यदि हम इस समय भारत सहित वैश्विक परिदृश्य पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि सारा संसार इस समय एक अघोषित युद्ध की विभीषिका में झुलस रहा है । आतंकवाद के नाम पर एक वर्ग के लोग निर्दोष लोगों का खून बहाना और अपना मजहबी विस्तार करना अपनी विरासत का एक अनिवार्य अंग मानते हैं। वास्तव में निर्दोष लोगों का रक्त बहाकर उन लोगों ने जिस प्रकार अपना विस्तार किया है, वह उनके लिए इस समय एक मार्गदर्शक अनुभव है। उस अनुभव की पिछली कई शताब्दियों से शेष संसार के लोग आलोचना करते आ रहे हैं। परंतु उन पर इस प्रकार की आलोचनाओं का कोई प्रभाव नहीं हुआ । इसके विपरीत ये लोग इस प्रकार का विमर्श बनाने में भी सफल रहते हैं कि आतंकवाद मात्र मुट्ठी भर लोगों की सोच है । इस्लाम का आतंकवाद से दूर-दूर का भी संबंध नहीं है। इस दुष्प्रचार के लिए उनके पास एक पूरी फौज होती है , जो केवल इसी मोर्चे पर लड़ती है कि आतंकवाद को इस्लाम के साथ न जोड़ा जाए।
अली सिना अपनी पुस्तक ‘ अंडरस्टैंडिंग मुहम्मद और मुस्लिम ‘ में लिखते हैं कि 11 सितंबर सन 2001 के बाद 13 वर्षों में 24300 आतंकी हमले हुए । परिणाम स्वरुप पूरे संसार में सैकड़ों हजारों नागरिकों की मृत्यु हुई और चोट पहुंची । औसतन प्रतिदिन पांच आतंकी हमले हुए। आक्रमणकारी अपराधकर्ता कोई दैत्य नहीं थे, अपितु मुसलमान ही थे। अपने मजहब में उनका विश्वास था और उसके अनुसार ही उन्होंने यह काम किया । ऐसी ही सोच वाले दसियों करोड़ और भी हैं , जो वह सब भी वही करने के लिए तैयार बैठे हैं। वह लिखते हैं कि इस्लाम अपनी सफलता के लिए आतंकवाद का ही ऋणी है।
विद्वान लेखक की इस बात में बहुत ही बल है कि ‘ इस्लाम आतंकवाद का ऋणी है।’ आज जितने भर भी देशों में इस्लाम का परचम लहरा रहा है, वहां कभी सनातनी हिंदुओं का वर्चस्व था। धीरे-धीरे सनातन के लोगों में जड़ता ने प्रवेश किया और वे कई स्थानों पर दोराहे की बजाए चौराहे पर आते चले गए। उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति का लाभ इस्लाम और ईसाई मत के लोगों ने कहीं तलवार से तो कहीं प्यार से, कहीं बहला फुसलाकर तो कहीं लालच देकर उठाने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस्लाम ने आतंकवाद के माध्यम से लोगों का भयादोहन करके ही अपना विस्तार किया है। जब तथ्य चीख चीखकर सच्चाई को बयां कर रहे हों, तब भी कुछ लोग यदि यह ना कहें कि इस्लाम और आतंकवाद का चोली दामन का साथ है तो निश्चित रूप से उनकी बुद्धि पर तरस ही आता है।
अली साहब हमें बताते हैं कि मदीना में अपना कदम रखने के साथ ही मोहम्मद ने अपने आतंक का अभियान आरंभ कर दिया था, तब से उनके अनुयाई भी यही करते चले आ रहे हैं।
भारतीय मान्यता में किसी पर घात लगाकर हमला करना नैतिकता और मानवता के विरुद्ध है, जबकि इस्लाम इसे जायज मानता है। वीरता इसी में है कि शस्त्रयुक्त व्यक्ति से ही युद्ध किया जाए । इतना ही नहीं, जिस पर जैसा हथियार है वैसा ही हथियार वाला व्यक्ति उससे युद्ध करे।
जब 10 वर्ष में 24300 आतंकी हमलों का एक कीर्तिमान एक वर्ग विशेष के लोगों के नाम अंकित हो और प्रतिदिन पांच आतंकी हमले संसार में हो रहे हों , तब विश्व शांति की बात करना कितना उचित हो सकता है ?- यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह तथ्य और भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोग प्रतिदिन की पांच आतंकवादी घटनाओं को लगभग जीवन का एक अनिवार्य अंग मान चुके हैं । तभी तो इतने निर्मम अत्याचारों पर कोई चर्चा नहीं होती। चर्चा को पूर्व नियोजित योजना के अंतर्गत इस प्रकार विषयांतरित कर दिया जाता है कि आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता और आतंकवाद इस्लाम की मूल भावना के विपरीत है। टी0वी0 चैनलों पर या समाचार पत्रों में इस विषय में जो भी चर्चाएं होती हैं, उनमें कितने ही लोग आपको इसी प्रकार के विमर्श के इर्द-गिर्द घूमते लेख लिखते हुए या चर्चा करते हुए मिल जाएंगे। इस प्रकार सत्य को मिट्टी में मिला दिया जाता है और अपराधी को भी मानव मानकर उसके अधिकारों का समर्थन करने के लिए लोग उठ खड़े होते हैं। इसका परिणाम यह आता है कि गजवा , सरिया और आतंकवाद के आधार पर काम करने वाले लोग निसंकोच अपने मिशन में लगे रहते हैं।
इसके लिए धर्म परिवर्तन के नाम पर लोगों को भेड़ की भांति मूंडा जाता है । लोगों की फटेहाली, गरीबी और लाचारी का लाभ उठाकर उनकी आत्मा का सौदा किया जाता है। पहले तो उन्हें शांति और उन्नति के सपने दिखाए जाते हैं, फिर उनके सपनों को निर्ममता से रौंदकर उनसे बेगार ली जाती है। उन्हें नारकीय जीवन जीने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता है।
पाकिस्तान में स्वाधीनता के समय लगभग ढाई से तीन करोड हिंदू रह गया था। आज मुट्ठी भर हिंदुओं को छोड़कर लगभग सारे हिंदुओं को पाकिस्तान का जिहादी आतंकवाद लील गया है। यदि स्वाधीनता के समय भारत में रहा 3 करोड़ मुसलमान 20-25 करोड़ हो सकता है तो माना जा सकता है कि पाकिस्तान का हिंदू भी कम से कम आज 10 करोड़ तो होता ही। इस प्रकार यदि देखा जाए तो सनातन को पिछले 75 वर्षों में 10 करोड हिंदू अकेले पाकिस्तान में ही खोने पड़े हैं। हमने अपनी हानि का भी आंकलन नहीं किया, जबकि धर्मांतरण के खेल में लगे रहकर अपनी संख्या बढ़ाने वाले लोग निरंतर अपने लाभ का आंकलन करते जा रहे हैं। वह जानते हैं कि यह लाभ उन्हें केवल और केवल आतंकवाद को फैलाए रखने से मिला है। ऐसे में उनसे यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे आतंकवाद को छोड़कर सचमुच शांति की बातें करने लगेंगे ?
बिल्ली को यदि झपट्टा मारने से कबूतर खाने को मिल सकता है तो वह झपट्टा मारने को कभी छोड़ने वाली नहीं। इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि झपट्टा मारना बिल्ली का मूल स्वभाव है और मूल स्वभाव को ही गीता में ‘ धर्म ‘ कहा गया है। यह मूल स्वभाव जब धर्म के रूप में आतंकवाद के साथ जुड़ जाता है तो यह इस्लाम बन जाता है। इस दृष्टिकोण से इस्लाम आतंकवाद का धर्म सिद्ध होता है। अतः यह भी मान लेना चाहिए कि आतंकवादी का भी कोई धर्म होता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य