उचित अनुचित है अपेक्षित होता,
बुरों को भी कोई बुरा लगता;
अच्छों को अच्छे बहुत से लगते,
बुरों को अच्छा कोई है लगता !
देखता सृष्टा सबों को रहता,
लख के गुणवत्ता ढालता रहता;
अधूरे अध-पके जीव सब हैं,
सीखने सुधरने ही आए हैं !
निखरते निरन्तर ही रहना है,
मापदण्डों में उसके गढ़ना है;
लोभ लालच से उठना ऊपर है,
भरोसे उसके अन्त रहना है !
करता आयोजना वही देता,
भर्ता कर्ता वही विधाता है;
सोच क्यों करते सोंप ना पाते,
करने उसको भी कुछ कहाँ देते !
माँगते रहते खुद कहाँ देते,
कवित दी प्रभु की भी बेच लेते;
सभी के प्राण ‘मधु’ टपकाता,
गुणों की चासनी वही भरता !
गोपाल बघेल ‘मधु’