डेरे के साथ भी, खिलाफ भी !

-जगमोहन फुटेला

श्रीअकाल तख़्त साहिब का डेरा सच्चा सौदा के खिलाफ फरमान अपनी जगह, डेरे के भक्त पंजाब में लाखों वोटर और उनकी अहमियत अपनी जगह. अब पंजाब की चुनावी राजनीति में डेरा सच्चा सौदा की एक भूमिका है तो है. मगर इस के साथ साथ श्री दमदमा साहिब के जत्थेदार बलवंत सिंह नंदगढ़ की एक राय भी है. वे कहते हैं कि जब श्री अकालतख़्त साहिब का फैसला है कि कोई सिख डेरे नहीं जाएगा तो फिर उसको न मानने वाले किसी भी सिख को किसी भी गुरद्वारे में सरोपा (सम्मान) नहीं दिया जाना चाहिए.

दलील में दम है. लेकिन ये बात वे अकेले ही क्यों कह रहे हैं? श्री अकाल तख़्त साहिब के जत्थेदार तो उनके अलावा चार जत्थेदारसाहिबान और भी हैं? वे क्यों चुप हैं? क्या जत्थेदार नंदगढ़ इसलिए अकेले और सार्वजनिक रूप से बोल रहे हैं कि बाकी चार बोलना नहीं चाहते या कि श्री अकाल तख़्त साहिब की किसी औपचारिक बैठक में कभी इस मुद्दे पर कोई ऐसा विचार विमर्श ही नहीं हुआ कि इस मुद्दे पे किसी सांझे बयान की नौबत आती.

इस से भी महत्वपूर्ण है कि डेरे के प्रति हुक्मनामे और और उन सिख नेताओं में भी विरोधाभास क्यों है जिन के बारे में माना जाता है कि ‘पंथ’ की सेवा और संभाल की जिम्मेवारी उन्हीं की है. क्यों उन्हीं को ये सुविधा हासिल है कि ऐन चुनाव के समय सिख संत उनके पक्ष में प्रचार यावोट की अपील करें. ये ठीक है कि जैसे संघ के पास भाजपा के अलावा कोई दूसरा वैसा विकल्प नहीं है, वैसा सिख धार्मिक संगठनों के पास भी सबसे बेहतर और भरोसेमंद तो अकाली दल ही है. संत करें शिरोमणि अकाली दल के लिए वोट अपील. अकाली दल उसका फायदा होता है तो ले भी. लेकिन नैतिकता का तकाज़ा है कि फिर उन संतों के साथ टिकें तो वो भी जो कहते रहे हैं कि वे डेरे के खिलाफ हैं. खुद बादल परिवार क्यों जाता है डेरे की चौखट पे माथा रगड़ने?

डेरे को राजनीति करनी चाहिए या नहीं ये अलग बहस का विषय है. ठीक वैसे ही जैसेअकाली दल का गुरुद्वारा सिख प्रबंधक कमेटी के चुनावों में दखल देना या सिखसंतों का चुनावों के दौरान अकाली दल के हक़ में वोट अपील करना. लेकिन यक्ष प्रश्न ये है कि जब कोई एक धार्मिक संस्था किसी भीराजनीतिक दल के सहयोग या दबाव से दूसरी किसी धार्मिक संस्था पे बैन लगा ही नहीं सकती तो कोई भी पार्टी अपने हाथ इस आग में जलने से खुद को रोकती क्यों नहीं है? ज़रुरत ही क्या है वो बैन लगवाने की जिसे आप लागू न कर सको. क्यों असुरक्षा, सामाजिक उपेक्षा एक तरह के साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति बनी और आत्मदाह कराती रहती है पंजाब में?

पंजाब के इस बार के चुनावों में एक खेल हुआ. जिस बन्दे ने एक रिपोर्ट दर्ज करा रखी थी डेरे वाले बाबा के खिलाफ उसने कहा बताया कि अपनी रिपोर्ट उसने वापिस ले ली. ज़ाहिर सी बात है ये बात कही और उसका प्रचार किया गया तो डेरा प्रेमी वोटरों को ये समझाने के लिए किया गया होगा कि देखो हमें तुम्हारे गुरु से कोई दिक्कत नहीं तुम हम सेनफरत मत रखना. मतदान होते ही उस बन्दे ने कहा कि उसने तो ऐसा कोई फैसला लिया ही नहीं था. उस बन्दे को साथ बिठा कर जत्थेदारनंदगढ़ ने सबको समझा दिया भी दिया है कि न इस बन्दे राजिंदर सिंह सिद्धू ने वैसा बयान दिया, न हुकमनामे की बेअदबी की. उस बन्दे के रिपोर्टवापिस ले लेने के बयान का प्रचार करने वाले अब कहाँ हैं? क्यों सामने आके कहते नहीं कि पुलिस के पास थी अर्जी केस वापिस ले लेने की. या कहें औरमानें कि उन्होंने डेरा समर्थकों के वोट लेने की खातिर वो घटिया चाल चलीथी.

वो ऐसा कुछ नहीं करेंगे. करेंगे तो दोनों तरफ से मरेंगे. मगर जैसे सांच को आंच और सूरज को उजाले की ज़रूरत नहीं होती वैसे ही ये मामला साफ है. कोई भी रिपोर्ट जो एक बार दर्ज हो चुकी हो और पंहुच चुकी हो अदालत तक. वो अदालत की सहमति के बिना वापिस हो भी नहीं सकती. और हत्या जैसी कोई फौजदारी रिपोर्ट तो हाईकोर्ट के नीचे नहीं. उसके लिए भी बाकायदा नोटिस जारी होता है सरकार को. तो सवाल है कि रिपोर्ट वापसी का वो झूठा प्रपंच क्या सिर्फ और सिर्फ डेरा समर्थक वोटों के लिए नहीं किया गया? और अगर किया गया तो बहस तो अब इस पे होनी चाहिए कि डेरा सच्चा सौदा के खिलाफ हुकमनामा जारी करने वाले श्री अकालतख़्त साहिब की बेअदबी किसने की है?…और उसकी सज़ा क्या हो?

जिन्हें याद न हो, दिला दें. कहा तो ये भी था श्री अकाल तख़्त साहिब ने कि डेरे के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध रखने वाले के साथ कोई भी सिख रोटी, बेटी का रिश्ता नहीं रखेगा. इसके आधार परडेरा प्रेमियों को अपने बच्चों की शादी के समय गुरुद्वारों से श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की पावन बीड़ तक देने से इनकार किया गया है और इसवजह से उनकी शादियां उनके घरों में अपने गुरु की फोटो के सामने तक हुई हैं. तो सवाल है कि बायकाट उनका क्यों न हो जो डेरे की मेहरबानियाँ पाने के लिए झूठ बोलते पाए गए हैं?

 

 

 

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