केंद्र और राज्य सरकार के ख़ज़ाने का मुख्य स्रोत है तेल पर लगा टैक्स

petrol1शैलेन्द्र चौहान
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अब कच्चे तेल की क़ीमत घट कर 20 से 25 डॉलर प्रति बैरल रह गई है। पिछले ग्यारह सालों में कच्चे तेल की क़ीमत इतनी कम कभी नहीं रही। असल में तेल के कम होते दामों का जो फायदा उपभोक्ता को मिलना चाहिए था, वह फायदा सरकार खुद उठा रही है। 2008 में यूपीए की सरकार के कार्यकाल में जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोल काफ़ी महंगा था, तब केंद्र सरकार ने एक्साइज़ ड्यूटी को बहुत कम कर दिया था। ऐसा करके उन्होंने आम लोगों पर पड़ने वाले बोझ को कम किया था। 2014 के आते-आते तेल की कीमतें कम हुईं तब दलील ये दी गई कि तेल का जो दाम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में होगा, उसी अनुपात में खरीदारों से क़ीमत वसूली जाएगी। पर अब जब दाम घट गये हैं, लेकिन उस अनुपात में दाम घटाए नहीं गए। सरकार ने इसे कमाई का ज़रिया बना लिया है। टैक्स सरकार के अधिकार क्षेत्र का मामला है और वह ज़रूरत के अनुसार टैक्स लगा सकती है लेकिन किसी उत्पाद पर उसके मूल्य से अधिक का टैक्स लगाना ‘उपभोक्ता-विरोधी’ है। इससे सरकार भले ही अपना वित्तीय घाटा कम करती है पर आम आदमी को लगता है कि सरकार उसके साथ न्याय नहीं कर रही है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में दाम कम होने का फ़ायदा सरकार की जगह आम आदमी के खाते में क्यों नहीं जाना चाहिए। पेट्रोल के असल मूल्य के ऊपर दो बड़े टैक्स लगाए जाते हैं- केंद्रीय एक्साइज़ ड्यूटी और राज्यों का वैट (वैल्यू ऐडेड टैक्स), इनकी वजह से ग्राहक को तेल की वास्तविक क़ीमत से दोगुना अधिक रकम देनी पड़ती है। कहा जाता है कि केंद्र सरकार के लिए इससे मिलने वाली एक्साइज़ ड्यूटी काफ़ी महत्वपूर्ण है। इससे मिले राजस्व का एक हिस्सा केंद्र सरकार ख़ुद खर्च करती है और एक हिस्सा राज्यों को विकास कार्यों के लिए मुहैया कराती है।

केंद्र और राज्य सरकार दोनों के ख़ज़ाने का मुख्य स्रोत होने के कारण कोई इसे छोड़ना नहीं चाहता। ऐसा नहीं है कि केवल पेट्रोल और डीज़ल पर ही ज़्यादा टैक्स लगाया जाता है। शराब, सिगरेट जैसी चीज़ों पर भी उत्पाद की क़ीमत से ज़्यादा टैक्स (100 फ़ीसदी से अधिक और 72 फ़ीसदी की एक्साइज़ ड्यूटी) लगाया जाता है लेकिन पेट्रोल और शराब को एक ही कैटगरी में रखना सही नहीं है। जब विपक्ष ने संसद में सरकार पर तेल की क़ीमत को लेकर हमला किया, तो उंगली राज्य सरकारों पर उठा दी गई। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में बयान दिया कि जब केंद्र सरकार पेट्रोल पर एक्साइज़ ड्यूटी कम करती है तो राज्य सरकारें इस पर वैट बढ़ाकर इसके मूल्य को जस का तस रखते हैं, नीचे नहीं आने देते। सियासी शोर में पूरा मुद्दा रफादफा हो गया। माना जाता है कि डीज़ल की खपत ग्रामीण इलाक़ों में अधिक होती है, ख़ास कर खेती में इसका इस्तेमाल होता है, जबकि पेट्रोल की खपत शहरों में अधिक होती है इस कारण भी डीज़ल के दामों को कम रखा जाता है। लेकिन पेट्रोल के महँगा होने से टैक्सी के किराए, आम आदमी के दुपहिया वाहन और छोटी कार पर होने वाला खर्च बढ़ जाता है जिसकी सीधी मार मध्य वर्ग को झेलनी पड़ती है। चूंकि पेट्रोल का इस्तेमाल ज़्यादातर निजी काम के लिए होता है, इसके दाम बढ़ाए जाने से महंगाई पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता। ऐसा इसलिए कि माल पहुंचाने वाली गाडियां अधिकतर डीज़ल पर चलती हैं। वैसे भी दुनिया के ज़्यादातर देशों में डीज़ल की क़ीमत पेट्रोल से अधिक होती है। विश्व बैंक और तेल के बाज़ार पर नज़र रखने वाले भी मानते हैं कि आने वाले कई सालों तक इनकी क़ीमतें बढ़ने की कोई सूरत नहीं दिखती। सऊदी अरब ने 2016 के अपने सालाना बजट में तेल के दाम 29 डॉलर प्रति बैरल तक रहने की संभावना जताई है यानी दाम बढ़ने के आसार नहीं हैं। पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन ओपेक के अनुसार भी अभी कई सालों तक कच्चे तेल की क़ीमतें कम ही रहेंगी। ऐसे में क्या सरकार को अपनी ही दलील मानते हुए कि ‘तेल का जो दाम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में होगा, उसी अनुपात में खरीदारों से क़ीमत वसूली जाएगी, पर अमल करेगी और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की दरों के अनुपात में तेल के गिरती क़ीमतों का फायदा आम लोगों तक पहुंचाएगी ?

1 COMMENT

  1. घटी हुई अंतराष्ट्रीय तेल कीमत का फायदा उपभोक्ताओं को निश्चित रूप से मिला है। साथ साथ इस अवसर का उपयोग सरकारे अपनी विकास परियोजनाओं के लिए धन जुटाने के लिए कर रही है तो इसमें बुरा क्या है। मैं तो कहूँगा की सरकारो को टैक्स लगा कर पेट्रोलियम उपयोग को हतोत्साहित और स्वदेशी ऊर्जा पर सब्सिडी दे कर उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। तेल लाबी के प्रभाव में इस प्रकार के आलेख लिखे जाते है।

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