कविता मैं संस्कृति संगमस्थल हूँ May 29, 2015 by नरेश भारतीय | Leave a Comment –नरेश भारतीय- बनती बिगड़ती आई हैं युगों से सुरक्षित, असुरक्षित टेढ़ी मेढ़ी या समानांतर जोर ज़बरदस्ती या फिर व्यापार के बहाने, घुसपैठ के इरादे से वैध अवैध लांघी जाती रहीं अंतर्राष्ट्रीय मानी जाने वालीं सीमाएं प्रवाहमान हैं मानव संस्कृतियाँ सीमाओं के हर बंधन को नकारती समसंस्कृति संगम स्थल को तलाशतीं. सीमाओं को तो […] Read more » Featured कविता मैं संस्कृति संगमस्थल हूँ संस्कृति कविता