समाज

अदालत का फैसला और मेढकों की टर्र-टर्र

-आवेश तिवारी

बारिश हुई और जैसी उम्मीद थी मेढक निकले और टर्र-टर्र करने लगे, अगर इन मेढकों कि मानें तो अदालती फैसला भी समय और परिस्थितियों को देखकर किया गया है। पाकिस्तान से लेकर हिंदुस्तान तक, हर जगह मौजूद इन मेढकों की निगाह में ये देश हिंदुस्तान, और इस देश की सारी व्यवस्थाएं पूरी तरह से भष्ट हैं और सिर्फ ये बचे हैं जो दीपक लेकर उजाले की तलाश में निकल पड़े हैं। पाकिस्तान में ये हिंदुस्तान के झंडे जलाते हुए नजर आयेंगे तो हिंदुस्तान में अखबारी कालमों और इंटरनेट ने इन्हें कहीं भी निपटने की आजादी दे दी है। ये लोग जानबूझ कर ऐसा वातावरण पैदा कर रहे हैं जिसमे ये डर लग रहा है कि अगर कोई भी ये बोलेगा कि अदालत का फैसला सही है तो वो मुस्लिम विरोधी घोषित कर दिया जायेगा। इन्हें शर्म नहीं आती कि अब तक इस मामले पर ९० साल की उम्र में भी ताल ठोककर खड़े रहे चचा हाशिम फैसले से बेहद खुश हैं और बोल भी दिए हम आगे नहीं लड़ने जा रहे, लड़ना हो तो वफ्फ़ बोर्ड लड़े।

चलिए, डरते हुए मान लेते हैं कि अदालत का फैसला पूरी तरह से गलत, निराधार और हिन्दुओं के तुष्टिकरण के लिए है .अब आप ही बताएं ईमानदार फैसला कौन देगा? आप? इस देश के वामपंथी? या आसमान से कोइ निर्णय टपकेगा और हिन्दू मुस्लिम एक दूसरे की गलबहियां डालने घूमने लगेंगे। अगर देश है तो न्याय व्यस्था का होना भी लाजमी है और न्याय हमेशा सबको संतुष्ट करे ये भी संभव नहीं है, एक अपराधी भी फांसी की सजा कबूल नहीं करना चाहता। न्याय बीजगणित के समीकरणों की तरह भी नहीं होता कि जिसमे अ+ब = ब+अ ही होता हो। अगर सही मायनों में इस निर्णय का विरोध करना चाहते हैं तो देश की न्याय व्यवस्था से असहमति के बावजूद सभी विरोधियों को जिनमे ज्यादातर हिन्दू पत्रकार और साहित्यकार हैं (ब्राम्हण और दलित पत्रकारों पर चर्चाओं के इस दौर में ये चर्चा बेईमानी नहीं) फैसले के विरोध में क्यूँकर सुप्रीम कोर्ट नहीं जाना चाहिए?. बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर अब तक बुद्धिजीवियों की जमात से जितनी भी आवाजें उठी है ,सारी की सारी नेपथ्य से थी, उनका कम से कम मेरी नजर में कोई महत्त्व नहीं है।

ये हमारे समय का संकट है, हमारा रचा हुआ संकट कि इस देश में हिन्दू शक्ति और मुस्लिम समुदाय निरीहता का प्रतीक बन गया है जो हिन्दुओं के जुल्मो-सितम पर आह भी नहीं कर सकता और तो और राज्य भी उनके शोषण और उत्पीडन का औजार बन गया है, ऐसा होता रहा है ये सच है। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि आजादी के पहले से और आजादी के बाद चाहे अंग्रेज रहे हों या फिर लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी सरकारें, सभी ने मुसलामानों के शोषण और उत्पीडन के साथ साथ उनका अतिरिक्त पोषण भी किया है, ये बाद की बात है इस ठगी में देश के मुसलमान ने अंतत सिर्फ और सिर्फ खोया है। साथ में ये भी एक बहुत बड़ा सच है कि इस हिंसा-प्रतिहिंसा में आम आदमी कभी शामिल नहीं रहा, विभाजन के समय या फिर बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय हिन्दू और मुस्लिम नेता जिसे चाहे जैसे चाहे इस्तेमाल कर ले गए। अब यही काम देश के बुद्धिजीवी कर रहे हैं।

अयोध्या मामले पर अदालत के फैसले के २४ घंटे बाद मैंने देश दुनिया के लगभग सभी हिस्सों के अखबारों की वेबसाईट को पढ़ा, अजीब बात ये रही कि मेरी खुद के उम्मीद के बिलकुल उलट न सिर्फ अरब देशों में छपने वाले अखबारों ने बल्कि पाकिस्तानी मीडिया ने भी इस फैसले की तारीफ़ की, अपवाद हर जगह होते हैं। हमारे यहां मेरे अपने देश में अभिव्यक्ति का संकट इतना गहरा है कि मैंने इस विषय पर किसी से चर्चा तक नहीं की, मेरे लिए ये मुश्किल बहुत बड़ी है हाथों में लाठी लेकर बुद्धिजीवियों की जमात सामने खड़ी है कि कुछ बोलूं और वो मेरा सर फोड़ देंगे। जिस दर्द और जिस दहशत को लेकर देश का मुसलमान जिया करता थाये सब लिखते वक़्त हम उस दर्द को महसूस कर रहे हैं, समय बदल गया है अब डरने की हमारी बारी है। उनका डर व्यवस्था से था हमारा बुद्धिजीवियों से है, अब अजान और मंदिर के घंटों के समवेत स्वरों की बात करने वाले नजर नहीं आते, घंटों का विरोध फेशन बन गया है और खुद को सेकुलर और मानवतावादी साबित करने की पहली शर्त।