-मनोज लिमये
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून . . . . . ये कहावत पूर्व में जितनी प्रासंगिक रही होगी आज उससे भी अधिक मौंजू नज़र आती है। आज सुन्दर गृहणियों के चेहरे का पानी हौद में पानी भरने के चक्कर में लुप्त होता जा रहा है। घरों के निर्माण में हौद निर्मिति का कार्य प्राथमिकता ग्रहण करता जा रहा है। इंटीरियर डेकोरेटर ध्यान दें तो एक अपार संभावनाओं वाले व्यवसाय का द्वार हौद में से निकल रहा है।
पानी की आपूर्ति अपने आपमें प्रतिष्ठा का विषय बन गई है। जिन घरों में पानी है वहाँ का रहन-सहन अन्य लोगों से भिन्न है। हो सकता है भविष्य में व्यक्ति के रहन-सहन का स्तर पर केपिटा इनकम (प्रति व्यक्ति आय) के स्थान पर प्रति परिवार पानी (PFW) अर्थात् प्रति परिवार पानी से निकाला जाए। इन वर्तमान 4-5 वर्षों में मेरे देखते-देखते जो हुआ है उसकी एक बेहद निजी यात्रा आपके सम्मुख पेश है . . . . आज मेरे शहर में यदि सबसे ज्यादा कोई सम्माननीय है तो वो नि:संदेह पानी का टैंकर और उसे चलाने वाला ड्रायवर है। चूहे पर विराजमान गणेश या उल्लू पर बैठी लक्ष्मी आज मेरे लिए उतने प्रासंगिक नहीं है जितना प्रासंगिक टैंकर और उस पर विराजमान ड्रायवर है। हाई प्रोफाईल महिलाओं से लेकर सामान्य गृहणियों का जमघट जब टैंकर आने से इसके ईर्द-गिर्द एकत्रा होता है तब टैंकर का प्रभारी ये ड्रायवर अनायास ‘कान्हा’ सा प्रतीत होने लगता है। जैसे गोपियों के मध्य कृष्ण का अस्तित्व था वैसा ही परिदृश्य नज़र आने लगता है।
टैंकर सामान्यत: दो प्रकार की प्रमुख श्रेणियों में विभक्त होते हैं एक सशुल्क एवं दूसरा नि:शुल्न्क। नि:शुल्क टैंकर सशुल्क के मुकाबले ज्यादा प्रतिष्ठित होता है। भीड़ में लगकर बाल्टियाँ भरने एवं कोहनी से पड़ौसी को धक्का देकर सरकाने की कला जिनमें नहीं होती वे नि:शुल्क टैंकर से पानी भरने के लिए अयोग्य होते हैं तथा उन्हें सशुल्क टैंकरों पर आश्रित होना पड़ता है। मौहल्ले- कॉलोनियों में नि:शुल्क एवं सशुल्क ये टैंकर कहाँ किसके घर कितनी देर पानी देते हैं इससे परिवारों की राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति का सरसरी तौर पर पता लगाया जा सकता है।
गली में इसके प्रवेश के साथ ही वातावरण में एक अजीब सी गंध निर्मित होती है। इस गंध में लालच, दुर्भावना, प्रतिस्पर्धा, द्वेष तथा वैमनस्य जैसे सभी प्रकार के लवण अपने पूरे सामर्थ्य के साथ विद्यमान होते हैं। टैंकर पर विराजमान प्रभारी जिससे मुस्कुराकर बात करता है उसकी सेटिंग हो गई यह माना जाता है। टैंकर के घर के सामने आने के पश्चात् जो मनोहारी दृश्य निर्मित होता है उस पर भी मुलाएजा फरमाए – टैंकर यदि घर के सामने खड़ा कर नि:शुल्क जल दे रहा हो तो मुखिया टैंकर के पाईप एवं खाली हौद की दूरी से ज्यादा कुछ देख नहीं पाता है जबकि परिवार के अन्य सदस्य टैंकर को ज्यादा से ज्यादा देर रोके रखने के लिए तरह-तरह के जतन करने लगते हैं। पानी से शुरू हुआ सत्कार कई बार समोसे एवं शीतल पेय पर जाकर श्वांस लेता है।
पानी हौद में आ जाने की यह क्रिया प्रथम बच्चे के जन्म के समय हुई प्रसन्नता सा मीठा एहसास देती है। भविष्य के प्रति सचेत परिवार नि:शुल्क टैंकर का भी शुल्क हंसकर ऐसे देते हैं मानो कह रहे हों कि ”देवता को दान देने की हमारी क्या औकात”। परिवार के सदस्यों द्वारा चढ़ाए इस चढ़ावे को टैंकर का प्रभारी हल्की औपचारिकता के पश्चात् अधिकारपूर्वक ग्रहण कर लेता है तथा इसका इस प्रसाद को ग्रहण करना भविष्य में पुन: हौद भर जाएगी इस बात की सुनिश्चितता भी पैदा करता है।
देश की आज़ादी के 50 वर्ष पूरे होने पर इस प्रकार की जल वितरण व्यवस्था आज़ादी की शतक पूरी होने पर क्या होगा इसका छोटा ट्रेलर नज़र आती है। आज पानी देने के लिए कम से कम टैंकरों में पानी तथा प्रभारी में सह्नदयता (?) मौजूद है परन्तु जब ये पानी और सह्नदयता दोनों नदारद होंगी तब एक परिवार अपने आसूंओं से कितनी बाल्टी पानी एकत्रित कर लेगा। पानी सहेजने के नारे से कुछ नहीं होगा जरूरत प्रकृति से संतुलन बिठाने की है अभी लिखने को बहुत कुछ है पर ये कह रही है जल्दी बाल्टी उठाओ टैंकर आ गया है . . . . . ।
बहुत बढ़िया लिखा है.
beautifully writen its great to view like this articals. its quality of sharad joshi and parsai ji