सरकारों की बेशर्मी और लापरवाही से सुप्रीम कोर्ट हुआ एक्टिव!
हर बार सर्दियों में शीतलहर से, गर्मियों में लू से और बरसात में बाढ़ से लोगों के मरने की ख़बरे बड़े पैमाने पर आने लगती है। हर बार ऐसा लगता है कि शायद हमारी सरकार इस बार कुछ सबक सीखकर भविष्य में ऐसी ठोस व्यवस्था करेगी जिससे आगे से ऐसी दुखद घटनायें ना हों लेकिन इसके उलट देखने में यह आता है कि हर बार पिछली बार से भी अधिक ऐसी मौतें सामने आती हैं। जहां तक बाढ़ का सवाल है यह माना जा सकता है कि उसपर सरकार का एक सीमा के बाद नियंत्रण नहीं रह पाता है और उसमें मरने वालों में भले ही गरीब अधिक हों लेकिन अमीर और सभी तरह के लोग शामिल होते हैं लेकिन सर्दी और लू का जहां तक सवाल है उसमें सरकार काफी कुछ इंतज़ाम कर सकती है।
सरकारें एक ओर तो गरीबी ख़त्म करने और गरीबों के कल्याण की बड़ी बड़ी योजनायें बनाने के दावे करती हैं लेकिन व्यवहारिकता में देखें तो हमारे राजनेता इतने अधिक बेईमान और असंवेदनशील हो चुके हैं कि वे इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं करते कि उनकी नालायकी से कितने गरीब मौसम की मार से बेवक्त काल का गाल बन जाते हैं। सरकारों के कान पर तब भी जूं नहीं रेंगती जब उनको हमारी अदालतें फटकार लगाती हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश के करीब 30 लाख गरीब बिना छत के रात गुज़ारने को मजबूर होते हैं। हर साल दो चार नहीं हज़ारों लोग कड़ाके की ठंड से अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। इसके बावजूद हमारी सरकार को अपने भ्रष्टाचार से फुर्सत नहीं मिलती।
इन हालात को देखते हुए ही दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों की सरकारों को रैन बसेरे बनाने के आदेश दिये थे। इस पर सरकारों ने कोई खास काम नहीं किया। सर्वोच्च न्यायालय ने जब इस बारे में जांच करने को अपनी ओर से कमिश्नर तैनात किये तो उनकी सर्वे रिपोर्ट चौंकाने वाली थी। 15 सूबों की सरकारों ने सबसे बड़ी अदालत के इस जनहित के फैसले पर कोई नोटिस लेने लायक कार्यवाही करना मुनासिब नहीं समझा। सबसे अधिक काम अगर किसी सरकार ने किया तो वह दिल्ली की थी जिसने 129 रैन बसेरों की जगह 64 रैन बसेरे बनाकर तैयार किये। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट चूंकि दिल्ली में ही मौजूद है इसलिये दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित को कुछ डर लगा हो कि उनका झूठ और चोरी जल्दी ही पकड़ में आ जायेगी जिससे उन्होंने कोर्ट के आदेश के बरअक्स कम से कम आधे रैन बसेरे बना दिये।
जहां तक यूपी और तमिलनाडु का सवाल है वे तो आधे भी रैन बसेरे नहीं बना पाये। उधर म.प्र., छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, कर्नाटक और राजस्थान सहित लगभग दस राज्यों ने 20 से 30 प्रतिशत ही रैन बसेरे बनाये हैं। आश्चर्य और दुख की बात यह है कि महाराष्ट्र और पश्चिमी बंगाल जहां मुंबई और कलकत्ता में दुनिया की सबसे अधिक झुग्गी झोंपड़ी और गरीबी मौजूद हैं, वहां हालात और भी ख़राब हैं। हैरत की बात यह है कि चाहे वामपंथियों की सरकार रही हो या टीएमसी की दोनों के गरीबों के मसीहा होने की पोल खुल गयी है। उधर जो कांग्रेस अपना हाथ गरीबों के साथ होने का बार बार दावा करती है वह भी इस मामले में और दलों की सरकारों से बेहतर नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के मुताबिक एक लाख की आबादी पर एक रैन बसेरा अनिवार्य रूप से होना चाहिये लेकिन ऐसा पूरे देश के किसी राज्य में नहीं है। यहां तक कि महिलाओं और बच्चो की सुरक्षा एवं रोज़ाना की ज़रूरतों को भी इन रैनबसेरों में पूरा नहीं किया गया है। हद यह है कि कुछ राज्य नहाने धोने की सुविधाओं के बदले इन रैनबसेरों में रहने वाले भूखे नंगे लोगों से कमाई कर रहे हैं। इससे पहले एक रैन बसेरे पर बुल्डोज़र चलाने और उसकी वजह से एक गरीब की ठंड से मौत के कारण कोर्ट ने सरकार से जवाब तलब किया था लेकिन शर्म उनको मगर नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि जो सरकार रैनबसेरा नहीं बना सकती उससे लोगों को गरीबी से से निजात दिलाने की क्या उम्मीद की जा सकती है।
मैं वो साफ़ ही न कहदूं जो है फ़र्क़ तुझमें मुझमें,
तेरा ग़म है ग़म ए तन्हा मेरा ग़म ग़म ए ज़माना।।
मेरी हिम्मत को सराहो मेरे हमराह चलो
मैंने एक दीप जलाया है हवाओ के खिलाफ
बहुत बढ़िया लेख गर बहरे कान सुन ले तो शायद बेहतर हो
श्री इक़बाल जी ने बहुत सही बात कही है की वे सर्दी से नहीं गरीबी से मरते हैं, सरकारे नियम तो बहुत बनाती है किन्तु नेता और नौकरशाह हर जगह जनता से उनका हक़ छीन लेते है. पहले हर जगह आम व्यक्ति के लिए धर्मशाला होती थी किन्तु आजकल हर जगह होटल ही होटल दिखाई देती है. आम व्यक्ति का तो परिवार के साथ एक रात गुजरना भी मुश्किल हो जाता है. ख़ास कर सेलानी स्थलों में तो आम आदमी की जीना मुश्किल ही होता है.
जो नेता जानवरों का चारा तक खा जाते हैं वो भूखे नंगे इन्सान जो निरीह भी है व् अशक्त भी उन्हें क्यों छोड़ देंगे इनका बस चले तो मुर्दे से कफ़न भी उतर लेंगे क्या पता उतार ही लेते हो