कैसी पलटी है समय की धार।
हमसे रूठी हमारी ही सरकार।
उतर चुका सब चुनावी बुखार।
नहीं अब कोई जन सरोकार।
अनसुनी है अब सबकी पुकार।
बहरा हो गया हमारा करतार।
दमक रहा है बस शाही दरबार।
झोपड़ों में पसरा और अंधकार।
सुन लो अब भी एक अर्ज़ हमार।
आपकी पालकी के हमीं कहार।
जब फिर नाव पहुंचेगी मंझधार।
तब कौन बनेगा फिर तारणहार।
Nice poem,
Samay ki darkinar hai,
har koi yhan palan har hai,
lekin palna hi nahi!