कविता श्रीराम तिवारी की कविता : हारे को हरिनाम है … December 10, 2010 / December 19, 2011 by श्रीराम तिवारी | Leave a Comment अब न देश-विदेश है, वैश्वीकरण ही शेष है। नियति नहीं निर्देश है, वैचारिक अतिशेष है।। जाति-धरम-समाज की जड़ें अभी भी शेष हैं। महाकाल के आँगन में, सामंती अवशेष है।। नए दौर की मांग पर, तंत्र व्यवस्था नीतियाँ। सभ्यताएं जूझती, मिटती नहीं कुरीतियाँ।। कहने को तो चाहत है, धर्म-अर्थ या काम की। मानवता के जीवन पथ […] Read more » poem हरिनाम