रचा जा रहा है गुर्जरों को विदेशी सिद्घ करने का षडय़ंत्र

gurjarराकेश कुमार आर्य

गुर्जर जाति प्रारंभ से ही पराक्रमी देशभक्त और वैदिक संस्कृति के प्रति परम आस्थावान रही है। यह जाति भारत की वैदिक संस्कृति की रक्षार्थ सदा ही संघर्षशील रही है। यही कारण है कि इसने भारत पर आक्रमण करने वाले मुस्लिमों का देर तक और जमकर प्रतिरोध किया। यह गौरव केवल इसी जाति के लिए जाता है जिसने निरंतर 300 वर्ष तक विदेशी आक्रांताओं को भारत की सीमा में प्रवेश नही करने दिया था। अपने धर्म और अपनी संस्कृति के प्रति भारत के लोगों की असीम श्रद्घा को देखकर ही अलबरूनी को यह लिखना पड़ा था-

”हिन्दू प्राय: हर बात में हमसे भिन्न है। उनकी भाषा भिन्न है और भाषा की भिन्नता अरबों के साथ उनकी निकटता में सबसे बड़ी बाधा है। धर्म की दृष्टि से भी वे हमसे भिन्न है। जिन बातों पर उनका विश्वास है हम उनमें से किसी को भी नही मानते। इसी प्रकार हमारे जो धार्मिक विश्वास हैं, उनमें से कोई भी उन्हें मान्य नही है।….. हिंदुओं और मुसलमानों में रहन-सहन

, खानपान इस सीमा तक भिन्न है कि हिंदू लोग अपने बच्चों को हमारे नाम से हमारे वस्त्रों से और हमारे तौर तरीकों से डराते हैं, और हमें शैतान की संतान बताकर हमारे प्रत्येक कार्य को उन सभी कार्यों के विरूद्घ बताते हैं, जिन्हें वे अच्छा और समुचित मानते हैं। हिंदुओं में आत्मगौरव की भावना इतनी गहरी है कि पृथ्वी पर उनके देश के समान कोई देश नही है उनके समान कोई जाति नही है। उनके समान कोई धर्म नही है, और उनके शास्त्रों के समान कोई शास्त्र नही है।” हमने अलबेरूनी का यह कथन यहां जानबूझकर उद्घृत किया है। इसका कारण है देश में कुछ लोगों ने भारत के इतिहास के विकृतीकरण और विकृतीकरण से विलोपीकरण की एक प्रक्रिया बहुत देर से चला रखी है। विकृतीकरण से विलोपीकरण की इस प्रक्रिया के अंतर्गत कुछ लोगों ने यह भी कहना आरंभ किया है कि भारत में सभी जातियां विदेशी हैं। अर्थात यहां सभी विदेशी हैं। उनमें गुर्जर भी सम्मिलित हैं। ऐसी मान्यता से उन लोगों को लाभ मिलना अनिवार्य है जो वास्तव में विदेशी हैं और हमारे मध्य रहकर देश को तोडऩे की गतिविधियों में संलिप्त रहते हैं।
इस देश को मूल निवासी वे सब हैं, जो इस देश की प्राचीन वैदिक संस्कृति के प्रति समर्पित हैं और इस देश के स्वाभाविक रूप से अपनी पितृभू: (पूर्वजों की भूमि) और पुण्य भू: (पवित्र भूमि) मानते हैं। इस विषय में गुर्जर सबसे आगे हैं। अलबेरूनी के उपरोक्त कथन पर तनिक पुन: विचार कीजिए वह कहीं भी यह नही कहता है कि जो लोग यहां बाहर से आये हैं उन्हें छोडक़र इस देश में मूल निवासी हमसे (अर्थात मुसलमानों से) घृणा करते हैं यह मुस्लिम इतिहासकार केवल अपनी जाति या मजहब के लोगों को ही विदेशी मान रहा है। शेष सारे भारतवासियों को वह भारतीय के नाम से ही संबोधित कर रहा है। वास्तव में भारत की राष्ट्रीय माला को छिन्न भिन्न करने के उद्देश्य से इस देश में कुछ लोगों ने यह अभियान सा चलाया हुआ है कि यहां की जातियों को विदेशी सिद्घ करो और अपना उल्लू सीधा कर जाओ। इन लोगों के बिछाये जाल में जो लोग फंस रहे हैं वे अधिक देशघाती हैं। हमें शत्रु की चालों से सावधान रहने की आवश्यकता है। इन लोगों ने इस देश के मूल निवासियों को प्रारंभ में तो हिंदू कहा-पर जब हिंदू से काम नही चला तो फिर हिंदू को जातियों में तोड़ तोडक़र प्रस्तुत करना आरंभ किया और जब देखा कि जातीय आधार पर भी ये लोग बंट नही रहे हैं तो फिर कई जातियों को विदेशी घोषित करना आरंभ किया। जिससे हिंदू रूपी माला को नष्ट भ्रष्ट किया जा सके। षडय़ंत्र गहरा है और इसके पीछे जो उद्देश्य छिपा है वह तो और भी अधिक गहरा है। गुर्जरों को इस षडय़ंत्र को और इसके पीछे के उद्देश्य को ही समझने की आवश्यकता है।

वैसे ऐसे कई विद्वान हैं जिन्होंने गुर्जरों को विदेशी न मानकर भारतीय मानने की तथ्यात्मक विवेचना की है। परंतु हमने उनकी इस तथ्यात्मक विवेचना को अधिक गंभीरता से नही लिया है। इसका कारण यह रहा है कि हमने इतिहास को इतिहास की भांति लेने का कभी प्रयास नही किया है। कुछ लोगों ने चोरी कर करके पीएचडी की उपाधियां ले लीं और बिना तार्किक विवेचना के और तथ्यात्मक विश्लेषण के बिना भारत को समझें, भारत के विषय में बोलना आरंभ कर दिया। ऐसे लोगों से देश को वास्तव में खतरा रहा है। यदि भारत को वास्तव में समझा जाए और वास्तव में इसका इतिहास लिखा जाए तो सारे भूमण्डल का इतिहास इस भारत देश का इतिहास होगा। क्योंकि भारत को अपना इतिहास कल परसों से आरंभ न करके उस दिन से आरंभ करना होगा जिस दिन सृष्टि की उत्पत्ति हुई। इस इतिहास में भारत का वह सारा आत्मगौरव समाहित होगा जो इसके विश्व साम्राज्य को स्पष्ट करता हो। भारत के उस स्वर्णिम अतीत की ओर संकेत करते हुए वीर सावरकर लिखते हैं :-”साधारणतया सन 550 के बाद हिंदू राजाओं ने सिंधु नदी को विभिन्न मार्गों से लांघकर आज जिन्हें बलोचिस्तान, अफगानिस्तान, हिरात, हिंदूकुश, गिलगित, कश्मीर इत्यादि कहा जाता है और जो प्रदेश सम्राट अशोक के पश्चात वैदिक हिंदुओं के हाथ से यवन, शक हूण आदि म्लेच्छों ने छीनक रलगभग पांच सौ वर्ष तक अपने अधिकार में ले रखे थे वे सिंधु नदी के पार के समस्त भारतीय साम्राज्य के प्रदेश के उन सभी म्लेच्छ शत्रुओं को ध्वस्त करते हुए वैदिक हिंदुओं ने पुन: जीत लिये। एक समय ऐसा भी था जब कश्मीर के उस पार मध्य एशिया के खेतान में भी हिंदू राज्य प्रस्थापित थे। इतिहासकारों के अनुसार गजनी में भी राजा शिलादित्य का शासन था।” इतिहासकार स्मिथ कहता है-”हिंदुओं के हाथों, मिहिर कुल की पराजय तथा हूणशक्ति के संपूर्ण विनाश होने के उपरांत लगभग पांच शताब्दी तक भारत ने विदेशी आक्रमणों से मुक्ति का अनुभव किया। भारत के इन राजाओं के विश्व विजयी अभियानों को बड़ी सावधानी से इतिहास से हटा दिया गया है।”

आज आवश्यकता अपने इसी विश्व साम्राज्य पर अनुसंधान करने की है कि हमारा शासन कहां से कहां तक चलता था? जो गुर्जर लेखक विदेशी षडय़ंत्र के शिकार होकर अपना मूल विदेशों में खोज रहे हैं, उन्हें तनिक विचार करना चाहिए कि बलूचिस्थान, अफगानिस्तान, तुर्कीस्थान, कुर्दिस्थान, अर्वस्थान, कजाकिस्थान, उजबेकिस्थान आदि शब्दों में ‘स्थान’ संस्कृत सूचक प्रत्यय क्यों लगा है? यह प्रत्यय बता रहा है कि अपने आपको विदेशी न बताकर विदेशों को भी भारतीय बताने की तैयारी करो। प्रमाण और साक्ष्य आपके पास है तो उन्हें प्रस्तुत करने में हिचक किस बात की? आज का ब्रह्मदेश (म्यांमार) जाबा, सुमात्रा, मलय, सिंहपुर (सिंगापुर) इराक, ईरान आदि सीधे-सीधे संस्कृत शब्द हैं। अभी हाल ही में एक शोध से स्पष्ट हुआ है कि 1000 वर्ष पूर्व तक रूस हिंदू देश था। वहां पर ईसाईकरण की प्रक्रिया चली तो वहां के मूल निवासी हिंदुओं को या तो मारा गया या फिर ईसाई बना दिया गया।

1250 वर्ष पूर्व तक भी हमारा प्राचीन आर्यावत्र्त बहुत ही विशाल था जिसमें आज का ईरान, इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, रूस, तिब्बत, नेपाल, बर्मा, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, इंडोनेशिया आदि देश सम्मिलित थे। इस आर्यावर्त को खोजिए तो आपको अपना मूल मिलता चला जाएगा और इस भ्रांति का निवारण भी होता जाएगा कि इतने विशाल भूखण्ड में कहीं पर भी उत्पन्न होने वाले लोग भारतीय ही थे एक ही देश के लोग थे। जैसे आज कश्मीर में रहने वाला व्यक्ति भी भारतीय है और तमिलनाडु में रहने वाला व्यक्ति भी भारतीय है। वैसे ही कभी जार्जिया या टर्की में रहने वाला व्यक्ति भी भारतीय था और चीन या ब्रहमदेश में रहने वाला हर व्यक्ति भारतीय था। इस विशाल भूखण्ड में चाहे कहीं पर भी किसी भारतीय का शासन रहा हो उसने वैदिक संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए ही कार्य किया। इस सारे भूखण्ड को अपना मानकर कार्य किया। इस विशाल भूखण्ड पर जब अरब के लोगों ने अपना मत थोपने के लिए आक्रमण किया तो यहां के लोगों ने उसका भरपूर प्रतिरोध किया। यदि यहां रहने वाले लोग विशेषकर गुर्जर विदेशी होते या उन्हें विदेशी मानने का विचार समाज में प्रचलित होता तो ये लोग विदेशियों का स्वागत करते और उनसे कोई संघर्ष अपनी पितृभू: और पुण्यभू: को स्वतंत्र कराने या स्वतंत्र रखने के लिए कदापि नही करते। पर हम देखते हैं कि गुर्जरों के प्रतिहार वंश के गुर्जर सम्राट मिहिर भोज ने विदेशी आक्रांताओं को भगाने और अपनी पवित्र भूमि भारत से दूर रखने को जीवन भर संघर्ष किया। आज का अफगानिस्तान बहुत देर तक विदेशी आक्रांताओं से सुरक्षित रह सका था तो उसका एक ही कारण था गुर्जरों की वीरता। आज भी अफगानिस्तान गुर्जरों के उस ऋण से अपने आपको ऋणी मानता है तभी तो वहां के राष्ट्रगान में सम्मान के साथ गुर्जर शब्द रखा गया है।

समय इतिहास के सकारात्मक अनुसंधान का है। नकारात्मक शोध प्रबंधों से हम अपना ही अहित कर रहे हैं। सारी ऊर्जा इस बात पर व्यय की जानी चाहिए कि हमारा राज्य कहां से कहां तक था, और सारे विश्व में ऐसे कौन-कौन से प्रतीक चिन्ह हैं जो हमारे स्मारक के रूप में हमारा गुणगान कर रहे हैं? यह नही होना चाहिए कि हम तो विदेशी रहे हैं और इसलिए हमारा संबंध आज भी विदेशों से है। यह सोच हमारा विनाश कर देगी और जिस संस्कृति की रक्षा के लिए पीढिय़ों से हम संघर्ष करते आये हैं वह वैदिक संस्कृति विश्व से मिट जाएगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,501 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress