कविता

तव स्वागत की क्या रीत निभाऊं?

नरेश भारतीय

 

ओ नए वर्ष

फिर से आ पहुंचे हो तुम

तव स्वागत की क्या रीत निभाऊं?

अभी जाना ही कितना है?

पहचाना ही कितना है?

नाचूं गाऊं और शुभकामनाएं लुटाऊं

कल आने वाली चुनौतियों से जूझने की

शक्ति क्यों न जुटाऊं मैं?…

 

झूठ पर सच की इमारतें नहीं बना करती

फिर जो सच नहीं मैं वह कह मैं छलिया क्यों कहलाऊं?

युद्द ग्रस्त हूँ, भयाक्रांत कदापि नहीं

हार जीत फैसला होने तक अनिश्चित रहा करती है

कालदेव के घातक वारों को निष्फल करता

उन सांसों को फिर से जीने का दम भरता

विस्मरण की परतों के नीचे दबते जाते क्षण

यूं ही लुप्त क्यों हो जाने दूँ मैं?…

 

माना कि जीवन चलते रहने का नाम है

जानता हूँ कि कोई थक टूट कर बैठ जाए

किसी पाषाण के आसन पर बैठ सुस्ता भर ले

रुके, झुके, पीड़ा से कराहता उठे भले

गिरता पड़ता लहूलुहान, कितना भी घायल

कोई नहीं देखता पलट कर क्षण भर उसको

सब आगे बढ़ जाने को उत्सुक

मैं पराजित क्योंकर कहलाऊं?

 

२०१५ के ईस्वी वर्ष हो यह तो जाना

५०१५-१६ का भारत युगाब्द क्यों न मानूं?

मज़हबों में बंटे मानवसमूहों में तुम किसके हो?

अपनी पहचान कराओ तो भला पहले

तुम किसके रक्षक हो?

क्या यूं ही आए दिन निरपराध मरेंगे?

क्या जिहाद ध्वज के तले अनगिनत सिर कटते रहेंगे?

क्या अबलाओं की लाज लूटेंगे वे बर्बर?

क्या मानव के हत्यारे दानव ऐसे ही मंडराएंगे?

कैसा तांडव जो अनवरत चला आया है बरसों से

वर्धमान क्षण क्षण, मानवता को धकेलता रसातल में

यदि यही है तेरे गर्भ में छुपा आने वाले

कल का सच जो मुझे दिखता है तो फिर…

 

ओ नए वर्ष!

तू हर बार पुराना चोगा फैंक, नए में सजधज कर

जगत के सामने आ फिर से क्या जतलाता है?

किस नई झूठी आशा की किरण जलाता है?

तुझे इस बार कुछ और समझ लूँ फिर से

इससे पहले कि मैं भी उन्मत्त हो अन्यों की तरह

मदिरा के प्यालों में भर भर कर विष पीते

झूम झूम कर उसी को अमृत कहते तेरा गुणगान करूं?

नवअंध परम्पराओं का अनुपालक बन

मैं भी मूंद क्यों लूं अपने मन के चक्षु

तव स्वागत की क्या रीत निभाऊं?