कविता
सुकुमार सी मोहन हँसी !
by गोपाल बघेल 'मधु'
सुकुमार सी मोहन हँसी, है श्याम सखि जब दे चली; वसुधा की मृदुता मधुरता, उनके हृदय थी बस चली ! करि कृतार्थ परमार्थ चित, हो समाहित संयत विधृत; वह सौम्य आत्मा प्रमित गति, दे साधना की सुभग द्युति ! है झलक अप्रतिम दे गई, पलकों से मुस्काए गई; संवित सुशोभित मन रही, चेतन चितेरी च्युत रही ! भूलत न भोले कृष्ण मन, वह सहजपन अभिनव थिरन; बृह्मत्व की जैसे किरण, विकिरण किए रहती धरणि ! वह धवलता सुकुमारिता, ब्रज वालिका की गहनता; हर आत्म की सहभागिता, ‘मधु’ के प्रभु की ज्यों खुशी ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
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