कविता आईना August 22, 2009 / December 27, 2011 by पुनीता सिंह | 1 Comment on आईना मानवीय मूल्यों के प्रसंग में आदर्शो की बात करते है सब, एक आईना लगा है हर घर के आँगन मे दूसरो के दोष उसमें दिखते हैं अपनी आकॄति सुन्दर॥ क्यो होता है ऐसा? खेल क्यो समझते है वो खिल्ली उडाना, मजे लेना, दिल्लगी करना। समय काटना/दूसरो को हँसाना हो सकती है उनकी आदत पर किसी […] Read more » Mirror आईना
कविता विविधा कनिष्क कश्यप : अक्श बिखरा पड़ा है आईने में June 10, 2009 / December 27, 2011 by कनिष्क कश्यप | 3 Comments on कनिष्क कश्यप : अक्श बिखरा पड़ा है आईने में अक्श बिखरा पड़ा है आईने में मैं जुड़ने कि आस लिए फिरता हूँ कदम तलाशते कुछ जमीं हाथों पर आकाश लिए फिरता हूँ कठोर हकीक़त है है मेरा आज कल खोया विस्वास लिए फिरता हूँ कदम उठते पर पूछते कुछ सवाल क़दमों का उपहास लिए फिरता हूँ कामयाबियां खुशी नहीं दे पाती ऐसी कमी का […] Read more » Mirror आईने