आज अद्भुत स्वप्न समझा !

0
201

आज अद्भुत स्वप्न समझा, जगत की जादूगरी का;
नहीं कोई रहा अपना, पात्र था हर कोई उसी का !

 

स्वार्थ लिपटे व्यर्थ चिपटे, चिकने चुपड़े रहे चेहरे;
बने मुहरे बिना ठहरे, घूमते निज लाभ हेरे !
अल्प बुद्धि अर्थ सिद्धि, पिपासा ना आत्म शुद्धि;
पहन सेहरे रहे सिहरे, परम पद कब वे निहारे !

 

रहे गति वे नित बदलती, स्थिति बनती बिगड़ती;
चित की चेतनता सुघड़ती, चिर नियन्ता तान सुनती !
मुक्ति पा जग समझ आता, शून्य वत सब नज़र आता;
कहाँ ‘मधु’ नाता लुभाता, जागरण जब आत्म भाता !

 

स्वप्न आता स्व-पन जाता !

 

स्वप्न आता स्व-पन जाता, विश्व बेहतर समझ आता;
भ्रम भगाता भ्रान्ति ढलता, भाव को द्रढ़ किये चलता !

 

मन व्यवस्थित किए चलता, भय कुयाशा दूर करता;
भव भुलाता क्लान्ति हरता, कुहक देता चहक भरता !
कला देता क्रान्ति देता, अविष्कारी प्रकृति देता;
प्रवृति श्रेयस्कर बनाता, प्रेय से मन मुक्त करता !

 

मुक्ति की इच्छा जगाता, भुक्ति कर भास्वर बनाता;
विवशता से स्व-वश लाता, ईश मिल कर शीष नमता !
सुशीतल संस्कृत सुषुम्ना, सिहर पाता सुधि पाता;
‘मधु’ बन कविता बनाता, माधुरी प्रभु समझ पाता !

 

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here