शहर की चिंता में क़ाज़ी जी का दुबला होना

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निर्मल रानी
अपनी चिंता छोड़ पड़ोसी के विषय में ‘सामान्य ज्ञान’ हासिल करना, दूसरों के चरित्र या उसके कार्यकलापों की जानकारी रखना अथवा किसी की पोशाक अथवा खान-पान जैसी अति व्यक्तिगत् बातों तक पर अपनी नज़रें रखना गोया हमारे समाज की ‘विशेषताओं’ में शामिल हो चुका है। समाज का यही स्वभाव जब व्यापक रूप धारण करता है तो यही ताक-झांक कभी लिंग-भेद के आधार पर होने वाली पक्षपातपूर्ण सोच के रूप में परिवर्तित होती नज़र आती है तो कभी यही सोच धर्म व जाति के आधार पर अपना फैसला सुनाने पर आमादा हो जाती है। बड़े अफसोस की बात है कि आज पुरुष प्रधान समाज का रूढ़ीवादी व संकुचित सोच रखने वाला एक वर्ग यह तय करने लगा है कि कौन क्या पहने,कौन क्या खाए,कौन किससे मिले,कौन किससे शादी-विवाह करे और कौन अपने बच्चों का नाम क्या रखे और क्या न रखे। स्वयं को बुद्धिजीवी तथा सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने का दावा करने वाले इसी पुरुष समाज के एक विशेष वर्ग द्वारा मानवाधिकारों का शत-प्रतिशत हनन करने वाले ऐसे सवाल कभी उठाए जाएंगे और वह भी आज के उस आधुनिक युग में जबकि इंसान चांद और मंगल जैसे ग्रहों की अविश्सनीय सी लगने वाली यात्रा की ओर अपने कदम बढ़ा चुका है, इस बात की तो कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। परंतु दुर्भाग्यवश आज यही हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई है।
हमारे देश में इस विषय पर बहुत गर्मागर्म बहस कई बार छिड़ चुकी है कि महिलाएं किन-किन मंदिरों व दरगाहों में जाएं और किस सीमा तक जाएं और कहां तक नहीं। इस विषय पर महिलाओं द्वारा बड़े पैमाने पर संघर्ष किया गया,अदालतों का दरवाज़ा खटखटाया गया। नतीजतन अदालत ने इस मामले में हस्तक्षेप कर महिलाओं के पक्ष में अपना फैसला सुनाया। ज़रा इस घटनाक्रम के दूसरे पहलू पर भी नज़र डालने की कोशिश करिए। हमारे देश में लाखों ज़रूरी मुकद्दमे सिर्फ इसलिए अदालतों में लंबित पड़े हुए हैं क्योंकि वहां न्यायधीशों की संख्या में भारी कमी है। परंतु दूसरी ओर ऐसे मुद्दे जिनका न्यायालय से ही नहीं बल्कि पूरे समाज से भी कोई लेना-देना न हो वे भी अदालतों में पहुंचकर अदालतों का कीमती समय खराब करते हैं। उधर देश का मीडिया भी ऐसी खबरों में चटपटा व मसालेदार तडक़ा लगाकर अपनी टीआरपी की खातिर इसे बार-बार कभी खबरों में तो कभी ऐसे विषयों पर विशेष कार्यक्रम प्रसारित कर परोसता रहता है। ऐसा लगता है कि मीडिया की नज़रों में उस समय का देश का सबसे ज्वलंत मुद्दा ही यही हो? बहरहाल विभिन्न अदालतों ने शनि शिंगणापुर व हाजी अली जैसे धर्मस्थलों में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक हटा दी। परंतु पुरुष प्रधान समाज के स्वयंभू ठेकेदारों की आंखें इस अदालती आदेश के बावजूद अभी तक नहीं खुल सकीं।
अब ताज़ातरीन विवाद जो हमारे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है वह यह है कि भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी मोहम्मद समी ने सोशल मीडिया पर अपने एकाऊंट में एक ऐसी पारिवारिक फोटो क्यों शेयर की जिसमें मोहम्मद समी की पत्नी के बाज़ू खुले नज़र आ रहे हैं। ज़रा सोचिए कि ऐसी फोटो जो मोहम्मद समी स्वयं अपनी इच्छा व अपनी पसंद से सोशल मीडिया पर सांझी कर रहा हो उस फोटो पर दूसरों का आपत्ति करना कितना हास्यास्पद व शर्मनाक है? जिस देश में दशकों से बिना बाज़ू (स्लीवलेस)कपड़े पहनने का चलन फैशन में हो वहां के दिकयानूसी एवं बीमार मानसिकता के लोग मोहम्मद समी या दूसरों को यह कहते फिरें कि आप अपने घर की महिलाओं को ऐसे कपड़े मत पहनाओ? इसी मानसिकता के लोगों ने सानिया मिजऱ्ा की टेनिस पोशक पर भी सवाल उठाया था। बड़ा अफसोस है कि इस प्रकार का प्रश्र खड़ा करने वाले अक्ल के अंधों की नज़र ऐसे लोगों की प्रतिभा पर नहीं जाती बल्कि उन्हें इनके बाज़ू व जांघें दिखाई देती हैं। अब सीधा सा सवाल यह है कि कुसूरवार उन महिलाओं की बाज़ुएं या जांघें हैं या फिर समाज के नुक्ताचीनी करने वाले इन स्वयंभू ठेकेदारों की बुरी नज़रंे? ज़ाहिर है अपनी गंदी नज़रों व प्रदूषित सोच पर नियंत्रण रखना स्वयं इन्हीं का काम है।
अभी कुछ दिन पूर्व सैफ-करीना के घर बच्चे ने जन्म लिया। परिवार ने नवजात शिशु का नाम तैमूर अली खां पटौदी रखा। यहां भी लोगों को एतराज़ होने लगा कि इस परिवार ने अपने बेटे का नाम तैमूर क्यों रख दिया। तमाम जि़म्मेदार मीडिया घराने के लोग तैमूर लंग का इतिहास खंगालने लगे। इसे प्रकाशित भी किया जाने लगा। गोया देश व जनता का समय इसमें भी बरबाद होता रहा। तैमूर का नामकरण तैमूर बादशाह के पिता ने भी किसी दूसरे तैमूर शब्द के नाम पर ही किया होगा? यदि सैफ-करीना अपने बेटे का नाम तैमूर रखते हैं तो किसी की सोच की सुई तैमूर बादशाह या उसकी क्रूरता पर जाकर अटक जाए तो इसमें किसी का क्या दोष? आज लोग अपने बच्चों का नाम सद्दाम,ओसामा,बााबर या औरेंगज़ेब रखें तो यह उनके अपने अधिकार हैं और उनकी अपनी सोच। देश में हज़ारों उदाहरण ऐसे मिल सकते हैं कि उन्होंने अपने बच्चों के नाम तो देवी-देवताओं या महापुरुषों के नाम पर रखे परंतु बड़े होकर उन बच्चों ने ऐसे कुकर्म किए कि उनके नामों को बदनामी के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ। लिहाज़ा सैफ-करीना के बच्चे के नामकरण पर बवेला खड़ा करना भी पूरी तरह अनैतिक तथा दूसरे के निजी मामलों में दख़लअंदाज़ी के सिवा और कुछ नहीं।
लिहाज़ा हमारे समाज के तंग नज़र व संकुचित सोच रखने वाले लोगों को अपने सोच-विचार व नज़रों पर नियंत्रण रखना चाहिए। धर्म-जाति या लिंग भेद के आधार पर किसी वर्ग विशेष पर निरर्थक विषयों को लेकर आक्रमण कर देना हमारे देश के विकासशील समाज के लक्षण कतई नहीं हैं। इस प्रकार के विषय जब राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में प्रमुख स्थान बनाते हैं उस समय देश का बुद्धिजीवी वर्ग ऐसे विषयों को उछालने व हवा देने वाले समाज पर हंसता है तथा उनकी मंदबुद्धि पर अफ़सोस करता है। हमारे ताक-झांक करने में व्यस्त रहने वाले ऐसे समाज को चाहिए कि वह किसी दूसरे के घर-परिवार में वहां की पोशाक-खानपान व नामकरण जैसे विषयों में दखल अंदाज़ी करने या उसपर स्वयं फैसला सुनाने से बाज़ आए। बड़े आश्चर्य की बात है कि पिछले दिनों रियो में हुए ओलंपिक खेलों में जिस महिला समाज की लड़कियों ने भारत के लिए पदक जीतकर देश की नाक बचाई हो उसी महिला समाज पर हमारे देश का अंधबुद्धि समाज यह कहकर उंगली उठाए कि उसकी बाज़ू नंगी है या उसकी टांगें नज़र आ रही हैं?
ऐसा प्रतीत होता है कि आलोचना की आड़ में प्रसिद्धि कमाने की जुगत में लगे रहने वाले यह लोग भी मौका देखकर अपनी ज़हरीली आवाज़ बुलंद करते हैं। क्योंकि पीवी सिंधु,साक्षाी मलिक और दीपा करमारकर जैसी होनहार लड़कियां जब भारत के लिए पद जीतकर लाईं उस समय इन सभी खिलाडिय़ों की पोशाकें वही थीं जो उनके खेलों के लिए खेल नियम के अनुसार निर्धारित की गई थीं। परंतु चूंकि इनकी विजय का जश्र भारत में इतना ज़बरदस्त तरीके से मनाया जा रहा था कि पूरा देश इनके समर्थन में खड़ा था। उस समय नुक्ताचीनी करने वाले पुरुष प्रधान समाज के इन स्वयंभू ठकेदारों ने मौका व मसलेहत को भांपते हुए अपने मुंह नहीं खोले अन्यथा उस समय भी यह ज़हर उगल सकते थे। अत: इन स्वयंभू काजि़यों को शहर की चिंता में दुबले होने की ज़रूरत क़तई नहीं है।

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  1. Killing men and distributing women resulted in too many wives. Hijab was invented to stop rebel women. Still a few want a women to be put that way. It is unnecessary. Must not we change with time.

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