दोहे
आए कहाँ हैं आफ़ताब !
/ by गोपाल बघेल 'मधु'
आए कहाँ हैं आफ़ताब, रोशनी लिए;रूहों की कोशिका के दिये, झिलमिले किए! मेघों की मंजु माला, अभी गगन है गुथी;दायरे दौर कितने अभी, आँधियाँ मखी!मन मयूरों के नाच, लखे नियन्ता रहे;वे वसन्ती लिवास लिए, कहाँ हैं चहे! चाहे कहाँ हैं जीव अभी, अपनापन लिए;अपनी किताब औ ख़िताब सिर्फ़ वे लखे!आए हैं समझ अब भी कहाँ, […]
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