कविता अब मैं आता हूँ मात्र ! February 12, 2018 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment अब मैं आता हूँ मात्र, अपनी विश्व वाटिका को झाँकने; अतीत में आयोजित रोपित कल्पित, भाव की डालियों की भंगिमा देखने ! उनके स्वरूपों की छटा निहारने, कलियों के आत्मीय अट्टहास की झलक पाने; प्राप्ति के आयामों से परे तरने, स्वप्निल वादियों की वहारों में विहरने ! अपना कोई उद्देश्य ध्येय अब कहाँ बचा, आत्म संतति की उमंगें तरंगें देखना; उनके वर्तमान की वेलों की लहर ताकना, कुछ न कहना चाहना पाना द्रष्टा बन रहना ! मेरे मन का जग जगमग हुए मग बन जाता है, जीवित रह जिजीविषा जाग्रत रखता है; पल पल बिखरता निखरता सँभलता चलता है, श्वाँस की भाँति काया में मेहमान बन रहता है ! मेरी सृष्टि मेरी द्रष्टि का अहसास लगती है, और मैं अपने सुमधुर सृष्टा का आश्वास; दोनों ‘मधु’ सम्बंधों में जकड़े, आत्म-अंक में मिले सिहरे समर्पण में सने ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’ Read more » मैं
कविता मैं March 5, 2013 by मोतीलाल | Leave a Comment मैं चुप रहता हूँ कुछ भी काम नहीं करता सिर्फ सपने बुनता हूँ अकेला दौड़ता रहता हूँ धूल भरी मेड़ों पर । मैं खो जाता हूँ देर तक कविताओं में और डूबता-उबरता हूँ उन कविताओं के स्पंदन में । मैं नहीं चाहता हूँ विष बोना आदमियत की मिट्टी में । मैं यही […] Read more » मैं