स्वामी लक्ष्मणानंद बलिदान दिवस : अविस्मर्णीय धर्म यौद्धा की गाथा

प्रवीण गुगनानी

आज स्वामी लक्ष्मणानंद जी का बलिदान दिवस है. स्वामी जी भारत में धर्मांतरण के विरुद्ध एक मशाल थे. भारत में कन्वर्जन ने हमारे प्रतिमान नष्ट किए, हमारी परंपराओं को बाधित किया, हमारे समाज की दशा-दिशा बदली और इसके कारण ही न जाने कितने हिंदुओं का नरसंहार हुआ और न जाने कितने महापुरुषों ने कन्वर्जन के विरोध में कार्य करते करते अपने प्राण बलिदान कर दिए. ऐसे ही स्वामी लक्ष्मणानंद जी के आज बलिदान दिवस के दिन उनकी नृशंस हत्याकांड की कटुक स्मृतियाँ ध्यान में आती है. “ट्रुथ बिहाइंड द मर्डर ऑफ स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती” नामक पुस्तक में उनकी हत्या की त्रासदी का उल्लेख है.

               स्वामीजी कन्वर्जन के विरोध में मुखर थे, इस कारण उन पर कई बार प्राणघातक हमले हुए. यद्दपि स्वामी जी इन जानलेवा हमलों से भयभीत नहीं हुए तथापि ध्यान देने योग्य बात यह है कि किस प्रकार मुट्ठी भर की जनसँख्या वाले ईसाई समुदाय के लोग उन पर आठ बार प्राणघातक वार करने का दुस्साहस करते रहे. भारतीय समाज के समाज के समक्ष आज भी यह यक्षप्रश्न है कि उस कालखंड में देश में अंततः ऐसा क्या चल रहा था कि ईसाई मिशनरियां इतनी निर्भीक और अपराधी चरित्र वाली हो गई थी. 1969 में भी रूपगांव चर्च  पादरी ने ईसाइयों के साथ उन पर हमला किया था. 2008 के जन्माष्टमी की रात्रि के समय हत्याकांड में ईसाई मिशनरियों द्वारा स्वामी जी के साथ भक्तिमयी माता, अमृतानंद बाबा, किशोर बाबा और पुरुबग्रंथी जी की भी हत्या करा दी गई थी. 84 वर्षीय इस संत से ईसाई मिशनरियां अत्यंत भयभीत रहती थी जिसके परिणाम स्वरुप उनकी हत्या कर दी गई. स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या के दिन उनके पास कोई सुरक्षा गार्ड नहीं था, क्या यह मात्र संयोग था या कोई षड्यंत्र? हत्या के समय केंद्र में सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली मनमोहन सरकार थी. इस सरकार की ओर से स्वामी जी की हत्या के सम्बन्ध में जो व्यक्तव्य जारी हुआ वह ईसाईयों के पक्ष में था. स्वामी लक्ष्मणानन्द के हत्यारों की गिरफ्तारी और उनके अवैध हथियारों की व्यवस्थित जांच नहीं हुई थी. इस हत्याकांड में एक ईसाई एनजीओ के संलिप्त होने की संभावना पता चली थी. तुर्रा यह रहा कि स्वामी जी की हत्या के बाद जो प्रतिक्रिया हुई उसके लिए इन ईसाई संस्थाओं, चर्चों और संदिग्धों को भी केंद्र सरकार की ओर से राहत राशि प्रदान की गई थी. उनके संघर्षशील स्वभाव का ही परिणाम था कि गोवर्धन पीठ के पूज्य शंकराचार्य जी ने उन्हें “विधर्मी कुचक्र विदारण महारथी” की उपाधि दी थी. वे जनजातीय समाज को निर्भय, शिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत बनाना चाहते थे. उन्होंने कृषि की नई तकनीको और तरीकों से जनजातीय समाज को परिचित कराया और कंधमाल के चकपाद में गुरुकुल पद्धति पर आधारित एक विद्यालय, महाविद्यालय और कन्याश्रम प्रारंभ किया. कटिंगिया ग्राम में में सब्जी सहकारी समिति का गठन भी कराया. उनके इन प्रयासों से जनजाति समाज शिक्षित और आर्थिक मोर्चे पर समृद्ध हुआ. जनजाति समाज के बीच उन्होंने अनवरत चार दशक तक काम किया.

           उड़ीसा के जनजातीय क्षेत्रों में भगवान की तरह पूजे जाने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद जी वेदांत दर्शन और संस्कृत व्याकरण के मूर्धन्य विद्वान थे, उन्हें "वेदांत केसरी" के नाम से जाना जाता था. उनके समाज जागरण के कार्यों ने कंधमाल क्षेत्र में हिंदू बंधुओं की जीवन शैली को बदल दिया था. स्वामी लक्ष्मणानंद जी के कार्यों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अत्यंत प्रभावित हुआ. संघ ने स्वामी जी की राष्ट्रीयता से ओत प्रोत मानसिकता को पहचानकर प्रारंभ से ही उनकी गतिविधियों को आदर सम्मान के साथ समर्थन देना प्रारंभ कर दिया था. उनके कंधमाल मे  जनजातीय क्षेत्र में सक्रिय होते से ही से ही आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक श्री रघुनाथ सेठी का संग साथ मिलने लगा था. संघ ने अपने स्वयंसेवकों के माध्यम से स्वामीजी की गतिविधियों व प्रकल्पों की बड़ी ही गंभीर और चैतन्य देख रेख व चिंता की. 

जनजातीय क्षेत्र में स्वामी जी ने शिक्षा के प्रति ऐसा आग्रह उत्पन्न किया कि वहां रात्रि विद्यालय प्रारंभ हुए फलस्वरूप कंधमाल में धर्मांतरण की गतिविधियाँ प्रभावित होने लगी. इस क्षेत्र में विदेशी धन से संचालित और कार्यरत मिशनरी संस्थाओं ने वनवासियों को बहला फुसलाकर धर्म परिवर्तन का जो जाल फैला रखा था, स्वामी जी के जन जागरण के कार्यक्रमों से वह जाल कटने लगा. उनके प्रयासों से ही उदयगिर और रायकिया के कृषक सेम फल्ली का गुणवत्तापूर्ण और बड़ी मात्रा का रिकार्ड उत्पादन करने में सक्षम हैं. कम ही लोगो को पता है कि संयुक्त वन प्रबंधन प्रणाली का पहलेपहल प्रयोग स्वामी जी ने 1970 में किया था. धर्म के माध्यम से वनों व् पर्यावरण की रक्षा हेतु उन्होंने अनेकों स्थानों पर वनवासी देव स्थान (धर्माणीपेनू) की और इन देवस्थानों को अपनी गतिविधियों का संपर्क केंद्र बनाया. वे अपने उद्बोधनों में वनवासियों के आसूं और रक्त गिरने को क्षेत्र के लिए अपशगुन बताते थे. वे प्रायः कहा करते थे कि जहां वनवासी का आंसू या खून गिरता है वह क्षेत्र समृद्ध नहीं होगा. उनके सभी कार्यों के केंद्र में गौरक्षा और कन्वर्जन के विरुद्ध जनजागरण आवश्यक रूप से रहता था.

                           ओडिशा के वन प्रधान जिले फूलबनी (कंधमाल) के ग्राम गुरजंग में 1924 में जन्मे स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती बाल्यकाल से ही समाज कार्य में लीन हो गए थे. स्वामी जी ने न केवल आध्यात्मिकता के महासागर में गहरे पैठ धर्म के मर्म को समझा अपितु साथ साथ वे एक दिन हिमालय की ओर प्रयाण भी कर गये. हिमालय में साधना के पश्चात जब स्वामी जी 1965 में लौटे तो गोरक्षा आंदोलन से जुड़ गए. हिमालय से लौटकर स्वामी जी ने वनग्राम  फुलबनी (कंधमाल) के चकपाद गांव को अपना केंद्र बनाया. वन्य क्षेत्रों में जनजातीय बंधुओं हेतु उन्होंने सेवाकार्य संचालित प्रारंभ कर दिए. उनके सेवा कार्यों की ख्याति कंधमाल के वनग्रामों से निकलकर भुवनेश्वर तक पहुंचने लगी. उनके सेवा प्रकल्पों ने ऐसे एतिहासिक सेवा कार्य किये कि स्वामी जी आमूलचूल कंधमाल के हो गए और कंधमाल का कण कण, जन जन स्वामी का हो गया. इसके बाद तो सेवा और जनजातीय क्षेत्रों में धर्म जागरण का उनका यज्ञ चार दशकों तक अनवरत चला. स्वयं के प्रति उपजी इस क्षेत्र वासियों की श्रद्दा और विश्वास के आधार पर उन्होंने उन्होंने उपेक्षित व जीर्ण शीर्ण बिरुपाक्ष्य, कुमारेश्वर और जोगेश्वर मंदिरों का जीर्णोद्धार कार्य भी किया. इन मंदिरों से न केवल समाज जागरण हुआ बल्कि इस समूचे क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों को एक बड़ी चुनौती भी मिली. आज बलिदान दिवस के दिन उन्हें अनंत प्रणाम. 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,270 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress