कविता आज अद्भुत स्वप्न समझा ! November 8, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment आज अद्भुत स्वप्न समझा, जगत की जादूगरी का; नहीं कोई रहा अपना, पात्र था हर कोई उसी का ! स्वार्थ लिपटे व्यर्थ चिपटे, चिकने चुपड़े रहे चेहरे; बने मुहरे बिना ठहरे, घूमते निज लाभ हेरे ! अल्प बुद्धि अर्थ सिद्धि, पिपासा ना आत्म शुद्धि; पहन सेहरे रहे सिहरे, परम पद कब वे निहारे ! […] Read more » आज अद्भुत स्वप्न समझा !