महत्वपूर्ण लेख

तसलीमा नसरीन का कसूर

शंकर शरण

बंगलादेशी लेखिका तसलीमा की आत्मकथा के नए खण्ड ‘निर्वासन’ का विमोचन समारोह कोलकाता पुस्तक मेले में रद्द कर दिया गया। क्योंकि इस्लामी उग्रवादियों ने विरोध किया। ऐसी पुस्तक जो अभी सामने आई भी नहीं, न लेखिका उस कार्यक्रम में उपस्थित होने वाली थी। फिर भी उग्रवादियों को उस के विमोचन से आपत्ति थी! और अधिकारियों ने डर से कार्यक्रम रद्द कर दिया। क्या सचमुच भारत में संविधान का शासन चल रहा है?

 

इस से पहले तसलीमा को भारत में रहने का वीसा भी पुनः किसी तरह मिला। कारण वही मजहबी कट्टरपंथियों का विरोध। स्थाई वीसा का उनका आवेदन वर्षों से अनिश्चित अवस्था में पड़ा है। इस बीच उलेमा का एक वर्ग उन्हें निकालने की माँग करते हुए दबाव डाल रहा है। यहाँ तक कि चार वर्ष पहले में हैदराबाद में उन पर जानलेवा हमला किया गया। तब आंध्र विधान सभा के तीन विधायकों ने अफसोस जताया कि वे नसरीना को मार डालने से चूक गए। उन विधायकों और हमलावरों को कोई सजा नहीं मिली! पेशेवर आतंकवादियों के लिए भी ‘मानव अधिकार’ के जोशीले भाषण देने वाले हमारे रेडिकल बुद्धिजीवियों ने उस पर भी एक शब्द नहीं कहा। उन्हें भारत में रहने की अनुमति मिल जाने के पीछे भी विदेशी बौद्धिकों के आग्रह का अधिक योगदान है, हमारे लोग तो चुप से ही रहे।

एक अर्थ में तसलीमा रूपी यह अकेली, निर्वासिता नारी एक दर्पण है जिस में हम अपना चेहरा देख सकते हैं। हमारा सेक्यूलरिज्म, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कानून का शासन, मीडिया का अहंकार, न्यायाधीशों का रौब, इस्लामी कट्टरपंथियों का ‘मुट्ठी-भर’ होना, उदारवादी मुसलमानों का हवाई अस्तित्व, नारीवादियों की उग्र दयनीयता और मानवाधिकार आयोग के पक्षपात – सभी इस दर्पण में देखे जा सकते हैं। तसलीमा कितनी अकेली, दर-दर भटकी और किसी तरह अपनी घर वापसी की कैसी भूखी है, यह उस की आत्मकथा के एक पिछले भाग ‘मुझे घर ले चलो’ पढ़ने वाला कोई भी महसूस कर सकता है। कोई भी भारतीय पाठक उन शब्दों, बिंबों और मुहावरों से अनछुआ नहीं रह सकता जो उस में लेखिका की आत्मा की पुकार बन कर रह-रहकर उठते हैं। यह पंक्तियाँ देखें, “ब्रह्मपुत्र सुनो, मैं लौटूँगी। सुनो शालवन विहार, महास्थान गढ़, सीताकुंड पहाड़ – मैं वापस लौटूँगी। अगर न लौट पाऊँ, मनुष्य के रूप में, लौटूँगी किसी दिन पंछी ही बनकर।”

यही अकेली अबला वह आइना है जिस में हमारे सत्ताधीश, न्यायाधीश, मीडियाधीश, मानवाधिकाराधीश और बौद्धिक विचाराधीश अपनी-अपनी शक्लें देख सकते हैं। इस दर्पण में उन को भी पहचान सकते हैं जो किसी समुदाय विशेष के संदिग्ध आतंकवादी से पूछ-ताछ होने पर भी दुःख से रात की नींद खो बैठते हैं। वही लोग एक शरणार्थी, एकाकी लेखिका पर कातिल गिरोहों के हमलों से भी निर्विकार रहते हैं।

 

पेशे से डॉक्टर रही तसलीमा का कसूर यह है कि उस ने मुस्लिम स्त्रियों की दुर्गति पर निरंतर आवाज उठाई है। कितनी भी धमकियाँ मिलने पर भी वह मौन नहीं हुईं। सच है कि मुस्लिम स्त्री की तुलना किसी अन्य समुदाय में स्त्री की स्थिति से नहीं की जा सकती। इसे मुस्लिम स्त्रियाँ ही अधिक अच्छी तरह जानती हैं। तसलीमा नसरीन की ‘लज्जा’ में जो बातें कही गई गई हैं, वह अक्षरशः सत्य हैं। उस की पुष्टि ईरान की वफा सुल्तान की पुस्तक ‘ए गॉड हू हेट्स’, उगांडा की इरशद माँझी की पुस्तक ‘द ट्रबुल विद इस्लाम टुडे’, पाकिस्तानी फहमीना दुर्रानी की ‘माई फ्यूडल लॉर्ड’, सोमालिया की अय्यान हिरसी अली की ‘द केज्ड वर्जिन’ आदि से भी होती है। यह सभी विभिन्न देशों की मुस्लिम लेखिका हैं। उन सब के अनुभव और विचार उस से भिन्न नहीं, जो तसलीमा ने व्यक्त किए हैं। तो क्या ये सारी लेखिकाएं गलत हैं, और केवल इस्लामी कट्टरपंथी, हिंसक फतवे देने वाले सही हैं? दुनिया कब तक एक असहिष्णु विचारधारा की विश्व-व्यापी मनमानी बर्दाश्त करेगी?

 

तसलीमा के कसूरों की झलक देखिए। उन के विचार में, “इस्लामी समाज में महिलाओं के साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता है। उन्हें सिर्फ एक वस्तु और बच्चे जनने वाली मशीन समझा जाता है। यदि कोई स्त्री इस पर बोलती है तो उसे तरह-तरह से जलील होना पड़ता है।” सरसरी तलाक प्रथा पर तसलीमा कहती हैं कि पुरुषों द्वारा स्त्रियाँ लाना-छोड़ना जूठे भोजन फेंकने जैसा कार्य नहीं होना चाहिए।

 

निस्संदेह यह एक कठिन और दुःखद विषय है। मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति कानूनी से अधिक विचारधारात्मक है। लफ्फाजियों को छोड़ दें, तो मुस्लिम बुद्धिजीवी भी मानते हैं कि इस्लाम पुरुषवादी विचारधारा है, जिस में स्त्रियों का स्थान अत्यंत निम्न है। पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री जुल्फिकार भुट्टो ने अपने प्रथम विवाह की करुण कथा सुनाते हुए स्वीकार किया थाः “मैं अपने मजहब पर शर्मिंदा हूँ। बहुपत्नी प्रथा बेहद घृणित चीज है। कोई मजहब इतना दमनकारी नहीं जितना मेरा है”। यह उन्होंने प्रसिद्ध पत्रकार ओरियाना फलासी के समक्ष कहा था।

 

भुट्टो ने कुछ गलत नहीं कहा था। मुस्लिम शादी-प्रथा में गरिमा का अभाव बारं-बार दिखता रहा है। वहाँ विवाह कोई शुष्क समझौता या मतलबी सौदेबाजी अधिक जान पड़ता है। निकाह, तलाक या गुजारे के नियम मनमाने हैं। शाह बानो से लेकर अमीना, गुड़िया, इमराना, आदि कई मामले चर्चित होकर यही दिखाते रहे हैं। इस्लामी प्रवक्ता बचाव में कहते हैं कि वह ‘व्यवहारिक’ या ‘यथार्थवादी’ है। किन्तु इसी सफाई में यह भी छिपा है कि वहाँ किसी गंभीरता, पवित्रता और आदर्श का अभाव है।

 

किंतु तसलीमा का सबसे बड़ा कसूर यह है कि उस ने बंगलादेश में हिन्दुओं पर होते रहे अत्याचार पर भी आवाज उठाई, जिन के लिए विश्व भर में कोई नहीं बोलता! स्वयं हिन्दू भी नहीं। बंगलादेश, फिजी हो या स्वयं भारत के कश्मीर या नगालैंड प्रांतों में, हिन्दुओं के लिए बोलने वाला कोई नहीं। मुस्लिम कट्टरपंथ और मुस्लिम उदारवादियों के बीच भी अपनी स्त्रियों की स्थिति पर जो असहमति हो, किंतु गैर-मुसलमानों पर वे प्रायः एकमत दिखते हैं। पूरे मुस्लिम इतिहास में इस पर कोई मुस्लिम स्वर नहीं उठा कि इस्लाम ने सदियों से गैर-मुसलमानों के साथ क्या-क्या अत्याचार किए। यही बात उठाकर तसलीमा ने अपने को उन कथित उदारवादी मुस्लिमों के लिए भी त्याज्य बना लिया जो आधुनिक, सेक्यूलर कहलाते हैं।

 

यही मुख्य कारण है कि हमारे देश के ‘पेज-थ्री’ हिन्दू उदारवादी भी तसलीमा से कतराते हैं। जो विभिन्न कार्यकर्ता हर तरह की ‘सेलिब्रिटी’ के साथ फोटो खिंचवाने को लालायित रहते हैं, अपने कार्यक्रमों में उन्हें बुलाकर धन्य होते हैं, वे भी तसलीमा से बचते हैं! क्योंकि तसलीमा ने एक वर्जित विषय – बंगलादेश में हिन्दुओं की दुर्गति – को भी प्रकाशित कर दिया। इसी लिए वह हमारे उच्च, बौद्धिक, मीडिया वर्ग के लिए अछूत हो गईं! एक अर्थ में मुस्लिम उदारवादियों से भी गई-बीती स्थिति हिन्दू उदारवादियों की है। इन का पहला दुराव हिन्दू पीड़ितों से है। चाहे वह कश्मीर के हिन्दू हों, या नेपाल या बंगलादेश के। हिन्दू सेक्यूलरपंथी उन की पीड़ा पर कुछ नहीं बोलता। परंतु तसलीमा ने अपनी लज्जा में बंगलादेश में हिन्दुओं की दुर्दशा का बेबाक चित्रण कर के रख दिया है।

 

इसी पाप के लिए भारत का हिन्दू सेक्यूलर-वामपंथी उसे क्षमा नहीं कर सकता! वह आतंकवादी मुहम्मद अफजल, कसाब और इशरत जहाँ के पक्ष में खड़ा हो सकता है, किंतु विदुषी तसलीमा नसरीन के पक्ष में हरगिज नहीं। क्योंकि तसलीमा ने हमारे उदारवादियों के शुतुरमुर्गी पाखंड को उघाड़ कर रख दिया, इसीलिए वे उस से रुष्ट हैं। क्योंकि उत्पीड़ित हिन्दुओं के लिए बोलना भारत में चल रही सेक्यूलर-वामपंथी-उदारवादी प्रतिज्ञा में मना है। इसी कारण हमारे रेडिकल पत्रकार भी तसलीमा से कन्नी कटाते हैं। कभी किसी प्रसंग में उस से बयान लेने, टिप्पणी या ‘बाइट’ माँगने नहीं जाते। न किसी सेमिनार, गोष्ठी में उसे आमंत्रित किया जाता है। चाहे प्रसंग ठीक मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति से क्यों न जुड़ा हो, जिस पर प्रमाणिक रूप से लिखने-बोलने का काम तसलीमा करती रही हैं। यह पूरी बात न समझना स्वयं को भुलावा देना है।

 

कभी-कभी लगता है मानो भारत में लोकतंत्र और कानूनी समानता के दिन इने-गिने रह गए हैं। इन्हें ठुकराने का उग्रवादी दुस्साहस जितना बढ़ता जाता है, हिन्दू उच्च वर्ग की भीरुता उसी अनुपात में बढ़ रही है। इस का अंतिम परिणाम क्या होगा? तसलीमा नसरीन पर विगत हमले से पहले भी उन्हें मार डालने की धमकियाँ दी गई हैं। उन्हें भारत से निकालने की माँग भी होती है। किंतु मुखर बौद्धिकाएं, नारीवादी नेत्रियाँ और उन के पुरुष प्रशंसक भी इस्लामी प्रसंगों पर मुँह सी लेते हैं। अमीना, गुड़िया, इमराना, आएशा जैसे कितने भी हृदय-विदारक प्रसंग क्यों न उठें, ‘जेंडर’ ‘जेंडर’ रटने वालों का स्वर तब नहीं सुनाई पड़ता। सब के सब मानो लापता हो जाते हैं! इसीलिए यहाँ इस्लामवादियों को अपनी जबर्दस्ती थोपने का प्रोत्साहन मिलता है।

 

तसलीमा सच्ची मानवतावादी रही हैं, केवल आत्म-प्रचार चाहने वाली ‘मानवाधिकारवादी’ नहीं। उन्होंने अपने विचारों और सत्यनिष्ठा के लिए कष्ट सहा और आज भी उस का परिणाम भुगत रही हैं। इस्लाम में सुधार का प्रश्न उन्होंने साहस से उठाया है। न केवल इस्लाम में स्त्रियों और गैर-मुस्लिमों की स्थिति, बल्कि विचार-स्वातंत्र्य और खुले विमर्श की कमी का प्रश्न भी। यह प्रश्न कि किसी भी मनुष्य के लिए उस की अंतरात्मा, उस का विवेक ही अंतिम मार्गदर्शक हो सकता है, कोई मजहबी पुस्तक नहीं। इसीलिए तसलीमा ने कुरान में पूर्ण सुधार अपेक्षित बताया था, अन्यथा मुस्लिम स्त्रियों की दुर्दशा जस की तस रहेगी। यही कहने के लिए तसलीमा पर उलेमा ने मौत का फतवा जारी किया था, जो उन के सिर पर सदैव मँडराता रहता है।

 

किंतु तसलीमा की बात में दम है, जिसे मन ही मन हमारे डरु सेक्यूलरवादी भी मानते हैं। हालाँकि कुरान में सुधार की माँग उपयुक्त नहीं लगती। जैसा, हमारे समकालीन मनीषी रामस्वरूप ने कहा था, “किसी सदियों पुरानी श्रद्धेय किताब को वैसे भी यथावत रहने का अधिकार है। कोई किताब उस का लेखक ही सुधार सकता है, किसी अन्य को वह करने का अधिकार नहीं। जो उस किताब से असहमत हैं, वह अपनी बात लिखें। नए नियम और प्रस्ताव दें, वह अधिक उपयुक्त होगा।” अतएव, कुरान की आलोचनात्मक समीक्षा, उस का खुले हृदय से विवेक-पूर्ण परीक्षण ही उपयुक्त है। उस में दिए ऐसे विचार त्यागे जा सकते हैं जिन से स्त्रियों और गैर-मुस्लिमों को चोट पहुँचती हो। उस के बदले नए विचार स्वीकारे जाएं जिस से स्त्रियों का मान-सम्मान और वृहद सामाजिक सामंजस्य बढ़ता हो।

 

पर अभी यह होना दूर है। यह कोई संयोग नहीं कि इस्लाम ने अपने इतिहास में गैर-मुस्लिमों के साथ जो किया, उस के प्रति मुस्लिम विश्व में कभी अफसोस का स्वर नहीं उठा। अतः गैर-मुस्लिम उदारवादियों को उलेमा की लल्लो-चप्पो छोड़ तस्लीमा जैसे स्वरों को समर्थन देना चाहिए। तभी बुखारियों और अयातुल्लाओं को बचाव की मुद्रा में आने को विवश होना पड़ेगा। तभी इस्लामी समाज में परिवर्तेन का मार्ग खुलेगा। वर्तमान स्थिति में मुस्लिम सुधार आंदोलन को गैर-मुस्लिम समाज के विवेकशील लोग ही बल पहुँचा सकते हैं। क्योंकि स्वतंत्र, लोकतांत्रिक, गैर-मुस्लिम देशों के लोगों पर इस्लामी विचार-तंत्र जबरन लादना संभव नहीं। इसीलिए यदि हिन्दुओं, ईसाइयों में सच्चे उदारवादी सच को सच कह सकें तो वास्तव में उन लाखों मुसलमानों की भी मदद होगी जो उलेमा की जकड़ और शरीयत के भय से बोल नहीं पाते। अब तक हिन्दू उदारवादियों ने अपने रवैए से कट्टरपंथी उलेमा को ही मदद पहुँचाई है। उन में एक अबला की सी भी शक्ति नहीं! कट्टर इस्लामवादियों के हर दबाव पर मौन यही दिखाता है।

मगर तसलीमा ने भारतवासियों से उचित ही पूछा हैः “कितने समय तक डरते रहोगे?”