प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती मूर्तिपूजा का मौखिक खण्डन करते थे

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मनमोहन कुमार आर्य

स्वामी दयानन्द जी देश भर घूमकर वेदों का प्रचार करते थे। वेद प्रचार के अन्तर्गत वह ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का प्रचार करते हुए वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा का खण्डन भी करते थे। मूर्तिपूजा से जुड़ा हम उनका एक संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें उन्होंने बताया है कि उन्हें मूर्तिपूजा की प्रेरणा अपने गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से मिली थी। प्रकरण इस प्रकार है कि सन् 1879 में हरिद्वार में होने वाले कुम्भ के मेले पर एक दिन मूला मिस्त्री, सब ओवरसियर, नहर गंगा ने स्वामी जी से पूछा कि आपने मूर्तिपूजा के खण्डन की बात क्यों और कैसे उठाई?

स्वामी दयानन्द जी ने इसका उत्तर दिया कि मेरा प्रथम से ही यह विचार था कि मूर्तिपूजा केवल अविद्या अन्धकार से है। इसके अतिरिक्त मेरे गुरु परमहंस श्री स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी महाराज बैठे-बैठे मूर्तिपूजा का खण्डन किया करते थे क्योंकि वह आंखों से लाचार थे। वह कहते थे कि कोई हमारा शिष्य ऐसा भी हो जो इस अन्धकार को देश से हटा  दे। इसलिए मुझे इस देश पर दया आई और इसलिए मैंने यह बीड़ा उठाया है। यह बता दें कि यह घटना पं. लेखराम कृत ऋषि दयानन्द जी के जीवन चरित में दी गई है।

स्वामी जी के जीवन की एक और घटना प्रस्तुत कर रहे हैं। इसका शीर्षक है कि आततायी को दण्ड देना धर्म है। इसमें हिंसा नहीं होती। यह घटना नवम्बर, 1879 की दानापुर में बाबू अनन्तलाल जी से संबंधित है। जिन दिनों स्वामी दयानन्द जी दानापुर में थे तो एक दिन स्वर्गीय बाबू अनन्तलाल ने एक गुलाब का फूल तोड़ा। उसे देख कर स्वामी जी ने ललकार कर कहा कि भाई ! तूने यह बुरा काम किया। यह फूल यदि न तोड़ा जाता तो कितनी वायु को सुगन्धित करता?  तूने इसे तोड़कर इस के नियत कार्य (वायु शुद्धि वा वायु प्रदुषण से मुक्ति) से इसे रोका है। इस के पश्चात् जब स्वामी जी भीतर आकर बैठे तो स्वामी जी के हाथ में मक्खी उड़ाने का मोरछल था। उक्त बाबू जी ने कहा कि फूल के तोड़ने में तो आपने पाप बतलाया परन्तु क्या आप के हाथ के मोरछल से मक्खी को कष्ट नहीं होता? इस पर स्वामी जी ने कहा कि आततायी (विधमिर्यो व पाखण्डियों) के रोकने में तुम्हारे जैसे मनुष्यों ने बाधा डाली जिस से भारत का नाश हो गया। तुम जैसे निर्बल और साहसहीन लोगों से रणभूमि में क्या हो सकता है?

स्वामी जी ने फूल तोड़ने का जो उदाहरण दिया है उससे यह ध्वनित होता है कि वह फूल से होने वाली वायु शुद्धि का समर्थन कर रहे हैं और फूल तोड़ने से वायु प्रदुषण व उसमें वृद्धि होने के कारण उसका विरोध कर रहे हैं। वायु को शुद्ध रखने के लिए उन्होंने दैनिक अग्निहोत्र करने का प्राचीन विधान भी स्मरण कराया था व उसके समर्थन में अनेक प्रमाण दिये थे। यज्ञ करने से न केवल वायु व जल का प्रदुषण दूर होकर इनकी शुद्धि होती है अपितु ऐसा करके हम निरोग, स्वस्थ, बलवान व दीर्घजीवी भी होते हैं। साध्य व असाध्य रोग भी दैनिक अग्निहोत्र करने से ठीक होते हैं। निकटवर्ती सभी मनुष्यों व प्राणियों को भी लाभ होता है। आज दिल्ली व आस पास के राज्यों में प्रकृति की गहरी मार पड़ रही है। वायु, वायु के जलकण और प्रदुषित धुएं के कारण दिन में भी विजीबिलिटी नाम मात्र की है और लोगों को श्वांस लेने में कठिनाई हो रही है। कुछ लोगों की मौत होने की सम्भावना भी है। विजीबिलिटी कम होने से सड़क दुर्घटनायें हो रही है। कल दूरदर्शन चैनलों पर अनेक दुर्घटनाओं का सचित्र समाचार दिया गया। दिल्ली में स्कूल आदि बन्द करा दिये हैं। लोगों को हिदायत दी जा रही है कि वह बिना आवश्यक कार्य के बाहर न निकले। इस स्थिति को प्राकृतिक प्रकोप कह सकते हैं। यह आधुनिक विज्ञान के युग की एक हानिकारक देन से संबंधित समस्या है। वैदिक काल के साहित्य में ऐसी घटनाओं की चर्चा देखने, सुनने व पढ़ने को नहीं मिलती। इसका निदान यह है कि हम अपनी जीवन शैली सुधारे, फल न तोड़े, जंगलों की रक्षा करें, नदियों को स्वच्छ रखें और सभी गृहस्थी प्रतिदिन दैनिक अग्निहोत्र करें। यदि हम वेदों के अनुसार प्राकृतिक जीवन व्यतीत करेंगे तभी हम इस प्रकार की आधुनिक समस्याओं पर नियंत्रण पा सकेंगे। आज के वायु, जल व प्राकृतिक प्रदुषण आदि की इन समस्याओं का समाधान न वैज्ञानिकों के पास है और न ही बड़े बड़े बुद्धिजीवियों के पास ही। वेदों की प्रवृत्ति से ही इसका समाधान सम्भव है। ओ३म् शम्।

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