कविता अपलक देखतें सपनें October 7, 2012 by प्रवीण गुगनानी | 1 Comment on अपलक देखतें सपनें आँखों में था पूरा ही आकाश तब भी और अब भी और थे उसमें से झाँकतें निहारतें कृतज्ञता के ढेरों सितारें. और थे उसमें आशाओं के कितने ही कबूतर जिन्हें उड़ना होता था बहुत और नीचें धरती पर होता था सेकडों मील मरुस्थल और आशाओं निराशाओं के फलते फलियाते फैलते दावानल. सम्बन्धों की […] Read more » अपलक देखतें सपनें