राजनीति

अवसरवादी राजनीति का नतीजा है भाजपा पर सांप्रदायिकता का ठप्पा

राजनाथ सिंह `सूर्य’

जनसंघ या भारतीय जनता पार्टी के साथ ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि उसके सहयोगी दल ही उस पर तोहमत लगाकर पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रहे हों। जनसंघ की स्थापना के समय से ही उसे सांप्रदायिक संगठन के खिताब से नवाजा जाता रहा है। यह काम सिर्फ उन्हीं लोगों ने नहीं किया जो विभाजन के लिए जिम्मेदार मुस्लिम लीग के प्रति अनुकूलता रखते रहे हैं, या फिर जातीयता को उभारकर राजनीतिक सफलता पाप्त करते रहे हैं बल्कि उन लोगों ने भी किया है जो समानता के सिद्धांत में आस्था रखने का दावा करते रहे हैं। ऐसा क्यों किया गया या किया जा रहा है? कांग्रेस ने भयदोहर की राजनीति चलाई।

मुसलमानों में यह भय बैठाया कि यदि जनसंघ सफल हो गया ते या तो मुसलमानों को द्वितीय दर्जे का नागरिक बना दिया जाएगा या उनको देश से बाहर कर दिया जायेगा। विभाजन के समय दंगाइयों से पंजाब में हिंदुओं को बचाने, पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से आने वाले विस्थापितों के लिए सहायता शिविर स्थापित करने के कारण लोभी मानसिकता के लोगों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पति स्वाभाविक रूप से भय का माहौल था। 15 अगस्त, 1947 के बाद अब तक हुए किसी भी दंगे में संघ के स्वयंसेवकों को दोषी न पाये जाने पर भी उन पर आरोप लगाना आम बात हो गयी थी। महात्मा गांधी की वाल्मीकि कालोनी में जो दंडधारी संघ स्वयं सेवक उनकी रक्षा करते रहे उस संग”न पर गांधी की हत्या के बाद पतिबंध लगा दिया गया।

यद्यपि उसके किसी एक भी स्वयंसेवक पर मुकदमा नहीं चला। कई स्वयंसेवकों की हत्या हुई, कार्यालय जलाए गए लेकिन सरसंघ चालक गुरूजी के एक वाक्य कि यदि जीभ दांत तले आ जाती है तो कोई दांत नहीं तोड़ देता स्वयं को संयमित करने के लिए र्प्याप्त साबित हुआ। चाहे कश्मीर पर कबाइलियों के रूप में पाकिस्तानी सेना का हमला हो या विपदाग्रस्त लोगों की सहायता संघ के स्वयंसेवक संबसे आगे रहे हैं, आज भी हैं। संघ विरोधी जयप्रकाश नारायण ने बिहार में आये अकाल के समय संघ कार्यकर्ताओं के कार्य को देखकर अपना मत बदल लिया था। अनेक अवसरों पर संघ के कार्यकर्ताओं की सहायता से देश विरोधी ताकतों से निपटने का काम सरकारें करती रही हैं। जवाहरलाल नेहरू ने इसी कारण चीनी हमले के बाद और लाल बहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को पराजित करने के उपरांत गणतंत्र दिवस परेड में गणवेशधारी संघ सवयंसेवकों को शामिल किया था, लेकिन वैचारिक भिन्नता के कारण साम्यवादी तत्व संघ के बारे में अनर्गल अभियान चलाते ही रहे आज भी चला रहे हैं।

अब साम्यवादियों की अपनी ही पोल खुल गई है लेकिन इस दौरान वोट बैंक की राजनीति ने इस अभियान का नया स्वरूप पदान कर दिया। 15 से 18 पतिशत मुस्लिम मतों को हमवार कर सत्ता में आने के लोभ में प्रायः सभी राजनीतिक संगठन भाजपा के खिलाफ समय समय पर कीचड़ उछालते रहे हैं। गुजरात को ही लें। कोई यह बात नहीं करता कि 59 लोगों की गोधरा स्टेशन पर एक ट्रेन की बोगी में जलाकर मार डालना कितना बड़ा अपराध है। जो लोग किसी पुस्तक का एक पन्ना कहीं इधर-उधर मिलने पर हड़ताल करते हैं तोड़फोड़ करते हैं या फिर किसी कार्टून बनाने वो का सिर काटकर लाने के लिए दस करोड़ का इनाम देने की घोषणा करते हैं, उन्हें यह समझ में नहीं आता कि उनसठ जलाकर मार डालने की प्रतिक्रिया भी हो सकती है। गुजरात में दंगे नई बात नहीं है। कांग्रेस के माघव सिंह सोलंकी के मुख्यमंत्रित्वकाल में चार महीने तक दंगा चला। चार हजार से ज्यादा लोग मारे गए। राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री का पद संभालते ही यह कहकर कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल ही जाती है 1984 के सिख विरोधी दंगे को जो शह दिया, उसे भी मुद्दा नहीं बनाया जाता है। मुद्दा बनाया जाता है गोधरा कांड की पतिक्रिया से दस-बारह दिन चलने वाला दंगा जिसमें कुल 1200 लोग मारे गए और उसमें भी 48 पतिशत हिंदू थे। फिर भी यह हौव्वा खड़ा कर दिया है जैसे नरेंद मोदी मुसलमानों के सबसे बड़े संहारक हैं? क्यों ऐसा किया जा रहा है, क्यों झू” का सहारा लिया जा रहा है? उसका एक कारण तो यह समझ में आता है कि जो लोग संघ की समान नागरिकता उत्पन्न राष्ट्रीय भावना से देश में “एकतावादी” को विघटनवादी भावना बढ़ाने के मार्ग में रोड़ा समझते हैं तथा जो वोट बैंक की राजनीति करते हैं, वे दोनों ही संघ या भाजपा को अपने उद्देश्य के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा समझते हैं, लेकिन एक-दूसरा और महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि जनता में अपनी पैठ के बावजूद भाजपा की अन्य दलों के पति सहिष्णुता को उसके दब्बूपन के रूप में देखा जा रहा है। एकता के लिए विवाद में उलझने से बचने के लिए उसके पयासों ने भाजपा की छवि दब्बू दल के रूप में उभरी है। इसके ताजा तरीन उदाहरण हैं नीतीश कुमार जो लालू पसाद द्वारा बाहर का रास्ता दिखाये जाने के बाद बियाबान में भटक रहे थे। भाजपा की अंगुली पकड़कर ही फिर से स्थापित होने के बाद अब नरेन्द मोदी के नाम पर उससे अलग होने का रास्ता खोज रहे हैं। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर द्वारा चलाये गए गैर कांग्रेसवाद के वालन्टीयर आज उसी कांग्रेस के पिछलग्गू बनते। डाक्टर लोहिया ही थे जिन्होंने नेहरू के समय से ही कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के अभियोग गढ़े थे। नीतीश कुमार के पवक्ता बने शिवानन्द तिवारी कुछ साल पहले तक लालू पसाद यादव के पवक्ता थे, समय का फेर देखकर लालू को छोड़ दिया अब नीतीश पर जुटे हैं। लेकिन भाशा लालू की ही बोल रहे हैं। क्या नीतीश की भी वही हालत बनाना चाहते हैं। महाभ्रष्ट और सबसे अक्षम संप्रग की सत्ता को मजबूती पदान करने के सिपहसालारों की कल वही स्थिति हो सकती है जो आज लालू पसाद या रामविलास पासवान की है।

हिन्दुत्व क्या है? इसका सर्वोच्च न्यायालय ने जो व्याख्या किया है वही संघ की मान्यता है और भाजपा की पतिबद्धता है। लेकिन राजनीति के क्षेत्र में आज लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के समान यह कहने का साहस करने वालों का अभाव है कि स्वराज्य हम लेकर रहेंगे मुसलमान साथ दे तो अच्छा है नहीं देता है तो उसकी परवाह नहीं है। मनमोहन सिंह का पहला केंद्रीय मंत्रिमंडल है जिसमें मुस्लिम लीग शामिल है।, हैदराबाद की इत्तहादे मुसलमान और असम के बदरुद्दीन की पार्टी का उसको समर्थन पाप्त है, लेकिन सरकार “सेक्युलर” है। आजकल कांग्रेस तथा राम मनोहर लोहिया के पति आस्थावान समाजवादियों ने प्रशासन की पाथमिकता मुस्लिम तुष्टिकरण को बना रखा है। केवल मुस्लिम छात्र-छात्राओं को सुविधा और वजीफा क्यों? सभी वंचित लोगों को क्यों नहीं? बैंक की शाखायें या सरकारी स्कूल केवल मुस्लिम बहुल आबादी में खोलने की नीति क्यों? सभी अभावग्रस्त वंचित लोगों को इस योजना का अंग क्यों नहीं बनाया जा रहा है, क्योंकि राजनीति करने वाले यह जानते हैं कि हिन्दू या बहुमत समाज जो अस्सी प्रतिशत है जातियों में बंटा है। उनमें वैमनस्य फैलाने का अभियान आजादी मिलने के बाद से ही चलाया जा रहा है। समाज इससे अनभिज्ञ नहीं है और न इससे कि पिछड़े वर्ग के आरक्षण में साढे चार पतिशत “मुसलमानों” के आरक्षण के असंवैधानिक निर्णय के बाद आये और क्या मांग उ”sगी। मुसलमानों में जो वंचित हैं उन्हें ही नहीं देश के सभी वंचितों को समान सुविधा मिलनी चाहिए, ऐसी नीति क्यों नहीं अपनायी जाती।

मुलायम सिंह यादव जो इस समय मुसलमानों के सबसे बड़े चहेते हैं, साढे चार पतिशत आरक्षण विरोध कर रहे हैं, लेकिन आबादी के आधार पर आरक्षण के पक्षधर हैं। संविधान सभा में एक सदस्य ने अनुसूचित जाति के समान मुसलमानों के लिए भी विधानसभाओं और लोकसभा में जब आरक्षित सीट का मसला उठाया तो सरकार बल्लभ भाई पटेल ने उन्हें डपटते हुए कहा था हम दूसरा पाकिस्तान नहीं बनने देंगे। इत्तेहादे मुसलमीन द्वारा यह मांग फिर से उठाई जा रही है। उस पर सभी मौन हैं। देश के मुसलमानों अनुसूचित जाति या अन्य जातियों के बीच पृथकता का भाव उभारने के लिए उनसे कई सौ गुना अधि कवे जिम्मेदार हैं जो “सेक्युलर” होने का दावा करते हैं। लार्ड मेघानन्द देसाई ने “ाrक ही लिखा है हमें सेक्युलरिम के मायने समझने की जरूरत है, आज हिन्दुस्तान इस बात से भ्रमित है। माहौल यह है कि हर पृथकतावादी सेक्युलर और हर एकतावादी साम्पदायिक समझा जाय इसका अभियान जाने अनजाने पै” बढ़ाता जा रहा है। अवसरवाद की राजनीति करने वाले जो अपने दलों को बार-बार विभाजन करते रहे हैं भाजपा उनके सामने दब्बू बन जाने के कारण अपनी विश्‍वसनीयता कम करने के बजाय अपने अभिमत को दृढ़ता से उजागर करना चाहिए। ये दल तो उसके पिछलग्गू बन ही जायेंगे जब लोकसभा में उसे दो सौ के आसपास सीटें पाप्त हो जायेगी।

संसद में जो संपग सरकार पर घोटालों और स्वेच्छाचारिता का आरोप लगाते हुए महंगाई आदि के मसले पर बंद और धरना देते रहें वे इन सभी जनससमयाओं नकारकर सोनिया गांधी की “विजय” रणनीति के कैसे शिकार हो गए। कुछ लोगों के बारे में तो इसके लिए सीबीआई की नरमी और तेजी को जिम्मेदार कहा जा सकता है, लेकिन जिन पर सीबीआई का शिकंजा नहीं है वे क्यों कांग्रेस को “विजयी” बनाने साधन बन रहे हैं। पणब मुखर्जी अच्छे व्यक्ति होंगे-हैं भी-लेकिन क्या आज जो घोर संकट है उसके लिए वित मंत्री की हैसियत से वे जिम्मेदार नहीं हैं। लार्ड देसाई ने लिखा है कि सेक्युलरिज्म योरोप में उपयुक्त शब्द है जहां पोप राजा भी है। भारत में कोई धर्म गुरू राजा नहीं है न राज्य किसी मजहब के प्रति अनुरक्त संविधान से निर्देशित है। ऐसे में भारत में सेक्युलरिज्म का मुद्दा तभी उभरता है जब सत्ता संचालक जनहित के बजाय कुछ हित चिंतकों की होकर रह जाती है। संप्रग शासनकाल में घनी और घनी और गरीब और गरीब होता जा रहा है।

अब तो कांग्रेस के लिए अमेरिकी उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने वाली खुदरा व्यापार तक में सीधे निवेश का रास्ता खोलने में भी कोई कठिनाई नहीं होगी क्योंकि समाजवादी के प्रतिनिधि होने और लोहिया के अनुयायी की गर्वोक्ति करने वाले बिलग्रेट की शरण में जा चुके हैं।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं।)