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कविता साहित्‍य

धरा पर आये है

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धरा पर आये हैं तो कुछ धरा को देते जायें धरा ने जितना दिया है कुछ तो उसका मान रखें नदियों मे नही अपनी अस्थियों को बहायें क्यों न किसी पेड़ की खाद बने,लहलहायें। फलफूल से पूजाकरें मिट्टी की मूर्ति बनायें खँडित होने पर भी उसे नदियों में ना बहायें मिट्टी की मूर्ति को मिट्टी ही  में मिलायें। धर्म  में क्या लिखा है ये तो  मै नहीं जानती अपनी इबारत ख़ुद लिखें जो सही लगे वो अपनाये। हम नहीं बदलेंगे सदियों पुरानी इबारते लकीर की फ़कीर पीटेंगे और पिटवायेंगे…… धर्म के नाम पर सिर काटेंगे कटवायेंगे ऐसे किसी भी धर्म को मै नहीं मानती! समय के साथ नदी बदलती लेती है रास्ते, नये टापू उगते हैं तो कई डूब जाते हैं आज जहाँ हिमालय है वहाँ कभी समुद्र था जब वो बदल गये तो हम क्यों ना बदल जायें।

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