वामी, आचार्य उदयवीर शास्त्री, पं. राजवीर शास्त्री पं. आर्यमुनि आदि अनेक विद्वानों ने हिन्दी भाषा में टीकायें लिखी हैं जिनका अध्ययन कर उपासना के विषय में परिचित हुआ जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने संस्कार विधि में स्तुति प्रार्थना व उपासनों के आठ मन्त्रों सहित स्वस्तिवाचन व शान्तिकरण के मन्त्रों का जो विधान किया है वह भी उपासना में सहायक होता है। इन सबके साथ वेदों का स्वाध्याय व वैदिक ग्रन्थ वेदमंजरी, ऋग्वेद ज्योति, अथर्ववेद ज्योति, वैदिक विनय, स्वाध्याय सन्दोह, श्रुति सौरभ, सोमसरोवर सहित सामवेद पर विश्वनाथ विद्यालंकार एवं आचार्य रामनाथ वेदालंकार आदि विद्वरानों के ग्रन्थों का अध्ययन कर भी उपासना व भक्ति का पूर्ण ज्ञान व विधि जानी जा सकती है। इनसे अर्जित ज्ञान से ईश्वर की उपासना करने से मनुष्य उपासना के फल ईश्वर से प्रीति, दुर्गुणों का छूटना, सद्गुणों का आधान, ईश्वर के ध्यान में लम्बे समय तक स्थिति आदि अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। महर्षि दयानन्द ने उपासना का फल बताते हुए यह भी कहा है कि इतना ही नहीं अपितु उपासना से अनेक लाभ होते हैं। यथा अग्नि के समीप जाने से जिस प्रकार से शीत की निवृत्ति होती है उसी प्रकार ईश्वरोपासना से से मनुष्य के दुर्गुण, दुव्र्यस्न आदि छूटकर उसके सद्गुणों में वृद्धि होती है। आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी वह घबराता नहीं है, क्या यह छोटी बात है? उन्होंने यह भी बताया है कि जो ईश्वर की उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख होता है। ऐसा इसलिये कि मनुष्य द्वारा ईश्वर के उपकारों को भुला देने से वह कृतघ्न व महामूर्ख सिद्ध होता है। बिना स्वाध्याय व सत्योपदेश के उपासना का मर्म नहीं जाना जा सकता। इस दृष्टि से आर्यसमाज के अनुयायी भाग्यशाली हैं जिनके पास स्वाध्याय के अनेक ग्रन्थ उपलब्घ हैं और प्रायः सभी ऋषि भक्त आर्य स्वाध्याय करते हैं।

 

हमने विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। आशा है कि पाठकों को इससे लाभ होगा। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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