बहादुरशाह जफर के ज़माने की बकरीद

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रामकृष्ण

बहादुरशाह का राज्य धर्मनिरपेक्ष नहीं था, उसके

आधारस्तंभ हमेशा शरीयत के कानून ही रहे. तब भी

हिन्दू विश्वास और मान्यताओं की रक्षा करने में वह जिस

ईमानदारी के साथ सन्नद्ध रहा उसकी कल्पना करना भी

आज के धर्मनिरपेक्ष नेताओं के लिये सहज-संभव नहीं.

भारत के अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह जफ़र के राज्यकाल में बकरीद के अवसर पर गाय, भैंस, बैल और बछड़ों की कुरबानी कानूनी रूप से प्रतिबंधित थी, और उन दिनों अगर कोई व्यक्ति इनकी जि़बह करता हुआ पाया जाता था तो उसे तोप से उड़ा देने का प्रावधान था – इस तथ्य से परिचित हैं क्या आप?

अंगरेज़ों द्वारा प्रकाशित प्रेस लिस्ट आफ़ म्यूटिनी पेपर्स में ही नहीं, बल्कि तारीख़े-उरूज़े-सल्तनते-इंगलिशिया जैसे विश्वसनीय इतिहास-ग्रंथों में भी बार बार इस बात का उल्लेख आता है कि बहादुरशाह के शासनकाल में बकरीद के आसपास गोहत्या करने वाले व्यक्तियों को बग़ैर मुकद्दमा चलाये मृत्युदण्ड दिया जाता था. इस दिशा में इन पुस्तकों में उद्धृत आदेश-निदेश इस बात के सूचक हैं कि बादशाह गोवध के प्रति हिन्दू जनमानस की अदम्य निष्ठा का कितना सम्मान करते थे.

तारीख़े-उरूज़े-सल्तनते-इंगलिशिया नामक ग्रंथ के पृष्ठ 688 पर स्पष्ट रूप से अंकित है कि सुप्रसिद्ध विद्वान मौलाना फ़ज़ले-हक़ ख़ैराबादी ने बहादुरशाह के प्रशासन के लिये जो संविधान तैयार किया था उसकी प्रथम धारा यही थी कि बादशाह के राज्य में कहीं भी गाय जि़बह न की जाये. इसी तरह उस काल के सुप्रसिद्ध ख़बरनवीस जीवनलाल ने अपनी बहुचर्चित डायरी में दिनांक 28 जुलाई 1857 के अन्तर्गत लिखा था. बादशाह ने हुक्म दिया कि जनरल तथा फ़ौज़ के दूसरे आला अफ़सरान के पास हिदायती ख़त भेजे जायें कि ईद के मौक़े पर कोई गाय जि़बह न की जाये और ख़बरदार किया कि अगर कोई मुसलमान ऐसा करता पाया जाता है तो उसे तोप के मुंह से उड़ा दिया जाये. यही नहीं, किसी मुसलमान ने गाय की कुरबानी देने के लिये अगर किसी को कोई मशविरा दिया तो उसे भी सज़ाए-मौत दी जाये.

जीवनलाल ने अपनी डायरी में आगे लिखा था, दरबार में मौजूद हकीम एहसानुल्लाह ने जब इस हुक्म की मुख़ालिफ़त करते हुए सलाह दी कि उसे शाया करने के पहले उसके बारे में मौलवी-मुल्लाओं से सलाह-मशविरा करना ज़रूरी है तो बादशाह को बहुत गुस्सा आ गया और दरबार ख़त्म करते हुए वह फ़ौरन अपने महल में चले गये.

प्रेस लिस्ट आफ़ म्यूटिनी पेपर्स 3 एस (31) के अनुसार बादशाह के आदेश का पालन करते हुए उसी दिन, अर्थात 28 जुलाई 1857 को सेनापति ने घोषणा की थी – बहादुर शहर कोतवाल शहर को मालूम हो कि शाहंशाह के हुक्म के मुताबिक हर ख़ासो-आम को इत्तिला दी जाती है कि कोई भी मुसलमान शहर में ईदुल-ज़ुहा के मौके पर गाय की कुरबानी हरगिज़ न दे, और अगर कोई इस हुक्म की उदूली करके गाय की जि़बह करता हुआ पाया जायेगा तो उसे सज़ाए-मौत भुगतनी पड़ेंगी.

इसी दिन ज़ारी की गयी एक दूसरी घोषणा में कहा गया था – ख़ल्क ख़ुदा का, मुल्क बादशाह का, हुक्म फ़ौज़ के आला अफ़सर का. जो कोई इस मौसम में बकरीद या उसके आगे-पीछे गाय या बैल या बछड़ा या बछड़ी या भैंस या भैंसा लुका या छिपा कर अपने घर में जि़बह और कुरबानी करेगा वह आदमी हुज़ूर शाहंशाह का जानी दुश्मन समझा जायेगा और उसको मौत की सज़ा होगी. और जो कोई किसी पर इस बात की तोहमत और झूठा इलज़ाम लगायेगा तो हुज़ूर की तरफ़ से उसकी जांच की जायेगी, यानी अगर तोहमत का जुर्म साबित होगा तो उसको सज़ा होगी, नहीं तो जिसके ऊपर तोहमत लगायी गयी होगी उसको सज़ा मिलेगी, और इसमें जिसका जुर्म और कुसूर साबित होगा वह बेशक तोप से बांध कर उड़वा दिया जायेगा. – (प्रेस लिस्ट आफ़ म्यूटिनी पेपर्स, 3 एस (31).

उसी पृष्ठ पर अन्यत्र अंकित है : ख़ल्क ख़ुदा का, मुल्क बादशाह का, हुक्म फ़ौज़ के बड़े सरदार का. जो कोई ईद के आगे-पीछे, दिन में या रात में, या चुरा कर घर में गाय या बैल या बछड़ा या बछड़ी या भैंस या भैंसा जि़बह करेगा तो बादशाह का दुश्मन होगा और तोप पर उड़ा दिया जायेगा. और जो शक्स झूठ कहेगा कि किसी ने चुरा कर जि़बह किया है तो उसकी रोकथाम की जायेगी.

सेनापति द्वारा दिये गये इस आदेश का पालन करते हुए तत्कालीन शहर कोतवाल मुबारकशाह खां ने नगर भर में उसका ढिंढोरा पिटवा दिया था. उसके इस कृत्य पर सेनापति ने उसे पुनः लिखा था: बहादुर मुबारकशाह खां शहर कोतवाल को मालूम हो – क्योंकि तुमने कल शाही खत मिलते ही पूरे शहर में ढिंढोरा पिटवा दिया था और गाय की जि़बह और कुरबानी पर बंदिश लगा दी थी, इससे अब तुम्हें लिखा जाता है कि शहर के फाटकों पर इस तरह का मुकम्मिल इन्तज़ाम करो कि कोई भी गाय का ब्योपारी आज से बकरीद के तीन दिन तक शहर में गाय या भैंस बेचने के लिये न ला सके, और जिन मुसलमानों के घरों में गउएं पली हों उन्हें लेकर कोतवाली में बंधवा दिया जाये और गायों की पूरी हिफ़ाज़त की जाये. अगर कोई आदमी खुल्लमखुल्ला या छिपा कर गायों की अपने घर में कुरबानी करेगा तो यह बात उसकी मौत की वजह बनेगी. ईदुल-ज़ुहा के मौके पर गऊ-वध के बारे में इस तरह का इंतज़ाम हो कि गाय बिकने के लिये भी शहर में न आने पाये और पली हुई गउवों का भी जि़बह न हो. कोतवाली की ओर से इस बारें में जितनी भी कोशिशें की जायेगी वह हमारी ख़ुशी की बायस बनेगी. ज्य़ादा लिखने की ज़रूरत नहीं. (प्रेस लिस्ट आफ़ म्यूटिनी पेपर्स, 61, संख्या 245)

इस पत्र के उत्तर में शहर कोतवाल ने हज़रत जहांपनाह की सेवा में निवेदन करते हुए लिखा था: शाहंशाहे-आलम की खि़दमत में अर्ज़ है कि उन मुसलमानों के लिये जिनके घरों में गउए बंधी हैं जो यह हुक्म दिया गया है कि उन्हें मंगवा कर ईदुल-ज़ुहा के ख़तम होने तक कोतवाली में बंधवा दिया जाये, तो कोतवाली में इतनी जगह नहीं है कि चालीस-पचास गायें भी वहां खड़ी हो सकें. अगर शहर के सभी मुसलमानों के घरों की पली हुई गायें मंगायी जायेंगी तो उनके लिये जगह नहीं हो पायेगी. इस काम के लिये कोई बहुत बड़ी जगह या हाता होना चाहिए कि वहां वह छः सात दिनों तक बंद रहें, तो इस नमकख्वार की जानकारी में कोई ऐसी जगह नहीं है. गायों का मंगाया जाना उनके मालिकान के लिये भी ठीक या फ़ायदेमंद नहीं साबित होगा, इसलिये कि अक़लमंद और बेवकूफ़ सभी तरह के लोग होते हैं. इसमें गायों के मालिकों की बगावत का भी डर है और कहीं किसी दूसरी तरह की बात न खड़ी हो जाये, इसलिये अगर हुक्म हो तो थानेदार अपने अपने इलाके के मुसलमानों से जिन जिन लोगों के पास गायें हों मुचलके लेलें. जैसा हुक्म होगा वैसा किया जायेगा. परवरदिगार ख़ुदा आप पर हमेशा मेहरबान रहे और सूरज जैसी आपकी चमक में हरदम बढ़ोतरी करता रहे. – फि़दवी सैयिद मुबारकशाह खां कोतवाल, 7 जिलहिज्ज़ां अर्थात 29 जुलाई 1857 (प्रेस लिस्ट आफ़ म्यूटिनी पेपर्स, 3 एस, संख्या 44)

शहर कोतवाल के इस पत्र के संदर्भ में उसे हिदायत देते हुए बादशाह की ओर से उसे सूचित किया गया था – उन मुसलमानों के जिनके घरों में गायें हों नाम लिख लिये जायें और फिर उनसे यह मुचलके लिखवा लिये जायें कि वह न खुल्लमखुल्ला और न चोरी से गऊ-वध करेंगे. जिन घरों में गायें बंधी हों वह उसी तरह बंधी रहें. उन्हें तीन दिन तक दाना-चारा उसी जगह पर खिलाया जाये और उन्हें चरने के लिये हरगिज़ न छोड़ा जाये. उनके मालिकान को अच्छी तरह यह बात समझ लेनी चाहिए कि तीन दिन बाद अगर एक गाय भी गा़यब मिली या अगर किसी ने छिपा कर उनकी कुरबानी की तो वह सज़ा का हक़दार होगा और जान से मार डाला जायेगा. इस बात में बहुत ख़बरदार रहने की ज़रूरत है. गायों के कोतवाली में बंधवाने या उनके लिये अलग किसी जगह के इंतज़ाम करने की अब कोई ज़रूरत नहीं. – 29 जुलाई 1857.

टिप्पणी: सभी थानेदारों को हिदायत दी गयी. – 30 जुलाई 1857

स्मरणीय है कि यह सब पत्रव्यवहार मात्र एक दिन की अवधि-सीमा में किया गया था. आज के युग में जब संचार-व्यवस्था लाख गुनी अच्छी हो गयी है, किसी भी सरकारी आदेश-निदेश संबंधी उत्तर-प्रत्युर में महीनों का समय लग जाता है और तब भी पूरी तरह उसका कार्यान्वयन नहीं हो पाता.

बहादुरशाह का राज्य धर्मनिरपेक्ष नहीं था, उसके आधारस्तंभ हमेशा शरीयत के कानून रहे. इस तथ्य के बावजूद हिन्दू विश्वास और मान्यताओं की रक्षा करने में वह जिस ईमानदारी के साथ निरन्तर सन्नद्ध रहा उसकी आज के कथित धर्मनिरपेक्ष राजनेता कल्पना भी नहीं कर सकते. आज देश में हर रोज़ हज़ारों गाय और भैसों की हत्या की जाती है, लेकिन सरकार के बड़े से बड़े मंत्री में भी यह हिम्मत नहीं कि वह उसके विरोध में कोई क़दम उठा सके. संकीर्ण असांप्रदायिकता की अपेक्षा विराट सांप्रदायिकता अपने देशजन की भावनाओं का कितना ख़याल रख सकती है, यह बहादुरशाह के इन फ़रमानों से स्वतःसिद्ध है.

 

 

 

 

 

 

3 COMMENTS

  1. पठनीय लेख. इतिहास के छिपे हुए सच को उजागर करने के लिए साधुवाद.
    साथ भी इकबाल की सटीक टिप्पणी से १००% सहमत.

  2. इक़बाल जी बिलकुल सही फरमाया आपने कुर्बानी देने की यदि जरूरत है तो वह स्वयं अपने आप की दो
    ऐ खुदा मैंने तेरे नाम पर समाज को नफरत के शिव आज तक कुछ नहीं दिया इस लिए मै खुद को कुर्बान कर रहा हू

    बेचारे निरीह पशुओ की कुर्बानी दे कर अपनी आन बान शान को दिखने का जो ढोंग किया जाता है वह सबको पता है .
    जिनके घरो में नाजायज तरीके से पैसा कमाया जाता है फिर भी ३६५ में ३०० दिन ही दोनों वक्त का खाना नशीब होता है वो भी ईद उल जुहा पर १०००/ हजार का बकरा काट कर हर्ष मानते है धन्य है ऐसे लोग और धन्य है ऐसी मान्यताये जो कहती है कि खुदा को क़ुरबानी पसंद है .

    खुदा खैर करे

  3. आज ईद उल ज़ ुहा है। मुस्लिम भाई इस दिन जानवरों की कुर्बानी देते हैं। एक दूसरे को मुबारकबाद भी देते हैं। गैर मुस्लिम भाई भी अपने परिचित तो और दोस्तों को इस मौके पर बधाई देते हैं। एक सवाल मेरे ज़ेहन में हर साल आता है कि क्या बकरा, भैंस और उूंट काट देने से कुर्बानी का मकसद पूरा हो जाता है? इस्लाम की परंपरा के हिसाब से देखें तो हज़रत इब्राहीम ने तो खुदा की राह में अपने बेटे को कुर्बान कर दिया था। यह तो खुदा का करिश्मा था कि उसने उनकी कुर्बानी की भावना को क़बूल फरमा कर उनके बेटे की जगह एक दुंबा यानी जानवर को ज़िबह करा दिया था। तब से यह रस्म चली आ रही है। क्या इसका मतलब यह नहीं होता कि हम जानवर काटने के साथ अपने दिल में कुर्बानी का जज़्बा भी पैदा करें? क्या वह जज़्बा हमारी सोच में कहीं मौजूद है? जो लोग एक एक लाख के बकरे ख़रीद कर उसकी नुमाइश करते हैं क्या यह भावना उनके मन में है? जो लोग जानवर काट कर उसका गोश्त एक हिस्सा खुद, एक हिस्सा रिश्तेदारों और एक हिस्सा गरीबों को नहीं बांटते क्या वे कुर्बानी का उद्देश्य पूरा कर रहे हैं? किसी के घर मांस भेजो तो वह सवाल करता है कि बड़े का है या छोटे का? अगर जवाब मिला कि बड़े का तो वह कहता है कि उसे नहीं चाहिये। अगर आप कहते हैं कि छोटे का है तो वह कई बार उतना ही मीट आपको अपने यहां से बदलकर वापस दे देता है। अब सवाल है कि आपका कोटा फिर उतना का उतना ही रहता है? अब क्या करें? घर पर कितना इस्तेमाल कर सकते हैं? गरीबों को तलाश करें तो वे कम से कम हमारे क्षेत्र में तो काफी कम हैं। फिर इस कुर्बानी के मांस का क्या करें? असली बात है कि अपने परिवार, समाज और देश के लिये हमारे अंदर कुर्बानी देने की भावना पैदा हो न कि केवल जानवर ज़िबह कर ख़ानापूरी।

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