द आर्मीज़ ऑफ़ गॉड  !                               

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               १९ वीं सदी में  दुनिया में विस्तार पाते यूरोपीय साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए अपनी किताब  ‘ग्लिम्पसेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में जवाहरलाल नेहरु बताते है कि ये वो समय था जब कहा जाता था कि आगे बढ़ती सेना के झंडे का अनुसरण उसके देश का व्यापार करता था. और कई बार तो ऐसा भी होता था कि बाइबिल आगे-आगे चलती थी, और सेना उसके पीछे- पीछे. प्रेम और सत्य के नाम पर आगे बढ़ने वाली  क्रिस्चियन मिशनरीज़ दरअसल  साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए  आउटपोस्ट[चौकी]  की तरह  काम करती थी. और यदि उन को किसी इलाके में कोई नुकसान पहुंचा दे तो फिर तो उस के देश को उस इलाके को हड़पने का, उससे हर्जाना बसूलने का बहाने मिल जाता था.[ पृष्ठ- ४६३]
            इस बात को गुजरे लगभग  १५० वर्ष हो चुकें हैं, और वक्त काफी बदल चुका है. पर जहां तक बात देश के अन्दर सक्रीय मिशनरीज़ की है, उन्होंने बार-बार साबित किया है कि उन पर आज भी  बदलाव बेअसर ही हैं.  इन दिनों केरल के तिरुवंतपूरम में बनने वाले अडानी- बंदरगाह को लेकर मिशनरीज ने इसके विरोध में उतर कर पुन: इस बात को प्रमाणित करके दिखाया है. देश अभी कुछ वर्ष पूर्व वेदांता स्टरलाइट कॉपर प्लांट और कुडायकुनल पॉवर-न्यूकलीयर  प्लांट  की घटनाओं  को भूला  नहीं है.   (बंद हो चुके) तूतीकोरिन स्थित वेदांता स्टरलाइट कॉपर प्लांट  के संचालन के विरोध में चलने वाले आन्दोलन में सबसे आगे  जिन्हें लोगों ने खड़ा पाया था उनमें नक्सल और मिसनरीज़ प्रमुख रूप से थे. इसलिये  सुपरस्टार रजनीकांत को कहना पड़ा था कि आन्दोलन असामाजिक तत्वों के हांथों नियंत्रित है.  इस आन्दोलन में एक पादरी का नाम खूब उछला था, जिसका दावा था कि आन्दोलन को सफल बनाने के लिए मैदानी  गतिवीधीयों  के साथ-साथ  चर्च के अन्दर भी प्रार्थना चल रहीं हैं. जांच में ये बात खुलकर सामने आयी थी कि पादरी को इस काम के बदले  करोड़ों रूपए दिया गए थे. प्लांट से स्थानीय स्तर पर उद्धोगिक विस्तार , रोजगार सृजन के कारण व्यापारिक संगठन शुरू से आन्दोलन के खिलाफ थे, लेकिन ३४ ईसाई व्यापरिक संगठनों के दवाब के चलते उन्हें भी विरोध में उतरना पड़ा. अंततः  प्लांट बंद हो गया और विदेशी और देश के अन्दर उनके लिए काम करने वाले तत्व  भारत के जिन  आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचाना चाहते थे उनमें वो सफल हो गए. देश का कॉपर उत्पादन  ४६.१%  गिर गया. २०१७-१८ में जहां हमारा विश्व में पांच बड़े निर्यातकों में नाम था, २०२० के आते-आते हम आयातक हो गए.
             कुडनकूलम परमाणु सयंत्र का मामला भी अलग नहीं. धरना-प्रदर्शन,जन-आंदोलन जितना हो सकता था सब-कुछ अजमाया गया कि कैसे भी हो ये परियोजना अमल में लायी ही ना जा सके. तत्कालीन सप्रंग सरकार के एक मंत्री  नें यहाँ तक आरोप लगाया था कि इस मामले में रोमन-कैथोलिक बिशप के संरक्षण में चल रहे दो एनजीओ को ५४ करोड़ रूपए दिए गए हैं. सौभाग्य से इस मामले में मिशनरीज़  को सफलता हाथ न लग सकी, और परमाणु सयंत्र अस्तित्व में आ सका. इन हालातों में तो लगता है नोबल पुरुस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी नें ठीक ही कहा था कि-‘ कुछ लोगों ने सामाजिक बदलाव और  समाज कल्याण को कारोबार बना दिया है. कन्वर्शन(धर्मांतरण) के लिए भी एनजीओ का इस्तेमाल किया जा रहा है. एनजीओ  एक वर्ग के लिए  सामाजिक बदलाव का नहीं बल्कि कैरियर बनाने का जरिया बन गया है.’ यही कारण है कि पिछले वर्ष गृह मंत्रालय नें कढ़े कदम उठाते हुए ४ बड़े ईसाई मिशनरीज़ संगठनों पर विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम के अंतर्गत धन इकठ्ठा करने की अनुमति निरस्त कर दी थी. ये मिशनरीज़ दक्षिण भारत समेत झारखंड, मणिपुर  जैसे  वनवासी बाहुल्य क्षेत्रों में सक्रीय थीं. इसी प्रकार दो अन्य संगठन – राजनंदगाँव लेप्रोसी हॉस्पिटल एंड क्लिनिक और डान बास्को ट्राइबल डवलपमेंट सोसाइटी की भी अनुमति निरस्त कर दी गयी है.  और अभी हाल ही में ‘वर्ल्ड विज़न’ नाम के संगठन को विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम  के दायरे में लाते हुए उसको विदेशों से प्राप्त होने वाले अनुदान पर रोक लगा दी गयी है. ये संगठन अमेरिकी गृह विभाग के वृहद संरचना का एक अंतर्गत चलने वाले तमाम  एनजीओ की  तरह ही एक अलग   उपक्रम है, जो कि विदेश कूटनीति के क्रियान्वन में एक हथियार की तरह उपयोग में लाया जाता है. इसका विस्तृत विवरण  इयान बुकानन लिखित ‘ द आर्मीज़ ऑफ़ गॉड:ए स्टडी इन मिलिटेंट क्रिश्चियनिटी’  नामक किताब में देखा जा सकता है.(द हिन्दू पोस्ट)

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