शिक्षक दिवस विशेष
डा. विनोद बब्बर
शिक्षक दिवस है तो वातावरण में ‘गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पाय‘ से ‘शिक्षक राष्ट्र निर्माता है’, ‘युग निर्माता है’ का शोर तो होगा ही लेकिन इस शब्दजाल और नारों के प्रवाह में बहने से पहले यह समझना जरूरी है कि क्या शिक्षक गुरु है? क्या हम उसे पर्याप्त सम्मान दे रहे हैं? अगर नहीं तो क्या ये नारे आत्म प्रवंचना हैं? समाज से छल हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज में नैतिक मूल्यों में आई गिरावट के जिम्मेवार शिक्षक से अधिक हम ही हैं? यह सर्वविदित है कि आषाढ़ पूर्णिमा गुरु पूजा उत्सव तो 5 सितम्बर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। जब हम और हमारा समाज ही दोनो को एक नहीं मानता तो शिक्षक को गुरु कहे भी तो कैसे ?
निजी विद्यालय का शिक्षक जो अपने आका का हर आदेश मानने के लिए बाध्य है। शिक्षक बनना उसकी प्राथमिकता भी नहीं थी। विश्वास न हो तो आज के किसी भी युवा से पूछो तो वह अपना लक्ष्य डाक्टर, इंजीनियर, पायलट, सीए, यहां तक कि नेता भी बताएगा लेकिन टीचर कहने से बचेगा। हाँ, यह बात अलग है कि जब कहीं नहीं तो यही सही। ऐसे बोझिल परिवेश में उससे छात्र के सर्वांगीण विकास की आपेक्षा करना स्वयं को धोखा देना नहीं तो औैर क्या है?
गत वर्ष शिक्षक समारोह में एक मुख्यमंत्री ने कहा, ‘आज कहीं कोई आपराधिक घटना होती है तो उस राज्य का मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पुलिस प्रमुख को बुलाकर कहता है, ‘एक सप्ताह में सब ठीक होना चाहिए।’ लेकिन मेरा स्वप्न है किजब भी कहीं कोई आपराधिक घटना हो तो मैं पुलिस चीफ को नहीं, स्कूलों, कालेजों के प्रमुखों और शिक्षामंत्री को बुलाकर कहूँ- ‘एक सप्ताह में सब ठीक हो जाना चाहिए।’ तालियों की गड़गड़ाहट तो होनी ही थी। लेकिन भावनाओं को उभारकर वोट तो पाये जा सकते हैं परंतु समस्या हल नहीं होती। उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि पुलिस के पास बहुत से अधिकार हैं। लेकिन जो शिक्षक गलती करने पर छात्र को दण्ड देना तो दूर डांट भी नहीं सकता। जो खुद डरकर समय बिता रहा हो। किसी अयोग्य को भी फेल तक नहीं कर सकता उससे आप अपराधमुक्त समाज की आपेक्षा आखिर किस आधार पर और क्यों करते हो?
निश्चित रूप से शिक्षा का उद्देश्य मात्र अक्षर-ज्ञान नहीं है। सच्ची शिक्षा वह है जो ‘मस्तिष्क में ज्ञान, हृदय में गुण, शरीर में शक्ति और मन में सभी जीवों के प्रति दया, करूणा, सौहार्द का संचार करे। शिक्षक और विद्यार्थी किसी भी राष्ट्र की नींव के वे पत्थर हैं जिनका तन से ही नहीं, चरित्र से भी मजबूत होना आवश्यक है। एक समय था जब छात्र को गुरुकुल में रह कर शिक्षण के साथ वहां की व्यवस्था से संबंधित अन्य कार्य जैसे- जंगल से लकड़ियॉं लाना, साफ-सफ़ाई, भोजन बनाना आदि भी करते थे। राजा- प्रजा की सन्तानें एक समान, एक साथ रह कर शिक्षा प्राप्त करती थीं। विश्वामित्र, वशिष्ठ, चाणक्य, द्रोणाचार्य जैसे श्रेष्ठ गुरुओं की एक सुदीर्घ परम्परा के दर्शन भारतीय संस्कृति में होते हैं। तब अभिभावक अपनी प्रिय संतान को गुरु को सौंपते हुए कहते थे- यथेह पुरुषोऽसत् अर्थात्- हे आचार्य! आप इस बालक को श्रेष्ठ विद्या प्रदान कर ऐसी शिक्षा दें कि यह पुरुष बन जाये। (पुरुष पृ अर्थात् पालन और पूर्णयों धातु से बना है। जिसका अर्थ है- पालन करने वाला और पूर्ण) इस तरह गुरु से अपेक्षा की जाती थी कि उनके मार्गदर्शन में उनका पुत्र यशस्वी, मनस्वी और वर्चस्वी बने, पूर्ण पुरुष बने। मनुष्यत्व प्राप्त करे। तब गुरु का आदर था। उसके प्रति राजा से समाज तक श्रद्धा थी। ऐसे में उससे शिष्य के सर्वांगींण विकास के लिए ‘हर संभव’ प्रयासो की अपेक्षा की जा सकती थी। तब गुरु-शिष्य दोनों ही प्रतिदिन प्रार्थना करते थे- सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु सह वीर्यम् करवावहे तेजस्विना वधीत मस्तु, मा विद्विषावहे। अर्थात् हे प्रभु! हम दोनों को एक -दूसरे की रक्षा करने की सामर्थ्य दे। हम परस्पर मिलकर अपनी जाति, भाषा व संस्कृति की रक्षा करें। किसी भी शत्रु से भयभीत न हों। हमारी शिक्षा हमें एकता के सूत्र में बांधे, बुराईयों से मुक्त करे। हम एक-दूसरे पर विश्वास रखें।’
आज स्थिति क्या है? दोनो के हृदय में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास एवं अनास्था का वातावरण है। आज का शिक्षक छात्र को केवल वही विषय पढ़ाता है जिसके लिए उसे कहा गया है यथा- मैथ्स, कॉमर्स, से विज्ञान की हर शाखा की जानकारी देना वाला अलग शिक्षक। वह लगभग एक घंटे के लिए उस कक्षा में आता है जहां 50 से अधिक बच्चेे हैं। वह उन्हें विषय की जानकारी भर ही दे सकता है। आज तो उसे छात्रों की विभिन्न गतिविधियों (?) के प्रति अनजान बने रहकर अपने विषय तक सीमित रहने के निर्देश भी हैं। ऐसे में यदि छात्र दिशाहीन होते हैं तो उस दायित्वहीनता का जिम्मेवार कौन है? क्या छात्र या उसके अभिभावक या वह राजनैतिक व्यवस्था जो बजट बढ़ाने का प्रचार तो खूब करती है परंतु छात्र शिक्षक अनुपात तय नहीं करती। अध्यापकों की कमी पूरा नहीं करती। ऐसे में चरित्र निर्माण की बाते भाषणों तक तो प्रशंसा पा सकती हैं परंतु व्यवहारिकता के धरातल पर उन्हें उपहास अथवा बकवास ही माना जाएगा।
कुछ लोग कहते हैं कि अध्यापक का कार्य नौकरी या व्यवसाय नहीं, सेवा है। लेकिन उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि डाक्टर, सेना, पुलिस सहित आखिर कौन सा काम सेवा नहीं है। अध्यापकों के वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक, व्यावसायिक उत्तरदायित्व भी होते है। पढ़ाना उनका कार्य है लेकिन बच्चें, युवा पीढी तथा समाज में उपयुक्त सभी की सहायता से आदर्श एवं संस्कारों का रोपण संभव है। बेशक भारतीय संस्कृति में गुरु को उच्च स्थान प्राप्त था लेकिन आज शिक्षक से छात्र का दोस्त होने की आपेक्षा की जाती है। पर व्यवसाय बनती शिक्षा ने छात्र को ‘क्लाइन्ट’ और शिक्षक को ‘सर्विस प्रोवाइडर’ का रूप दे दिया है। ट्यूशन, कोचिंग फल-फूल रहा है क्योंकि आज शिक्षक को भी कोरा सम्मान नहीं, चंचला लक्ष्मी चाहिए क्योंकि उसके परिवार को भी उसे अपेक्षाएं इसलिए उसकी भी जरूरतें हैं। मोटी फीस देने वाले छात्र के हृदय में शिक्षक के प्रति श्रद्धा है या नहीं, इसका कोई पैमाना नहीं है। ऐसे में अध्यापक अपने कार्य एवं दायित्व बंधनों के कारण सिमट कर रह गया है। परिवार पालन व जीविका में निरंतरतता के लिए वह अपने अधिकारियों के आदेशों का पालन करने को विवश है। स्कूल में शिक्षण के अतिरिक्त अनेक कार्य है। मिड डे मील जांचने से बांटने तक विद्यालय के वातावरण को शिक्षणेतर बनाते हैं। जनगणना, जाति गणना से मतदाता सूची तैयार करने, मतदान करवाने, मतगणना करने जैसे अनेकानेक कार्य भी शिक्षकों के कंधों पर है। ऐसे में वह अपने आप को केवल शैक्षिक कार्यों के प्रति एकाग्र कैसे करें?
भौतिकवाद की मृग मारीचिका ने शिक्षक को कक्षा और टयूशन के बीच ‘पेन्डुलम’ बना दिया है। जिसका प्रभाव उसकी कार्यशैली और बौद्धिक क्षमता पर पड़ता है।
एक सत्य यह भी है कि समय के साथ शिक्षा के तौर-तरीके भी बदले हैं। प्रत्यक्ष संवाद रेडियों, टीवी, कैसेट से आगे बढ़ता हुआ कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि उपकरणों तक ऑन लाइन हो रहा है। इस बदलते परिदृश्य ने संवेदनात्मक स्पर्श के महत्व को समाप्त कर दिया है। दूसरी ओर प्रबंधन और तकनीक जैसे विषय परम्परागत शिक्षा पर हावी हो रहे हैं। अतः परम्परागत संस्कार और मानवीय मूल्यों के लिए स्थान सीमित हो रहा है। देश से अधिक विदेश का आकर्षण युवा विद्यार्थी को शिक्षा के वास्तविक अर्थ से दूर ले जा रहा है। ऐसे में सब यंत्रवत है। शिक्षक से विद्यार्थी तक। मनुष्य से व्यवस्था तक तो शिक्षक जो एक साधारण मनुष्य ही है। वह हम सब जैसा ही खाता है, पहनता है तो सोचता और करता भी हमारे ही जैसा होगा। फिर वहीं अकेला ‘राष्ट्रनिर्माता’ बनने की धुन पर क्यों झूमेगा। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि आज आदर्श शिक्षक नहीं है। अनेको हैं लेकिन सरकार, समाज और स्वयं हमने कब उसके महत्व को स्वीकारा है। कब उसकी परेशानियों को समझा है? हम भी तो मशीन के एक पुर्जे जैसा व्यवहार करते हुए उससे देवत्व वाले व्यवहार की आपेक्षा क्यों करते हैं? नई शिक्षा नीति में अनेक अन्य परिवर्तन किये गये हैं उनके सकारात्मक परिणाम आने में कुछ समय लगेगा।
आशा की जा सकती है शिक्षक दिवस जैसे अवसर पर देश के कर्णधारों से सामान्य जन चिंतन करेंगे कि शिक्षा, शिक्षक और छात्र अर्थात सम्पूर्ण समाज, सम्पूर्ण राष्ट्र का मंगल कैसे संभव है। इसी से शिक्षक का गौरव फिर से प्राप्त होने की आशा बंध सकती है। यदि सभी लोग गंभीरता से इस दिशा में चिंतन करेंगे तो समाज के लिए घाटे का सौदा नहीं होगा क्योंकि शिक्षक का कर्तव्यबोध उसे शिक्षा, संस्कृति और संस्कार के माध्यम से समाज के के लिए अपना श्रेष्ठ प्रदान करने को प्रेरित करेगा। हम सब के जीवन में जो शिक्षक रहे हैं, उन्हें श्रद्धा से स्मरण कर हम अपनी अगली पीढ़ी को भी शिक्षक का महत्व सिखा सकते हैं। फिलहाल गुरु से सेवाप्रदाता बनने को विवश शिक्षक को नमन!
डा. विनोद बब्बर