“सृष्टिकर्ता ईश्वर की आज्ञाओं का प्रचारक-प्रसारक है आर्यसमाज”

0
264

मनमोहन कुमार आर्य,

आर्यसमाज एक संगठन है जिसकी स्थापना वेदों के उच्च कोटि के विद्वान, योगी व आप्त पुरुष ऋषि दयानन्द सरस्वती ने मुम्बई में 10 अप्रैल, 1875 को की थी। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सन् 1863 से आरम्भ करके सन् 1883 में मृत्यु पर्यन्त अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि के लिए सत्य सनातन ईश्वरीय ज्ञान वेदों के प्रचार व प्रसार का कार्य किया। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने से इसमें जो विधेय व निषेध शिक्षायें, आज्ञायें व प्रेरणायें हैं, वह सृष्टिकर्ता ईश्वर की ओर से हैं जो सब मनुष्यों के कल्याण के लिए ईश्वर ने अपने ज्ञान वेदों के रूप में सृष्टि के आरम्भ में उच्च कोटि की चार पवित्र ऋषि-आत्माओं अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को प्रदान की थीं। वेद ईश्वर का अपना संविधान है जिसके अनुसार वह जीवात्माओं को सुख-दुःख, उन्नति व दण्ड तथा नाना प्रकार की मनुष्यादि योनियों में जीवात्माओं को जन्म देता है। जो मनुष्य ईश्वर, वेदज्ञान व वेद के सत्य-अर्थों के प्रचारक ऋषियों के ग्रन्थों को नहीं जानता, नहीं मानता और पालन नहीं करता उसे उसी प्रकार से दण्ड व पुरस्कार मिलता है जिस प्रकार से कि किसी देश का राजा अपने देश के संविघान की विधिक व निषिद्ध आज्ञाओं का पालन करने व न करने वालों को देता है। जो मनुष्य अच्छे काम करते हैं वह पुरस्कृत होते हैं और जो निन्दनीय व अवज्ञा के कार्य करते हैं वह दुःख प्राप्त कर दण्डित होते हैं। यही कारण था कि सृष्टि के आरम्भ काल तक पूरे विश्व में वेदों की ही परम्परा रही है। सभी मनुष्य वेदों की आज्ञाओं का पालन करते थे और स्वस्थ, निरोग और दीर्घायु होते थे और मृत्यु होने पर उनकी आत्मा उन्नति को प्राप्त होती थी।

 

यह भौतिक सृष्टि वा जगत न तो मनुष्यों ने बनाया है और न यह स्वयं बन सकता है। यह एक ऐसी सत्ता से बन सकता है जिसके पास पूर्ण ज्ञान हो और जो सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान, नित्य, अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी आदि सभी गुणों से युक्त हो। ऐसी ही सत्ता को ईश्वर का नाम दिया गया है। उसके अन्य अनेक नाम गुण, कर्म, स्वभाव व सम्बन्ध वाचक हैं। ऐसे ईश्वर का यदि प्रत्यक्ष करना हो तो प्रथम तो यह समस्त जगत ही उसकी रचना व काव्य है। इसे देखने और विचार करने से वह ईश्वर हमारी हृदय गुहा में दर्शन देते हैं। दर्शन का अर्थ भी हमें पता होना चाहिये। हम किसी व्यक्ति को आंखों से देखते हैं तो उसे ही दर्शन कहा जाता है। क्या इतना मात्र ही दर्शन होता है। दर्शन में तो हम उसको सुनते हैं, वह हमें सुनता है, हम कुछ पूछते हैं वह बताता है, उसके गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान भी उसको जानने के लिए आवश्यक होता है तभी हम कह सकते हैं कि हमने उसके दर्शन किये हैं व उसको जाना है। जानना आंखों से ही नहीं होता अपितु अन्य इन्द्रियों कान से शब्द वा वाणी को, स्पर्श से शीतोष्ण आदि का ज्ञान, गन्ध आदि से भी मनुष्य व पदार्थों आदि को जाना जाता है। हम दूरभाष यन्त्र पर किसी के शब्दों को सुनकर ही उसे पहचान लेते हैं। यहां आंखों की आवश्यकता नहीं होती। दूरभाष पर किसी बोलने वाले परिचित व अपरिचित व्यक्ति का जो ज्ञान होता है वह भी निश्चयात्मक ज्ञान होता है। यदि सन्देह हो तो उससे कुछ ऐसे प्रश्नों को भी पूछा जा सकता है जिसे वह व हम दोनों ही जानते हों, अन्य न जानते हों।

 

परमात्मा अपने गुणों मुख्यतः सृष्टि रचना व पालन आदि के द्वारा प्रकाशित हो रहा है। जब हम किसी जूते चप्पल को देखकर यह मान सकते हैं कि इसकी रचना व उत्पत्ति कुछ मनुष्यों द्वारा फैक्टरी में मशीनों व उपादान कारणों से की गई है तो इस सृष्टि को देखकर उसी प्रकार से ईश्वर का ज्ञान हमें होना चाहिये। यहां गुण-गुणी का सिद्धान्त भी ईश्वर सिद्धि में सहायक होता है। हम किसी पदार्थ का ज्ञान उसकी आकृति मात्र से नहीं अपितु निश्चयात्मक ज्ञान आकृति सहित उसके गुणों से होता है। यदि विज्ञान की भाषा में कहें तो गुण भिन्न-भिन्न संरचनाओं वाले परमाणुओं से मिलकर बने अणुओं में विद्यमान रहता है। किसी तत्व का परमाणु व परमाणुओं से मिलकर बना यौगिक का एक अणु इतना सूक्ष्म होता है कि वह आंखों व यन्त्रों से नहीं देखा जा सकता। किसी वैज्ञानिक ने किसी तत्व के परमाणु को आंखों से आज तक नहीं देखा परन्तु विज्ञान व सभी वैज्ञानिक परमाणु के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं क्योंकि उनके गुण उनसे बने पदार्थों में पाये जाते हैं। वायु में भी विभिन्न गैसों के अणु विद्यमान रहते हैं परन्तु हम उन्हें न देखने पर भी मानते हैं। यदि हमें गर्मी लगती है तो वायु में अग्नि तत्व की प्रधानता और यदि सर्दी लग रही हो तो वह वायु में अग्नि तत्व की न्यूनता व जल तत्व की प्रधानता के कारण होता है। अतः गुणों से गुणी व पदार्थ जाना जाता है। इसी प्रकार इस सृष्टि में जो गुण प्रकाशित हो रहे हैं वह गुण जिस निमित्त कारण से उत्पन्न हुए हैं उसी का नाम परमात्मा है। यह ज्ञान भी अनुमान व प्रत्यक्ष दोनों प्रतीत होता है।

 

संसार में मनुष्य आदि प्राणियों की भिन्न-भिन्न प्रकार की आकृतियों, उनके गुण, कर्म व स्वभाव को देखकर भी हमें इनके रचयिता, उत्पत्तिकर्ता व जन्म देने वाली अलौकिक व अदृश्य ईश्वरीय सत्ता का ज्ञान होता है। मनुष्यादि प्राणियों के शरीर में ईश्वर से भिन्न एक सत्ता जीव अवश्य होती है परन्तु वह चेतन जीव अपना जन्म स्वयं निर्धारित नहीं करते और न वह अपने शरीर आदि की रचना ही करते हैं। इससे भी जन्म देने, पालन करने व मृत्यु देने वाले ईश्वर का ज्ञान होता है। वह ईश्वर ही इस सृष्टि की रचना करता है। रचना जिसके लिए की गई है, उसे जीव वा जीवात्मा कहते हैं। जीवात्मा एक सत्य व चेतन सत्ता है। इस जीवात्मा को उसके कर्मानुसार सुख-दुःख देने के लिए ही ईश्वर ने सृष्टि को रचा है। यह जीवात्मा एकदेशी, ससीम व अल्पज्ञ है। यह अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, जन्म-मरण धर्मा है। यह जीवात्मा उपदेश, स्वाध्याय, अध्ययन आदि से अपने ज्ञान को बढ़ा कर ईश्वर सहित सृष्टि में विद्यमान सभी पदार्थों को जानने में समर्थ होती है। जीवात्मा का ईश्वर से व्याप्य-व्यापक, साध्य-साधक, उपास्य-उपासक, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र, गुरू-शिष्य आदि का सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध शाश्वत व सनातन है और सदा रहेगा।

 

सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों का ज्ञान सर्वान्तर्यामी व सर्वव्यापक परमात्मा ने चार ऋषियों की हृदय गुहा में उन्हें प्रेरणा द्वारा दिया था। वैज्ञानिक किसी पदार्थ व उसके विज्ञान को जानने के लिए उसका अध्ययन करते हैं। चिन्तन, विचार, मनन सहित तप व पुरुषार्थ करते हैं। वह अपने अध्ययन में खो जाते हैं। तब उन्हें धीरे-धीरे उस वस्तु के विषय में ज्ञान होना आरम्भ हो जाता है। हमें इसका कारण ईश्वरीय प्रेरणा ही प्रतीत होती है। यदि ईश्वर न हो और वह प्रेरणा न करे तो आत्मा जो अध्ययन से पूर्व खोजे हुए ज्ञान को नहीं जानते और अध्ययन की पुस्तकों व विद्वानों को भी उन नई अनुसंधान की बातों का ज्ञान नहीं होता तो वैज्ञानिक व चिन्तक के मस्तिष्क में वह ज्ञान आता कहां से है? हमें इसका कारण केवल ईश्वरीय प्रेरणा ही प्रतीत होती है। अन्य कोई कारण प्रतीत नहीं होता। विचार करने पर यह भी प्रतीत होता है जिस वैज्ञानिक को शोध व अनुसंधान में सफलता मिलती है वह उस वैज्ञानिक के तप, पुरुषार्थ, अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण व उस विषय के उच्च स्तरीय ज्ञान के कारण प्राप्त होती है। वैदिक विद्वान इस विषय में मार्गदर्शन कर सकते हैं।

 

वेदों में ईश्वर की मनुष्यों के कल्याण के लिए जो आज्ञायें व कर्तव्य आदि हैं, आर्यसमाज उनका प्रचार कर उन्हें सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने की प्रेरणा करता है। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का स्वरूप प्रतिपादित है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य, मनुष्य जीवन का लक्ष्य और मनुष्यों के कर्तव्यों-अकर्तव्यों का प्रतिपादन भी वेदों में है। ईश्वर के इन विधिक निषिद्ध आज्ञाओं का प्रचार ही आर्यसमाज का उद्देश्य है अर्थात् सत्य का प्रतिपादन करना और उसे मनुष्यों से स्वीकार कराना। यही कार्य ऋषि दयानन्द जी ने अपने जीवन में किया व उनके सभी अनुयायी करते हैं। सृष्टि के आरम्भ से ऋषियों व योगियों ने भी यही कार्य किया है। वेदों में निहित ईश्वरीय शिक्षाओं, आज्ञायों प्रेरणाओं का प्रचार प्रसार करना ही आर्यसमाज का उद्देश्य है और संसार के प्रत्येक मनुष्य का भी यही उद्देश्य है। जो विद्वान व मनुष्य ऐसा करते हैं वह साधुवाद के पात्र हैं और जो नहीं कर रहे हैं उन्हें वेदों की परीक्षा कर इस कार्य को करना चाहिये। आर्यसमाजेतर मनुष्य जिन मतों को मानते हैं, उनकी मान्यताओं व सिद्धान्तों के सत्यासत्य का अध्ययन कर उनकी तुलना वेद से करनी चाहिये। वह पायेंगे कि वेद ही समस्त सत्य ज्ञान व मान्यताओं का सबसे प्राचीन कोष है व मत-मतान्तर के ग्रन्थ सत्यासत्य मान्यताओं व अनेक दोषों से युक्त हैं जिससे मनुष्यों का पूर्ण हित नहीं होता। ईश्वर की आज्ञाओं का पालन प्रचार करने से आर्यसमाज विश्व का सर्वश्रेष्ठ संगठन संस्था है। विश्व का कल्याण करने के लिए सबको आर्यसमाज से जुड़कर सहयोग करना चाहिये।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress