कविता उचित अनुचित है अपेक्षित होता ! May 24, 2018 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment उचित अनुचित है अपेक्षित होता, बुरों को भी कोई बुरा लगता; अच्छों को अच्छे बहुत से लगते, बुरों को अच्छा कोई है लगता ! देखता सृष्टा सबों को रहता, लख के गुणवत्ता ढालता रहता; अधूरे अध-पके जीव सब हैं, सीखने सुधरने ही आए हैं ! निखरते निरन्तर ही रहना है, मापदण्डों में उसके गढ़ना है; […] Read more » ‘मधु’ टपकाता अपेक्षित होता उचित अनुचित माँगते रहते