बढ़ती आबादी को रोकना है सबसे बड़ी चुनौति!

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लिमटी खरे

वैश्विक स्तर पर वैसे तो बहुत सारी चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं, पर सबसे बड़ी चुनौति बढ़ती आबादी को रोकने की है। जिस तेज गति से आबादी बढ़ रही है उसके अनुसार सारी व्यवस्थाएं करना एक बड़ी समस्या से कम नहीं है। परिवार नियोजन के उपायों के बाद भी इस पर लगाम नहीं लगाई जा पा रही है। किसी भी देश के विकास में बढ़ती आबादी सबसे बड़ी बाधक साबित होती है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की आबादी बढ़कर 07 अरब 70 करोड़ हो गई है। चार साल पहले 2018 में यह आबादी दस करोड़ कम अर्थात सात अरब 60 करोड़ थी। आबादी के बढ़ने के साथ ही अगर संसाधनों के विकास की दिशा में प्रयास नहीं किए गए तो आने वाले समय में मांग और आपूर्ति सहित हर मोर्चे पर संकट खड़ा हो सकता है।


वैसे भारत में प्रजनन की दरों में कमी भी दर्ज की गई है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों पर अगर आप नजर डालें तो पाएंगे कि देश में प्रजनन दर 2.2 से घटकर 2 पर जा पहुंची है। यह दर प्रति महिला के द्वारा पैदा किए जाने वाले बच्चों के आधार पर मापी जाती है। मुस्लिम समुदाय में यह दर घटकर 2.36 हो गई है।

इस रिपोर्ट में गौर करने वाली बात यह है कि देश में गर्भ निरोधक उपायों के प्रति जागरूकता में इजाफा दर्ज किया गया है। वर्तमान में सभी वर्गों के औसत में यह दर अगर 2.1 आ जाती है तो भी इसे राहत की बात माना जा सकता है। यह सर्वे देश के आठ केंद्र शासित प्रदेशों, 28 राज्यों के 707 जिलों में लगभग साढ़े छः लाख परिवारों के नमूनों के आधार पर किया गया है।

जानकारों की मानें तो अगर हालात यही रहे तो आने वाले कुछ दिनों में ही आबादी में युवाओं का अनुपात कम हो सकता है। वर्तमान में भारत में औसत आयु 28 वर्ष ही मानी जा रही है। चार साल बाद 2026 में यह 30 साल तो 2036 तक यह 35 साल तक पहुंचने की उम्मीद है।

इस सर्वे में सवा सात लाख महिलाओं और एक लाख पुरूषों को शामिल किया गया था। इस सर्वे में उत्साहजनक बात यह सामने आई है कि जनसंख्या की रोकथाम के लिए लोग जागरूक हुए हैं। देश में आधा दर्जन राज्य ऐसे हैं जहां प्रजनन दर 2.1 से ज्यादा है। इसमें बिहार में 2.98, मेघालय में 2.91, उत्तर प्रदेश में 2.35, झारखण्ड में 2.26 एवं मणिपुर में 2.17 है।

इस सर्वे के अनुसार लगभग पांच सालों में देश में पांच साल से कम आयु के बच्चों की मृत्यदर में काफी कमी दर्ज की गई है, जिसका सीधा तातपर्य है कि सरकारों के द्वारा बच्चों की देखभाल और पोषण के मामले में ईमानदारी बरती है। वहीं दूसरी ओर महिलाओं और पुरूषों में ओबेसिटी अर्थात मोटापा बढ़ने की बात भी सामने आई है। महिलाओं में मोटापा तीन फीसदी अर्थात 21 से बढ़कर 24 फीसदी तो पुरूषों में यह चार फीसदी अर्थात 19 से बढ़कर 23 फभ्सदी हो गया है। कोविड के बाद महिलाओं और पुरूषों में मोटापा बढ़ने की शिकायत आम है।

देश में हर दस साल में जनगणना की जाती है। देश में पहली बार जनगणना 1951 में हुई थी तब देश की आबादी 36 करोड़ थी। 1961 में हुई जनगणना में आबादी बढ़कर 44 करोड़ तो 1971 में यह 55 करोड़ तक जा पहुंची। 1981 में 68 करोड़ तो 1991 में यह 95 करोड़ के आंकड़े को स्पर्श कर गई थी।

इक्कीसवीं सदी में 2001 में हुई जनगणना में आबादी का आंकड़ा सौ करोड़ को पार कर गया था। 2011 में यह 121 करोड़ पहुंची और कोविड के चलते 2021 में जनगणना का काम नहीं हो पाया पर अगर आज जनगणना कराई जाए तो यह आंकड़ा 135 करोड़ के आसपास ही नजर आ रहा है।

कांग्रेस के युवा तुर्क माने जाने वाले संजय गांधी के द्वारा सत्तर के दशक में नसबंदी अभियान को बहुत ही सख्ती से लागू करवाया गया था। उनके द्वारा दूर की सोच रखते हुए इसे लागू करवाया गया था। एक अनुमान के अनुसार उस दौरान संजय गांधी के प्रयासों से लगभग 75 लाख के लगभग लोगों की नसबंदी कराई गई थी, वरना आज देश की आबादी की कल्पना करते ही आपकी रूह कांप उठती।

देखा जाए तो जनसंख्या में अगर बढ़ोत्तरी होती है तो इसका विपरीत असर देश की अर्थव्यवस्था के साथ ही साथ हर मामले में पड़ता है। देश में रहने के लिए मकान का आभाव, खाद्यान्न संकट, बेरोजगारी, पारिवारिक संघर्ष जैसी समस्याओं से लोग दो चार होना आरंभ हो जाते।

उमर दराज हो रही पीढ़ी इस बात की साक्षात गवाह है कि लंबे समय से देश के जरूरी मुद्दों में से जनसंख्या नियंत्रण का मामला दो तीन दशकों से गायब ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो इस मुद्दे को सियासतदारों ने बिसार ही दिया हो। वास्तव में इस मामले को पहली पायदान पर रखने की जवाबदेही केंद्र और सरकार की ही है। केंद्र और सूबाई सरकारों को चाहिए था कि वे इस मामले में लगातार ही जनजागरूकता फैलाने का काम करते रहते। छोटा परिवार सुखी परिवार जैसे नारे आज लोगों की स्मृति से विस्मृत ही हो चुके हैं।

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