अब मैं आता हूँ मात्र,
अपनी विश्व वाटिका को झाँकने;
अतीत में आयोजित रोपित कल्पित,
भाव की डालियों की भंगिमा देखने !
उनके स्वरूपों की छटा निहारने,
कलियों के आत्मीय अट्टहास की झलक पाने;
प्राप्ति के आयामों से परे तरने,
स्वप्निल वादियों की वहारों में विहरने !
अपना कोई उद्देश्य ध्येय अब कहाँ बचा,
आत्म संतति की उमंगें तरंगें देखना;
उनके वर्तमान की वेलों की लहर ताकना,
कुछ न कहना चाहना पाना द्रष्टा बन रहना !
मेरे मन का जग जगमग हुए मग बन जाता है,
जीवित रह जिजीविषा जाग्रत रखता है;
पल पल बिखरता निखरता सँभलता चलता है,
श्वाँस की भाँति काया में मेहमान बन रहता है !
मेरी सृष्टि मेरी द्रष्टि का अहसास लगती है,
और मैं अपने सुमधुर सृष्टा का आश्वास;
दोनों ‘मधु’ सम्बंधों में जकड़े,
आत्म-अंक में मिले सिहरे समर्पण में सने !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’