शिक्षक

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चरण-रज गुरु की मस्तक पर लो लगाय
जीवनपथ पर चलने की राह यही दिखाय।
शिक्षा से अपनी ज्ञान-ज्योति दे सहज जलाय
उपकार जीवन में इनका कभी न बिसराय।
गुरु के समक्ष नहीं है कभी कोई असहाय
गोविंद से बढ़कर महिमा इनकी कहलाय।

प्रथम शिक्षक माँ को शीश झुका करते प्रणाम
बढ़ती निरंतर आगे कभी यह न करती विश्राम।
डाँट-दुलार से रखती हमेशा संतान का ध्यान
जीवन-मूल्य सिखा बनाती उसे सर्वश्रेष्ठ इनसान।
माँ ही गिरकर संभलना-चलना सिखाती है।
जीवन-ज्योति की यही पावन-निर्मल बाती है।

तिमिर दूर कर पिता करते जीवन में प्रकाश
पंख पसार उड़ने को देते विस्तृत आकाश।
जनक की महिमा का संभव नहीं है बखान
संस्कार ही इनके हैं सकल गुणों की खान।
उचित-अनुचित का संतान को कराते भान
पिता को ही सच्चा शिक्षक-सखा तू जान।

गुरुरूप में नहीं है कोई प्रकृति का सानी
आग,हवा,आकाश,पृथ्वी और रूप है पानी।
नीररूप में प्रकृति सिखाती निरंतर बहना
धरारूप में सिखाती धैर्य से सबकुछ सहना।
वायु-अग्नि सिखाते हमें शक्ति का सदुपयोग
अनर्थ को न्योता दे सकता इनका दुरुपयोग।
सिखाता नभ हमें जीवन को देना विस्तार
दिखाता है यही भू पर हमें संभावनाएं अपार।
फूल-पौधे, पक्षी-वृक्ष, झरने-पर्वत या हों वन
प्रकृति का हर रूप देता ज्ञान-विज्ञान का धन।

विद्यालय शिष्य-जीवन का महत्त्वपूर्ण सोपान है
नवांकुरों को सिंचित करना ही जिसका अभियान है।
मित्र भी बनते यहाँ हमारे, गुरुजन भी हमें मिलते
जीवन की नींव मजबूत बना शिक्षक भविष्य गढ़ते।
यही वह स्थान है जहाँ पर हम निखरते और संवरते
गुरु के हर रूप को आज हम शत-शत वंदन करते।
शिक्षक शिष्य के लिए अमूल्य निधि और वरदान हैं
गुरु हर रूप में हम सबके लिए साक्षात् भगवान हैं।
विकास-प्रगति पर अपनी करो न कभी अभिमान
सबकुछ अधूरा रहता गर मिलता न तुम्हें गुरुज्ञान।

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