न्यायपालिका की तानाशाही

judiciaryवीरेन्द्र सिंह परिहार
लंबी सुनवाई के बाद आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार के ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया कि संविधान द्वारा न्यायपालिका को स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है और एनजेएसी एक्ट से इस अधिकार मे हस्तक्षेप का डर होगा। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने 1030 पेज के इस फैसले में यह स्वीकार किया कि कोलोजियम प्रणाली में कुछ खामियां-जैसे पारदर्शिता की कमी है। जिसमे सुधार के लिए वह याचिकाकर्ताओं और सरकार से मदद चाहती है। इसकी सुनवाई के लिए कोर्ट ने 3 नवम्बर की तारीख भी तय की है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उपरोक्त संविधान संशोधन निरस्त करने का एक बड़ा कारण यह भी बताया गया कि यह विधि मंत्री और दो प्रबुद्ध व्यक्ति जो कमेटी के सदस्य होंगे उन्हें वीटो की शक्ति देता है जो न्यायिक आजादी में दखल बन सकता है।
यह बताना प्रासंगिक होगा कि संसद ने इस बिल को सर्वसम्मति से पास किया था और बीस राज्यों की विधान सभाओं ने इसका अनुमोदन किया था। कुल मिलाकर पश्चिम के महान राजनीतिक विचारक टी.एच.ग्रीन के अनुसार यह राष्ट्र की सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व जैसे था, बावजूद इसके सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर ज्यादा सोच-विचार न करते हुए इसे निरस्त कर दिया। सच्चाई तो यह है कि संविधान के मूल ढांचे को यह कानून नहीं बल्कि कोलोजियम प्रणाली कर रही है। कोई कह सकता है-एैसा कैसे? ऐसा इसलिए कि कोलेाजियम प्रणाली में जज ही जजों की नियुक्ति,स्थानान्तरण और पदोन्नति करते हैं, जबकि ऐसा किसी भी देश में नहीं है। सबसे बडी बात यह कि हमारा संविधान अमेरिकन संविधान के तर्ज पर चेक एण्ड बैलेंस अर्थात संतुलन और निरोध पर आधारित है। इसका मतलब यह है कि निर्बाध अधिकार एवं स्वतंत्रता किसी को भी नहीं दी जा सकती। जैसे कि कार्यपालिका का नियंत्रण व्यवस्थिापिका एवं न्यायपालिका दोनों ही करते हैं। इसी तरह से व्यवस्थापिका अर्थात संसद के असंबैधानिक कानूनों एवं गलत कृत्यों को निरस्त करने का अधिकार न्यायपालिका के पास सुरक्षित है। लेकिन लाख टके की बात यह है कि यदि व्यवस्थापिका में बैठे लोग मनमानी करें, दुराचरण एवं भ्रष्टाचार में लिप्त हों तो उसका उपचार क्या है? यहां तक की उच्च न्यायपालिका की शिकायतों की सुनवाई के लिए कोई फोरम ही नहीं है। वह चाहे जो करें,उन्हे दंडित करने के लिए कोई प्रावधान ही नहीं है। इन्हे सिर्फ संसद में महाभियोग लगाकर दो-तिहाई बहुमत से ही हटाया जा सकता है जो कि बहुत ही दुष्कर एवं दुरूह व्यवस्था है। इसका नतीजा है कि स्वतंत्र भारत में आज तक इसका एक बार भी सार्थक उपयोग नहीं हो सका है।
जैसे कि कहावत है-‘‘संपूर्ण सत्ता संपूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है। निश्चित रूप से बेझिझक यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका संपूर्ण सत्ता अपने पास रखना चाहती है। वह कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका को तो नियंत्रित करना चाहती है पर अपने को सर्वाधिकारी और पूरी तरह स्वतंत्र रखना चाहती है, जिसका नतीजा यह है कि पूरी न्यायिक व्यवस्था गंभीर संदेहो के दायरे में आ गई है। जैसे कि बाबा तुलसी ने लिखा है कि‘‘अति स्वतंत्र कछु बंधन नाही,करहुं उहै जो तुम्हही सुहाई’’ वही न्यायपालिका की स्थिति हो गई है। लोग न्यायालय अवमानना के डर से भले ही खुलकर न बोल पाएं, पर जजों के भ्रष्ट कारनामों के चर्चे सुनने को मिलते रहते हैं। यहां तक कि कई बार सफेदपोशों से इनके लयात्मक संबंध सुनने को और देखने को मिलते रहते हैं। छोटी अदालतें तो उतनी ही भ्रष्ट है जितनी इस देश की पुलिस-यह अधिकृत सर्वे में बताया जा चुका है। पर उच्च न्यायपालिका की स्थिति भी बेहतर नहीं कही जा सकती। अक्सर कई बार देखने में आता है कि कई बार जिला न्यायालयांे से भ्रष्ट किस्म के न्यायधीश उच्च न्यायालयों में पहुॅच जाते हैं तो सर्वोच्च न्यायालय में भी एकदम देवदूत बैठे हैं एैसा दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ट अघिवक्ता प्रशांत भूषण तो सर्वोच्च न्यायालय के कई मुख्य न्यायाधीशों को भ्रष्ट बता चुके हैं। कई बार यह देखने में आता है कि उच्च न्यायालयों में जो जज नियुक्त किए जाते हैं वह अपने आकाओं के बच्चों और रिश्तेदारों को वकालत के पेशे मे खूब प्रमोट करते हैं। और फिर उन्हें जज नियुक्त कराने मे भी भूमिका निभाते हैं। इस तरह से एक चक्र चलता रहता है। कई बार तो उच्च न्यायालय में एैसे जज नियुक्त हो जाते हैं कि लोग कहते हैं यह कैस हुआ? सर्वोच्च न्यायालय दिसंबर 2010 में इन्ही संदर्भो में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के संदर्भ में यह टिप्पणी कर ही चुका है कि वहां कुछ गड़बड़ है। जजों के रिश्तेदार जो वकालत पेशे में होते हैं वह शीघ्र ही करोड़ों में खेलने लगते हैं। इस तरह से निचली अदालतो से लेकर उच्च न्यायालयों तक जजों के रिश्तेदारों के जजों द्वारा नियम कानून के परे भरपूर संरक्षण दिया जाता है और इस तरह से न्यायपालिका में भी परिवार वाद का बिशाक्त प्रभाव जोर-शोर से चल रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग को इस आधार पर निरस्त किया कि इसमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होगी। जबकि 6 सदस्यीय आयोग में चीफ जस्टिस और दो वरिष्ठतम जज यानी तीन तो न्यायपालिका के जज रहते ही। दो प्रबुद्ध-जनों का जो चुनाव होता, उसमें भी प्रधानमंत्री एवं विपक्ष के नेता के साथ मुख्य न्यायधीश की भी भूमिका होती। ऐसी स्थिति में किसी गलत चयन की आशंका होने का सवाल ही नहीं था। तो क्या अकेले भारत की विधि एवं न्यायमंत्री न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता था? ऐसा तो संभव दिखता ही नहीं। सर्वोच्च न्यायालय को शिकायत यह थी कि न्यायिक नियुक्ति में दो प्रबुद्ध व्यक्ति एवं विधि एवं न्यायमंत्री को वीटो पावर दिया गया है। इसका उत्तर यह है कि बहुमतवाद के आधार पर मनमानी न होने लगे। जैसा कि वर्ष 2009 में दागी पी.जे.थामस को मुख्य सतर्कता आयुक्त बहुमत के आधार पर नियुक्त कर दिया गया था। फिर भी यदि यह बात सर्वोच्च न्यायालय को गलत लग रही थी तो वह वीटो पावर के संदर्भ में यह कह सकती थी कि इसमें बदलाव होना चाहिए न कि पूरे कानून को ही निरस्त कर जनाकांक्षा का निरादर करना चाहिए था।
जो लोग यह कहते हैं कि न्यायिक मामलों में सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए,वह क्या यह बताएंगे कि किसी भी नियुक्ति में निर्वाचित सरकार को कैसे पूरी तरह अलग रखा जा सकता है। इस कानून को लेकर सबसे विचित्र रवैया तो कांग्रेस पार्टी का है जो इसके पक्ष मे होते हुए भी अब विरोध की भाशा बोल रही है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी सरकार के अंध विरोध पर उतर आई है। पर बड़ा सवाल यह है कि पारदर्शिता और व्यापक विचार विमर्श तथा चेक एण्ड बैलेंस के अभाव में न्यायिक व्यवस्था कैसे दुरस्त होगी? बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय भी इसे समझे। पर मोदी सरकार को भी इस दिशा में पीछे हटने के बजाय इस पर सतत प्रयासरत रहना चाहिए, क्योंकि यह न्यायिक पारदर्शिता और जवाबदेही से जुड़ा मुद्दा है। लोकतंत्र में किसी को भी मनमानी एवं तानाशाही की इजाजत नही दी जा सकती। इसलिए न्याय के क्षेत्र में न्यायपालिका के सर्वाधिकार को एक सिद्धांत बतौर कतई स्वीकृत नहंी किया जा सकता।

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