श्रीराम तिवारी की कविता : हारे को हरिनाम है …

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अब न देश-विदेश है, वैश्वीकरण ही शेष है।

नियति नहीं निर्देश है, वैचारिक अतिशेष है।।

जाति-धरम-समाज की जड़ें अभी भी शेष हैं।

महाकाल के आँगन में, सामंती अवशेष है।।

नए दौर की मांग पर, तंत्र व्यवस्था नीतियाँ।

सभ्यताएं जूझती, मिटती नहीं कुरीतियाँ।।

कहने को तो चाहत है, धर्म-अर्थ या काम की।

मानवता के जीवन पथ में, गारंटी विश्राम की।।

पूँजी श्रम और दाम है, जीने का सामान है।

क्यों सिस्टम नाकाम है, सबकी नींद हराम है।।

प्रजातंत्र की बलिहारी है, हारे को हरिनाम है।

सब द्वंद्वों से दुराधर्ष है, भूख महासंग्राम है।।

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