स्वराज्य निर्मात्री माता जीजाबाई


अध्याय 7 

” माता भवति निर्माता ” — यह वेद का संदेश है ।
मां और मातृभूमि को ,तभी पूजता भारत देश है ।। जहां सम्मान नारी का नहीं वहां व्याप्ते क्लेश हैं ।
मां विधाता का रूप जग में यह वेद का उपदेश है ।। “

मां के दिए हुए संस्कारों से बच्चों का नहीं अपितु राष्ट्रों का भी निर्माण होता है । किसी भी राष्ट्र की महानता के पीछे यह मान लेना चाहिए कि वहां की माताओं का विशेष योगदान है । ऐसे में शिवाजी भी इस बात के अपवाद नहीं हो सकते कि उनके निर्माण में उनकी माता का विशेष योगदान नहीं रहा हो । जब – जब शिवाजी की बात की जाती है तब – तब उनकी माता जीजाबाई प्रत्येक लेखक और पाठक के मन मस्तिष्क में स्वयं ही आकर विराजमान हो जाती हैं , छा जाती हैं। क्योंकि शिवाजी के व्यक्तित्व पर उनकी माता जीजाबाई का व्यापक प्रभाव पड़ा था । माता जीजाबाई की प्रेरणा ना होती तो शिवाजी शिवाजी ना होते। शिवाजी का नाम रखने में भी उस माता ने बहुत ही सूझबूझ का परिचय दिया था । जीजाबाई ने राजा शिव के विषय में यह भली प्रकार सुन रखा था कि वह लोक कल्याण में व्यस्त रहने वाली दिव्य शक्ति है , या एक ऐसे महान राजा इस धरती पर हुए हैं , जिन्होंने लोक कल्याण के महानतम कार्य किए । यही कारण रहा कि उन्होंने अपने सुपुत्र का नाम रखा — शिव अर्थात कल्याणकारी । माता जीजाबाई ने अपने पुत्र शिव को शिव के अनुरूप ही बनाने का संकल्प ले लिया था । अतः बालक शिव के मन मस्तिष्क में उन्होंने ऐसे संस्कार आरोपित करने आरंभ किए जिनसे वह बड़ा होकर लोक कल्याण के कार्यों में लगे और एक महान प्रतापी शिव जैसा शासक बने।
माता जीजाबाई ने अपने इस महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपने बच्चे शिव या शिवा को बचपन से ही ऐसे संस्कार देने आरंभ किए जिनसे वह बड़ा होकर एक महान साम्राज्य का निर्माता बने और लोगों के जीवन के कल्याण के लिए एक से बढ़ कर एक लोक कल्याणकारी नीतियों को लागू करें।
माता जीजाबाई अपने सुपुत्र शिव के मार्ग दर्शक बनकर एक मित्र की भांति उसकी उंगली पकड़कर चलने लगी । माता जीजाबाई बालक शिव की संरक्षक भी थी और मार्गदर्शक मित्र भी थी । माता की यह पवित्र और उत्कृष्ट भावना ही शिवाजी को उस दिशा की ओर लेकर चलने में समर्थ हुई जिस पर चलकर वह आगे इस देश के स्वाधीनता आंदोलन का एक महानतम नक्षत्र बना। माता जीजाबाई ने अपने जीवन में अनेकों विषम परिस्थितियों का सामना किया था । इतना ही नहीं वे उन सब विषम परिस्थितियों में से पूर्ण धैर्य और संयम के साथ निकलने में सफल भी हुई थी । फलस्वरुप उनका स्वयं का जीवन भी त्याग और तपस्या से भरा हुआ था । धैर्य और संयम की उनकी साधना ने जिस परिवेश में बालक शिव का लालन-पालन किया वह भी उस बच्चे के लिए बहुत ही अनुकूल सिद्ध हुआ । इससे बालक शिव को प्रेरणा मिली और वह तपस्या की भठ्ठी में तपते हुए सोने से कुंदन बनने लगा । इन्हीं परिस्थितियों में बालक शिव को समाज कल्याण के लिए कार्य करने की प्रेरणा मिली । उसे यह भी अनुभव हो गया कि विषमताएं जीवन का निर्माण करती हैं , जीवन को नष्ट नहीं करती , जबकि सामान्यतया साधारण लोग विषमताओं को जीवन के नष्ट करने का साधन समझ लेते हैं ।
माता जीजाबाई के समक्ष उस समय सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि उस समय की क्रूर और अत्याचारी मुगल सत्ता से देश को कैसे बचाया जाए ? वह चाहती थीं कि इस देश में स्वराज स्थापित हो और जो विदेशी लोग यहां पर सत्ताधीश होकर बैठे हैं उन्हें यहां से भगाया जाए । उनका उद्देश्य था कि लोक कल्याणकारी शासन की स्थापना की जाए । जिसमें किसी भी शासक को जनता पर क्रूरता या अत्याचार करने का अवसर ना मिले और लोगों के मौलिक अधिकारों का संरक्षक बनकर शासक शासन करने वाला हो । अपने इन्हीं भावों को उन्होंने बालक शिव के मन मस्तिष्क में उतारने का प्रयास किया , उसे समझाया और बताया कि शासक के भीतर कौन से गुण होने चाहिए ,और उसे किस प्रकार जनता के प्रति उत्तरदाई शासन की स्थापना करने के लिए संघर्ष करना चाहिए ? 
यदि जीजाबाई की प्रेरणा अपने बच्चे शिव के प्रति यह न होती कि उसे स्वराज्य की स्थापना करनी है तो भारतवर्ष में उस समय के पतनोन्मुख विजयनगर साम्राज्य के पश्चात हिंदू ध्वजा को संभालने वाला कोई शिवाजी उत्पन्न ना हुआ होता ,परंतु यह नियति की भी कितनी उत्तम व्यवस्था है कि जब कोई सूर्य ढल रहा होता है तो दूसरा सूर्य उदय करने का वह साधन अपने आप बना देती हैं ? माता जीजाबाई ने यही किया। विजयनगर साम्राज्य के पतन से पूर्व उन्होंने भारत को नया सूर्य दे दिया । इस प्रकार उनका बेटा शिवा शिव के साथ साथ सूर्य भी बन गया । जो तत्कालीन भारतीय राजनीतिक नक्षत्र पर बड़ी तेजी से उभर रहा था । जिसे देखकर विवेकशील लोगों को यह आभास हो गया था कि भारत का सूर्य डूब नहीं रहा है अपितु उदित हो रहा है । इस प्रकार माता जीजाबाई का भारत के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है । उन्होंने वह महान कार्य किया जिसे कोई देवी युग – युग में ही किया करती है।

बालकपन में हुआ विवाह

जीजाबाई का जन्म 12 जनवरी 1598 में बुलढाणा के जिले सिंदखेद के निकट ‘लखुजी जाधव’ की पुत्री के रूप में हुआ । उनकी मां का नाम महालसाबाई था ।वह बहुत कम अवस्था की थीं, जब उनका विवाह ‘शहाजी भोसले’ के साथ कर दिया गया । जिस समय जीजाबाई का शहाजी के साथ विवाह हुआ , उस समय वह आदिलशाही सुल्तान की सेना में सैन्य कमांडर हुआ करते थे । माता जीजाबाई को अपने पति का किसी मुस्लिम सुल्तान का सेवक होना अच्छा नहीं लगता था । वह स्वराज्यवादी विचारधारा की महान महिला थी । जो किसी को सलामी देने में विश्वास नहीं करती थी , अपितु एक ऐसे पति की पत्नी और ऐसे पुत्र की मां बनना चाहती थी जो स्वयं बड़े-बड़े राजाओं की सलामी लेने वाला हो। 
विवाह के उपरांत जीजाबाई आठ बच्चों की मां बनीं, जिनमें से 6 पुत्रियां और 2 पुत्र थे । उनमें से ही एक शिवाजी महाराज भी थे । जीजाबाई का अपने पति के साथ किन्हीं बातों को लेकर विवाद चल रहा था । फलस्वरूप शिवाजी के जन्म के उपरांत उनके पति शहाजी भोसले ने उन्हें त्याग दिया । पति के द्वारा उन्हें इस प्रकार त्यागा जाना बालक शिवाजी के निर्माण के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ । इससे वह अपने बच्चे शिवा के निर्माण करने पर केंद्रित हो गई और वह जिस स्वराज्यवादी चिंतनधारा को लेकर जन्मी थीं उसे अपने बच्चे के माध्यम से यथार्थ के धरातल पर उतारने के लिए प्रयत्नशील हो उठीं।
वास्तव में साहजी भोंसले ने एक दूसरी महिला से इस समय विवाह कर लिया था । जिसका नाम तुकाबाई था । शाहजी भोसले स्वाभाविक रूप से अपनी नई पत्नी के प्रति अधिक आकर्षित रहने लगे थे , और यह बात स्वराज्यवादी चिंतनधारा की जीजाबाई को अच्छी नहीं लगती थी। फलस्वरुप उन्होंने अपने पति से मोहभंग कर लिया और अपने पुत्र शिवाजी के निर्माण में जुट गए । उन्होंने इस समय को इस प्रकार व्यतीत करने का प्रयास किया कि बच्चे शिव को भविष्य का महान शासक बनाने के लिए तैयार किया जाए । यद्यपि बालक शिवा बचपन से ही अपने पिता के वात्सल्य से वंचित रहने के कारण उसके प्रेम के लिए तरसता रहा परंतु इस सब के उपरांत भी माता जीजाबाई ने उसे अपने पिता के प्रति विद्रोही बनाने के लिए कभी नहीं सोचा , ना ही अपने बच्चे को ऐसी शिक्षा दी । यही कारण रहा कि अत्यंत विषम परिस्थितियों में रहने के उपरांत भी शिवाजी अपने पिता के प्रति विद्रोही नहीं हुए अपितु उसके प्रति सेवाभावी और संस्कारशील बने रहे । अतः यह कहा जा सकता है कि पिता से मतभेद होने के उपरांत भी उनके प्रति श्रद्धाभाव रखने वाला शिवा केवल इसीलिए बना रहा कि उसके पीछे माता जीजाबाई की प्रेरणा थी।

एक सुयोग्या प्रशासिका भी थीं माता जीजाबाई

माता जीजाबाई स्वयं में भी एक सुयोग्या प्रशासिका भी थीं । उनका यह गुण अपने सुपुत्र शिवाजी में ज्यों का त्यों आया । उनको शासन चलाने और युद्ध लड़ने का भी अनुभव था । अतः शौर्य और साहस उनके भीतर भरा हुआ था । वह विषम से विषम परिस्थिति में निर्णय लेना जानती थीं । शत्रु को कैसे परास्त किया जा सकता है , इस प्रकार की कूटनीति में भी वह निपुण थीं । यही कारण था कि वह अपने बच्चे शिवा को बचपन से ही ऐसी शौर्यपूर्ण कथाओं और कहानियों को सुनाया करती थीं जिससे उसके भीतर पौरुष और साहस का विकास हो । वह उसे भविष्य का राजा बनाना चाहती थी और राजा भी कोई साधारण राजा नहीं , अपितु एक शौर्यसंपन्न महान प्रतापी शासक के रूप में उसे देखना चाहती थीं । 
समर्थ गुरु रामदास के माध्यम से बालक शिवा के मन मस्तिष्क में माता जीजाबाई ने ऐसे संस्कार भरने का काम किया था जो उसे साहसिक निर्णय लेने और राजकीय कार्यों में पूर्ण संयम और धैर्य बरतने के लिए भविष्य में काम आएं। समर्थ गुरु रामदास ने भी अपनी ओर से ऐसी सभी शिक्षाएं बालक शिवाजी को देने का प्रयास किया जिनसे एक महान राष्ट्र का निर्माण करने में शिवाजी को भविष्य में सफलता मिली। माता जीजाबाई और समर्थ गुरु रामदास की महान प्रेरणा का ही यह परिणाम था कि बहुत छोटी अवस्था में ही बालक शिवाजी ने मुगलों जैसी महान सत्ता से टक्कर लेने का निर्णय ले लिया था । एक ऐसा बालक जिसके पास अभी कहने के लिए कुछ भी नहीं था , यदि वह मुगलों जैसी सत्ता से टक्कर लेने का निर्णय लेता है तो यह निश्चय ही बहुत ही बड़ा साहसिक निर्णय था। जिसकी उस समय संपूर्ण भारतवर्ष में धूम मच गई थी और संपूर्ण भारतवासियों का ध्यान इस ओर चला गया था कि कोई बालक महाराष्ट्र की भूमि पर ऐसा जन्म ले चुका है जो मुगल सत्ता से टकराव लेने का साहस रखता है।

इस प्रकार समझाया शिवाजी को

यदि माँ शेरनी होती है तो बेटा का शेर हो जाना स्वभाविक है , और जीजाबाई स्वयं शेरनी हीं थी । यही कारण था कि वह साहसिक और असंभव कार्यों को करने की प्रेरणा शिवाजी को बचपन से देती आ रही थीं। एक दिन अचानक ही उन्होंने शिवाजी को बुलाया और कहा कि बेटे शिवा ! तुम्हें सिंहगढ़ के ऊपर फहराते हुए विदेशी झंडे को किसी भी तरह से उतार फेंकना होगा । मैं नहीं चाहती कि इस सिंहगढ़ के किले पर विदेशी झंडा तेरे होते हुए फहराता रहे ? मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि यह विदेशी झंडा इस किले से उतरना चाहिए और अपना केसरिया यहां पर लहरना चाहिए । इस प्रकार माता ने आज अपने दूध की परीक्षा लेने का निर्णय ले लिया था । आज वह इस बात पर उतर आई थी कि बेटे शिवा या तो मुझे आज मेरे दूध का ऋण चुकता कर दे या फिर मुझे यह बता दे कि तू मेरे कहे अनुसार वह कार्य नहीं कर सकता जिसे मैं तुझसे कराना चाहती हूं ? 
इस पर शिवाजी ने उनको टोकते हुए कहा, मां ! इस कार्य के लिए भी आपको थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी । समय आने पर आपके कहे अनुसार यह असंभव सा दिखने वाला कार्य भी किया जाएगा , परंतु अभी हमारे साधन इतने सीमित है कि तुरंत यह कार्य नहीं हो सकता । मुगलों की सेना बड़ी विशाल है । दूसरे , हम अभी सुदृढ़ स्थिति में नहीं हैं । ऐसे में उन पर विजय पाना कठिन होगा । इस समय इन पर विजय पाना अत्यंत कठिन कार्य है ।
माता जीजाबाई को अपने सुपुत्र शिवाजी से ऐसे प्रति उत्तर की अपेक्षा नहीं थी वह चाहती थी कि मैं जो कुछ बोलूं मेरा बेटा तुरंत उस कार्य को करे । वह उसके पौरुष और शौर्य की परीक्षा लेना चाहती थीं और यह देखना चाहती थीं कि वह सिंहगढ़ के किले को लाने में अभी तक समर्थ भी हुआ है या नहीं ? क्योंकि वह यह भी जानती थीं कि यदि उसे वहां भेजा जाएगा तो वह स्वयं भी उसके इस महान कार्य में अपनी ओर से सहयोग और मार्गदर्शन देंगी।
अपने सुपुत्र के ऐसे वचनों को सुनकर कहा जाता है कि माता जीजाबाई स्वयं आक्रोशित हो गयीं और उन्होंने आवेश में आकर अपने सुपुत्र को कह दिया कि अच्छा रहेगा कि तुम अब घर में रहो । अब मैं स्वयं ही सिंहगढ़ के किले को विजय करने के लिए प्रस्थान करूंगी। मैं नहीं चाहती कि इस किले पर विदेशी झंडा लहराता रहे और इससे मेरा कलेजा जलता रहे । अतः मैं स्वयं इस झंडे को उतारने का संकल्प लेती हूँ।

वास्तविक घटना कुछ इस प्रकार थी

अन्यत्र इस घटना को कुछ अलग ढंग से प्रस्तुत किया गया है । हम भी उसी से सहमत हैं । शिवाजी को एक बार संधि में 23 किले मुगलों को देने पड़े थे। इनमें से कोंडाणा सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण किला था। कहा जाता है कि एक बार माता जीजाबाई ने शिवाजी को कहा कि प्रातः काल सूर्य भगवान को अर्घ्य देते समय कोंडाणा आंखों में बहुत चुभता है । शिवाजी ने सिर झुका कर कहा मां मैं आपकी इच्छा को समझ गया। शीघ्र ही आपका उद्देश्य पूर्ण हो जाएगा । कोंडाणा को जीतना उस समय बहुत आसान नहीं था। पर शिवाजी के शब्दकोश में असंभव शब्द नहीं था। उनके पास एक से एक साहसी योद्धाओं की भरमार थी। वह इस बारे में सोच रहे थे कि उनके योद्धाओं के सिरमौर तानाजी मालुसरे दरबार में आए । शिवाजी ने देखते ही कहा — तानाजी ! आज सुबह ही मैं आपको स्मरण कर रहा था । माता जी की इच्छा कोंडाणा को फिर से अपने अधीन करने की है । तानाजी ने कहा — जो आज्ञा और यह कहकर सिर झुका कर बैठ गए। यद्यपि तानाजी उस समय अपने सुपुत्र रायबा के विवाह का निमंत्रण महाराज को देने के लिए आए थे और उन्होंने मन में कहा — पहले कोंडाणा विजय ,उसके पश्चात बेटे का विवाह । पहले देश फिर घर । योजना बनाने में जुट गए । 
4 फरवरी 1670 की रात्रि उसके लिए निश्चित की गई। मुगलों की ओर से राजपूत सैनिकों के साथ नियुक्त तानाजी ने अपने भाई सूर्या जी और 500 वीर सैनिकों को साथ लिया । दुर्ग के मुख्य द्वार पर कड़ा पहरा रहता था । पीछे बहुत घना जंगल और ऊंची पहाड़ी थी। पहाड़ी से गिरने का अर्थ था निश्चित मृत्यु । 
इस ओर सुरक्षा बहुत कम रहती थी । तानाजी ने इसी मार्ग से किले पर विजय प्राप्त करना उचित समझा । वे रात में सैनिकों के साथ पहाड़ी के नीचे पहुंच गए । उन्होंने यशवंत नामक गोह को ऊपर फेंका। उसकी सहायता से कुछ सैनिक दुर्ग पर चढ़ गए। उन्होंने अपनी कमर में बंधी रस्सी नीचे लटका दी। इस प्रकार 300 सैनिक किले पर चढ़ गए । शेष 200 ने मुख्य द्वार को घेर लिया । 
ऊपर पहुंचते ही असावधान अवस्था में खड़े सैनिकों को यमलोक पहुंचा दिया गया । इस पर शोर मच गया। उदयभानु और उसके साथी भी तलवार लेकर आ गए। इसी बीच सूर्या जी ने मुख्य द्वार को अंदर से खोल दिया। इससे सैनिक अंदर आ गए और पूरी भयंकरता से युद्ध होने लगा । यद्यपि तानाजी लड़ते-लड़ते बहुत घायल हो गए थे और उनकी इच्छा मुगलों के चाकर उदयभानु को अपने हाथों से दंड देने की थी । जैसे ही वह दिखाई दिया तानाजी उस पर टूट पड़े । दोनों में भयानक संग्राम होने लगा । उदयभानु भी कम वीर नहीं था । उसकी तलवार के वार से तानाजी की ढाल कट गई । इस पर तानाजी हाथ पर कपड़ा लपेटकर लड़ने लगे । तानाजी वीर गति को प्राप्त हुए । यह देख मामा शेलार ने अपनी तलवार के वार से उदयभानु को यमलोक पहुंचा दिया।
तानाजी और उदयभानु दोनों एक साथ धरती माता की गोद में सो गए । उधर शिवाजी को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने भरे गले से कहा — ” गढ़ तो आया पर मेरा सिंह चला गया । ” तब से इसके किले का नाम सिंहगढ़ हो गया । इसके द्वार पर ताना जी की भव्य मूर्ति तथा समाधि निजी कार्य से देश कार्य को अधिक महत्व देने वाले वीर की सदा याद दिलाती है। “
यदि इस घटना में शिवाजी को माता जीजाबाई की इस प्रकार प्रेरणा नहीं मिलती तो कोंडाणा का किला शिवाजी जीवन में पुनः प्राप्त नहीं कर सकते थे । क्योंकि अब उन्होंने इस किले की ओर सोचना ही बंद कर दिया था । परंतु मां की प्रेरणा ने शिवाजी को इस किले को फिर से प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध कर दिया। बस , यही वह घटना है जिससे शिवाजी स्वराज्य की स्थापना करने में सफल हुए । इस प्रकार माता जीजाबाई स्वराज की संस्थापिका माता थी । यदि उनकी प्रेरणा न होती तो भारत में उस समय स्वराज्य के लिए शिवाजी के नेतृत्व में इतना महान आंदोलन कदापि न चला होता।
ऋग्वेद ( 8/ 92 /32 ) में शत्रुओं को दबाने की प्रार्थना की गई है। वेद का ऋषि काम , क्रोध आदि को आत्मिक शत्रु मानता है , जो सदा आत्मा को पतित करने में लगे रहते हैं । समाज की यदि बात की जाए जो जो समाज श्रंखला को तोड़ने वाले हैं और समाज की व्यवस्था को अकारण ही विकृत करने में लगे रहते हैं , उसको अव्यवस्थित बनाने की योजनाओं में संलिप्त पाए जाते हैं , ऐसे लोग समाज के शत्रु होते हैं । जबकि लुटेरे ,साहसी ,लालची राजा जो किसी पर – राष्ट्र को दबाना और हथियाना चाहते हैं , वह राष्ट्र के शत्रु होते हैं। 
वेद के इस चिंतन से हमारे महापुरुषों ने समय-समय पर प्रेरणा ली और उन्होंने लुटेरे ,साहसी ,लालची विदेशी राजाओं को अपनी मातृभूमि से खदेड़ने का हर काल में प्रयास किया । वैदिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हमारी रगों में युगों पहले से ही रचा बसा पड़ा है। जिससे हम प्रेरणा लेते हैं और अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए विदेशी शक्तियों को यहां से भगाने का भागीरथ उद्यम करते हैं । वेद में अन्यत्र भी ऐसी अनेकों प्रार्थनाएं हैं । जहां पर दुष्ट , अत्याचारी और क्रूर शासकों के या शत्रुओं के विरुद्ध हमें संघर्ष की प्रेरणा दी गई है । ऋग्वेद ( 1 /8 /4 ) में कहा गया है की — हे इंद्र ! हम शस्त्र विद्या कुशल सुरों को साथ मिलाकर तेरे सहयोग से फसादियों को मसल् डालें । स्पष्ट है कि जो हमारी सामाजिक प्रगति और विकास में और राष्ट्र की उन्नति में बाधा डालते हैं , उन लोगों को हम किसी भी स्थिति – उपस्थिति में सहन ना कर सकें। ऋग्वेद ( 6 / 8 / 6 ) में भी ऐसी ही प्रार्थना करते हुए वेद का ऋषि कहता है कि — हे अग्ने ! तेरी कृपा से हम सैकड़ों हजारों शक्ति वाले आक्रमणकारी शत्रु को जीत सकें। यहां भी स्पष्ट है कि जो हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को और संप्रभुता को चुनौती देते हुए हम पर आक्रमण करता है , या हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को किसी भी प्रकार से प्रतिबंधित करने का प्रयास करता है , उसको हम मिटा डालें , समाप्त कर डालें।
ऋग्वेद में ही ( 1 / 102 / 4 ) में कहा गया है कि तेरे सहयोग से हम शत्रुओं को जीतें। इसी प्रकार ऋग्वेद ( 7 / 1 / 13 ) में कहा गया है कि तुझ से युक्त होकर हम फसादियों को दबा सकें । कुल मिलाकर वेद किसी भी प्रकार से शत्रुओं को सहन करने की सीखा हमें नहीं देता । वह हमें ऐसे प्रत्येक शत्रु से लड़ने व भिड़ने की प्रेरणा देता है जो हमारे राष्ट्रवासियों को किसी भी प्रकार से उत्पीड़ित करता है , या उन पर किसी भी प्रकार के अत्याचार करता है ।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विषय में यह सर्वमान्य सत्य है कि यह हमारे हर श्वास में वास करता है और राष्ट्रीय एकता और अखंडता के विषय में जो आप सोच रहे होते हैं , निश्चित रूप से उसे मैं भी सोचता हूं और जिसे मैं सोचता हूं उसे तीसरा ,चौथा ,पांचवा हर व्यक्ति सोचता है । जो लोग इसी अंतश्चेतना के सूत्र में बंधे होते हैं , वही राष्ट्रीय एकता व अखंडता के लिए कार्य करते हैं । 
माता जीजाबाई पर यदि इस आदर्श को लागू करके देखें तो वह जीवन भर इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए समर्पित होकर कार्य करती हैं । उनके शब्द दूसरे हो सकते हैं , पर उनके भाव और भावना तो वही रहे जो वेद के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मूल चिंतन से उदभूत होते हैं। इसलिए वैदिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति समर्पित माता जीजाबाई अपने सुपुत्र शिवा से कहती हैं कि शिवा ! यह जो कोंडाणा का किला मुझे दिखाई देता है ना , इस फहराता विदेशी झंडा मेरी आंखों में चुभता है । बात स्पष्ट है कि माता जीजाबाई अपनी संस्कृति पर हुए विदेशी हमला के प्रति चिंतित हैं , और वह एक झंडा उतारने की बात नहीं कह रही हैं बल्कि वह एक विचार और विचारधारा को इस पवित्र भारत भूमि से बाहर कर देने की बात कह रही हैं । ” मैं चाहती हूं कि वह विचार और विचारधारा जो मेरी वैदिक संस्कृति को पतित कर रही है या वैदिक संस्कृति में आस्था और विश्वास रखने वाले लोगों को कष्ट पहुंचा रही है , वह मिटनी चाहिए । यही भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है , यही स्वराज्य की आराधना है , और इसी के लिए यदि माता जीजाबाई अपने सुपुत्र शिवा को प्रेरित कर रही है तो समझ लेना चाहिए कि वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुजारिन होकर स्वराज की आराधना कर रही हैं।

माता पिता के आचार विचार का बालक पर अवश्य प्रभाव पड़ता है । उनके दिए संस्कार जीवनभर काम आते हैं । इन दोनों में से भी माता का प्रभाव बहुत ही अधिक होता है । माता चाहे तो बालक को शूरवीर , धीर , गंभीर, धर्मात्मा ,महात्मा ,विद्वान , पंडित ज्ञानी ध्यानी बना दे और वह चाहे तो उसे कायर ,भीरु , विक्षिप्त, चंचल ,पापात्मा , दुरात्मा , और लंपट बना दे। बालक जब अपने जीवन के प्रभात में आंखें खोलता है तो पता चलता है कि वह मां की गोद में हैं । उसी में उसका जीवनप्रभात बीतता है , गुजरता है । माता की एक – एक इंगित ,चेष्टा , भाषण, गमन ,आसन सभी उस बालक के लिए अनुकरणीय होते हैं । इस प्रकार माता के दिए संस्कार बालक के बालमन पर गहराई से अंकित होते चले जाते हैं । उसी के अनुसार वह अपने जीवन का निर्माण करता है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में माता को निर्माता कहा गया है। स्वामी वेदानंद तीर्थ इस विषय पर और प्रकाश डालते हुए ‘ स्वाध्याय संदोह ‘ में लिखते हैं कि माता का उत्तरदायित्व बहुत है । माताएं संतान संबंधी अपने उत्तरदायित्व को समझ जाएं तो संसार का संकट दूर हो जाए । माताएं छुद्र कौटुंबिक वा दैशिक दुर्भावना से ऊपर उठकर समस्त संसार को अपना घर समझकर विशाल मानव समाज की कमनीय कल्याण कामना से प्रेरित होकर अपना विचार , आचार तथा उच्चार ऐसा बनाएं की बालकों के हृदय में ‘वसुधैव कुटुंबकम ‘ की भावना उत्पन्न हुए बिना न रहे । तब अवश्यमेव संसार से अशांति का निर्वासन होकर शांति का साम्राज्य स्थापित होगा ।
कहने का अभिप्राय है कि यदि मां बच्चे को बचपन में ही यह बता रही है कि मुझे तुझसे एक नई साम्राज्य की नींव रखवानी है , तो बच्चा बड़ा होकर एक नये साम्राज्य की नींव रखेगा , और यदि वह उसे अपने ही पिता के विरुद्ध भड़का रही है तो वह बने हुए साम्राज्य को नष्ट भ्रष्ट कर डालेगा । हमारे वैदिक साहित्य में पुरुष और परम पुरुष का वर्णन है। पुरुष का अभिप्राय व्यापक से होता है , जो व्यापक हो जाए , दूर-दूर तक जिसके यश की सुगंधी फैल जाए , – वह पुरूष होता है। महापुरुष वह है जिसका यशोगान सर्वत्र होने लगे। ऐसी उच्चावस्था उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है , जिसकी मां बचपन से ही उसे महान कार्य करने के लिए प्रेरित करती हो । शिवाजी के विषय में कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन्होंने अपने जीवन में जिस हिंदू साम्राज्य की स्थापना की , उसके पीछे उनकी माता जीजाबाई का हाथ था । उनकी प्रेरणा से शिवाजी यदि किसी महान लक्ष्य के प्रति समर्पित ना होते तो वह कार्य नहीं कर पाते जो उन्होंने कर दिखाया था ,और आज उनका नाम भी इतिहास में महापुरुषों के रूप में स्थापित ना होता । माता जीजाबाई ने उन्हें स्वराज की प्रार्थना करनी सिखाईं तो शिवाजी ने बड़े होकर स्वराज के लिए न केवल संघर्ष किया , अपितु उसे स्थापित भी करके दिखाया। अतः माता जीजाबाई का भारतीय इतिहास में विशेष स्थान है। 

केसरिया क्रांति की जननी

भारत के स्वाधीनता आंदोलन के इस महापुरुष शिवाजी की माता जीजाबाई ने ही शिवाजी के भीतर हिंदुत्व के भाव भरे थे । यह ऐसे ही नहीं था कि शिवाजी की ध्वजा का रंग केसरिया था । केसरिया के प्रति समर्पित होना निश्चय ही माता के उच्च विचारों और हिंदू राज्य स्थापित करने के उनके संकल्प की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है । केसरिया ध्वजा को फहराकर यदि विशाल साम्राज्य स्थापित करने में शिवाजी सफल हुए तो उस केसरिया क्रांति की जननी वास्तव में माता जीजाबाई ही थी थीं । माता जी के अतिरिक्त कोणदेव ने भी शिवाजी को हिंदू राष्ट्र के प्रति समर्पित होकर हिंदू साम्राज्य स्थापित करने की प्रेरणा दी थी , परंतु हमारा मानना है कि दादा कोणदेव से शिवाजी को मिलाने में भी माता जीजाबाई का ही विशेष योगदान रहा था । अतः इसका श्रेय भी अंततः माता जीजाबाई को ही जाता है।

प्रेरक प्रसंग

एक बार शिवा जी को उनके पिता शाह जी बीजापुर दरबार में ले जाना चाहते थे । उनकी इच्छा थी कि उनका पुत्र बीजापुर दरबार का सेवक बने । उस समय शिवाजी की अवस्था मात्र 8 वर्ष की थी । उनके पिता उन्हें दरबार दिखाने के लिए ले गए । पिता की इच्छा रही होगी कि शिवा दरबार की ऐश्वर्यपूर्ण परिवेश को देख कर प्रभावित हो जाएगा । उन्हें क्या पता था कि बालक शिवा पर अपनी माता जीजाबाई के विचारों का इतना गहरा प्रभाव पड़ चुका है कि अब उसके बालमन पर संसार का कोई रंग चढ़ ही नहीं सकता ? बालक पर माता जीजाबाई द्वारा बचपन से रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों की सुनाई गई वीर गाथाओं का बड़ा गहरा प्रभाव था । इसलिए वह बीजापुर दरबार के ऐश्वर्य से तनिक भी प्रभावित नहीं हो सका । 
नवाब के सामने पहुंचकर पिता ने नवाब का झुककर अभिवादन किया और शिवा को कहा – बेटा ! बादशाह को सलाम करो । 
बालक ने पिता की ओर देखा और तुरंत बोला — ” बादशाह मेरे राजा नहीं है । ” मै इनके सामने सर नहीं झुका सकता । ” 
दरबार में सनसनी फैल गई,। नवाब बालक की ओर घूर कर देखने लगा , परंतु बालक ने फिर भी सर नहीं झुकाया । शाहजी ने नवाब से प्रार्थना की कि शहंशाह ! क्षमा करें । यह अभी नादान है , और वे बालक को लेकर घर आ गए । 
घर आने पर शाहजी ने शिवा को डांटा , तो शिवा ने उत्तर दिया कि — ” मेरा मस्तक तुलजा भवानी और आप को छोड़ कर किसी के सामने नहीं झुक सकता । “
दूसरी घटना उस समय की है जब शिवाजी 12 वर्ष के थे । तब एक दिन वे बीजापुर के मुख्य मार्ग पर घूम रहे थे । उन्होंने देखा कि एक कसाई एक गाय को रस्सी से बांध ले जा रहा है।गाय आगे नहीं जाना चाहती थी । वह डकराती हुई इधर – उधर कातर नेत्रों से देख रही थी । कसाई उसे डंडे से निरंतर पीटता जा रहा था । उस कसाई के सामने किसी व्यक्ति में इतना साहस नहीं था कि कोई उस गाय की रक्षा कर सके । तभी लोगों ने देखा कि बालक शिवा ने उसकी तलवार निकाली और गाय की रस्सी काट दी । गाय रस्सी कटते ही भाग गई । इस पर उस कसाई ने बालक शिवाजी पर हमला कर दिया। 
बच्चे पर क्रोधित होते हुए उस कसाई ने विद्युत की गति समान वेग से अपनी तलवार उसके सीने में उतारने का प्रयास किया , परंतु वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका। शिवा ने भी संभावित हमले को भापकर अपनी रक्षा की ।
तीसरा प्रसंग है कि शिवाजी महाराज की सेना ने युद्ध में एक किला जीता । किलेदार युद्ध में मारा गया । किलेदार की पुत्री बहुत ही सुंदर थी । मराठा सूबेदार ने उसे गिरफ्तार कर लिया और उसकी सुंदरता पर मुग्ध होकर उसे शिवाजी महाराज के सामने प्रस्तुत करने का विचार किया । सूबेदार का विचार था कि शिवाजी महाराज इस उपहार के बदले उसे बहुत भारी पुरस्कार देंगे। वह उसे यथाशीघ्र शिवाजी महाराज के पास ले गया । शिवाजी महाराज ने जब उस युवती को देखा तो उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि यदि आपकी भांति हमारी माता भी सुंदर होती तो मैं भी सुंदर होता। इसके पश्चात शिवाजी ने अपने सेनापति को डांटते हुए कहा कि इस पुत्री को ससम्मान यथाशीघ्र उसके घर छोड़ आईए । उन्होंने अपने सेनापतियों को स्पष्ट निर्देश दिए कि युद्ध में किसी भी महिला का अपमान न होने पाए । उसके साथ मां और बहन की भांति व्यवहार करना चाहिए। वीर शिवाजी जितने वीर थे , उतना ही उनका चरित्र भी महान था । उन्होंने जीवन पर्यंत अपनी मां के द्वारा दी गई शिक्षाओं का पालन किया । 

अन्य संतानों को भी दिया पूरा प्यार

हर मां की भक्ति माता जीजाबाई न केवल अपने पुत्र शिवा से अत्यधिक स्नेह और ममता रखती थी , अपितु वह अपनी अन्य संतानों को भी बराबर का प्यार देती थीं। यह अलग बात है कि स्वराज्य की स्थापना के लिए वह केवल शिवा को ही तैयार कर रही थीं। क्योंकि ऐसी प्रतिभा वे केवल शिवा में ही देखती थीं। उनके दूसरे पुत्र और शिवाजी के भाई का नाम संभाजी महाराज था । यद्यपि संभाजी महाराज अपनी माता के पास कम ही रहे परंतु इसके उपरांत भी माता जीजाबाई अपने पुत्र संभाजी महाराज को नित्य ही स्मरण करती थीं। जब कर्नाटक में संभाजी अफजल खान के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए तो उनकी मृत्यु के समाचार ने माता जीजाबाई के हृदय को विदीर्ण कर दिया था । वह इस घटना से बहुत दुखी हुई थीं। क्योंकि इससे पहले उनके पतिदेव भी स्वर्ग सिधार गए थे। इन दोनों घटनाओं ने इस शेरनी को बहुत अधिक कष्ट पहुंचाया और वह दुखी रहने लगी।
कहते हैं कि इन घटनाओं ने जीजाबाई को भीतर से हिला कर रख दिया था । कुछ लोगों की मान्यता यह भी है कि इन घटनाओं के पश्चात वह सती होकर अपने जीवन का अंत कर लेना चाहती थीं । किंतु इस समय शिवाजी ने अपनी माता का उत्साहवर्धन किया और उन्हें ऐसा कोई भी कदम ने उठाने के लिए मना लिया।   माता जीजाबाई को यद्यपि शिवाजी ने सती न होने देने की बात पर सहमत कर लिया था , परंतु इसके उपरांत भी उनके चित्त से पुत्र संभाजी और अपने पतिदेव शाहजी भोंसले की स्मृतियां हटने का नाम नहीं ले रही थीं । वह एकाकी होती चली जा रही थीं । फलस्वरूप जब शिवाजी महाराज ने 6 जून 1674 को स्वयं का राज्याभिषेक कराया तो उसके सही 12 दिन पश्चात माता जीजाबाई 18 जून 1674 को इस असार – संसार को छोड़कर चली गई । यद्यपि उनके जाने से पहले उनका वह सपना साकार रूप ले चुका था जो उन्होंने इस देश में स्वराज्य की स्थापना कराने के संबंध में संजोया था। वह स्वराज निर्मात्री थीं , इसी के लिए वह संघर्षरत रहीं और जब स्वराज्य की स्थापना हो गई तो फिर समझो यह कहते हुए संसार से प्रस्थान कर गयीं कि अब मेरा यहां रहना उचित नहीं है ,अब किसी दूसरे ‘स्वराज्य ‘ ( मोक्ष ) के बारे में चिंतन करना अपेक्षित है ।
मराठा साम्राज्य को साम्राज्य कहना हमारी दृष्टि में उचित नहीं है। वास्तव में वह हिंदू स्वराज्य था । जिसके लिए माता जीजाबाई का योगदान अविस्मरणीय है। इस हिंदू स्वराज्य की परिकल्पना को लेकर माता जीजाबाई ने जो संघर्ष किया उससे संपूर्ण भारत भूमि पर 2800000 वर्ग किलोमीटर का विशाल स्वराज्य खड़ा करने में हमें सफलता मिली और यही स्वराज्य हमारे वास्तविक स्वराज्य का आधार बना जो 1947 में स्वाधीनता के रूप में साकार हुआ।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

1 COMMENT

  1. “फलस्वरूप शिवाजी के जन्म के उपरांत उनके पति शहाजी भोसले ने उन्हें त्याग दिया” This is not true . Shahaji given 12 Mawal prant to rule as Subhedar . Jijamata and Shiwaji left many times to meet Shahaji at Beglure .

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