महत्वपूर्ण लेख विज्ञान

क्या ’ईश्वर कण’ ने दर्शन दिये ?

 विश्वमोहन तिवारी

हिग्ग्ज़ बोसान का विषय नितांत महत्वपूर्ण किन्तु उसका नाम ’ईश्वर कण’ ही गलत, और तो और यह नाम आध्यात्मिक तो नहीं ही है, वरन अवैज्ञानिक है । ईश्वर एक कण नहीं समस्त सृष्टि है। यह ठीक है कि ’ईश्वर कण’ ’हिग्ग्ज़ कण’ का ही लोकप्रिय नाम है, वैसे इसे मजाकिया या ’गिमिकी’ नाम कहना अधिक सही होगा क्योंकि जिन नोबेल सम्मानित वैज्ञानिक लेओन लेडरमैन ने यह नाम इसे दिया था वे स्वयं ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। उऩ्हें इसलिये तो क्षमा किया जा सकता है कि यह उऩ्होंने अज्ञान में दिया, किन्तु यह तो विज्ञान संगत भी‌ नहीं है। इतना बड़ा वैज्ञानिक भी नाम और दाम के चक्कर में आ गया !

’ईश्वर कण’ की खोज नहीं, वरन ’हिग्ग्ज़ बोसान’ की खोज का लगभग तीस वर्षों का प्रयास नाभिकीय अनुसंधान यूरोपीय संगठन (सर्न) के ’लार्ज हेड्रान कोलाइडर’ (विशाल हेड्रान (भारीकण) संघट्टक) की मदद से लगभग ( सही होने की सम्भावना मात्र 99.9999 %) सफ़ल हो गया है। इसके सही‌ होनो की इतनी उच्च सम्भावना इसलिये भी हुई कि दो स्वतंत्र प्रयोगों में यह देखा गया। वैज्ञानिक तब ही किसी‌ प्रयोग के परिणाम को सत्य मानते हैं जब उसकी सम्भावना 99.999999% हो और उसे किसी अन्य स्वतंत्र प्रयोग द्वारा संपुष्ट किया गया हो । वैसे भी इस परिणाम के विषय में अधिक सावधानी की आवश्यकता है क्योंकि सारा विश्व इसकी तरफ़ आँख लगाए देख रहा है। इसीलिये सर्न के प्रमुख निदेशक राल्फ़ डियेटर ह्यूएर ने कहा कि निश्चित कथन के लिये अभी उऩ्हें इसका अध्ययन करना पड़ेगा, इस समय वे इतना ही कह सकते हैं कि एक सामान्य व्यक्ति की तरह वे मानते हैं कि ’यह वही कण है’, अर्थात हिग्ग्ज़ बोसान के समान कण है। यह भी दृष्टव्य है कि न केवल विशाल हेड्रान संघट्टक विश्वकी विशालतम प्रयोगशाला है जो दस अरब डालर की लागत से निर्मित है, वरन यह प्रयोग भी विश्व का अधिकतम खर्चीला वैज्ञानिक प्रयोग है। यह ऐतिहासिक उपलब्धि तो निश्चित है क्योंकि हम सृष्टि के उस गहनतम तल पर पहुँच रहे हैं जहां अभी तक कोई नहीं जा सका है।

पिछली शताब्दी के मध्य भाग में पदार्थ के मूल कणों के विषय में बहुत खोजें हुईं, मूल कण वे कण हैं जो किसी अन्य कण से निर्मित नहीं हुए हैं। बहुत से मूल कण, यथा क्वार्क, लैप्टान ( जैसे न्यूट्रिनो, इलैक्ट्रान, म्युआन आदि) , तथा कुछ बोसान आदि कण खोजे भी‌ गए जिनके आधार पर भौतिकी का ’मानक प्रतिदर्श’ (स्टैन्डर्ड माडल) बना जिससे ब्रह्माण्ड के कार्य कलाप समझाए जाते हैं। किन्तु इनमें से कोई भी‌ सिधान्त कण पदार्थों में द्रव्यमान होने के कारण को नहीं समझा सकते थे । १९६४ में पीटर हिग्ग्ज़ ने ’हिग्ग्ज़ कण’ की परिकल्पना में कहा था कि ब्रह्माण्ड में सब जगह, शून्य में भी, हिग्ग्ज़ ऊर्जा क्षेत्र और हिग्ग्ज़ कण व्याप्त हैं (इस दृष्टि से शायद इसकी ’ईश्वर कण’ की संज्ञा बहुत अनुपयुक्त न हो)। समस्त दिक में, शून्य में भी, एक ’क्षेत्र’ (फ़ील्ड) है, जिसे हिग्ग्ज़ क्षेत्र कहते हैं, जो उपयुक्त दशाओं में पदार्थों को द्रव्यमान देता है। पदार्थ में द्रव्यमान का होना इस सृष्टि के लिये नितांत आवश्यक है। यदि पदार्थों में द्रव्यमान न हो तब तो समस्त कण या पदार्थ प्रकाश के वेग से भटकते ही रहेंगे। इस अवधारणा को प्रस्तुत करने में छ: वैज्ञानिकों का एक दल था, जिसके नेता स्काट पीटर हिग्ग्ज़ कहे जा सकते हैं। इस तथा कथित ईश्वर कण की खोज

’ईश्वर कण’ की संकल्पना सर्वप्रथम १९३० में श्री ओरोबिन्दो ने कविता ’इलैक्ट्रान’ में की थी :

The electron on which forms and worlds are built,

Leaped into being, a particle of God,

A spark from the eternal Energy split,

It is the Infinite’s blind minute abode.

१९३० में ज्ञात मूलकणों में सूक्ष्मतम कण इलैक्ट्रान ही था। ओरोबिन्दो ने इलैक्ट्रान में इस नामरूप विश्व का आधार देखा उस आधारभूत कण में शाश्वत ’ दिव्य ऊर्जा’ का एक स्फ़ुलिंग देखा, और अनंत का अदृश्य सूक्ष्म आवास देखा था। अत: उऩ्होंने कहा कि इलैक्ट्रान का उद्भव ईश्वर के कण के रूप में प्रस्फ़ुटित हुआ। ओरोबिन्दो उसे ईश्वर कण नहीं कहते क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड ही ईश्वर का विस्तृत स्वरूप है। क्या नास्तिक लेडरमैन ने हिग्ग्ज़ कण में ईश्वर देखा ?

कुछ वैज्ञानिक हिग्ग्ज़ बोसान के दिख सकने में भी संदेह करते आए हैं। स्टीफ़ैन हाकिंग ने हिग्ग्ज़ से १०० डालर की शर्त लगा ली थी कि यह नहीं दिखेगा, अब उऩ्होंने भी दुखपूर्वक मान लिया है कि वे शर्त हार गए हैं।

यह प्रयोग अद्वितीय है और अद्भुत है क्योंकि इसे स्विस और फ़्रैन्च भूमि के १०० मीटर के नीचे २७ किलोमीटर गोल सुरंग में किया गया है। इस सुरंग में एक विशेष नली है – ’महाचक्र’ – जिसमें प्रोटान या सीसे के आयनों आदि परमाण्विक कणों को लगभग प्रकाश के वेग पर पहुँचाकर उनमें मुर्गों की तरह टक्कर कराई जाती है, किन्तु यह टक्कर, मुगलकालीन मुर्गों की टक्कर के समान मनोरंजन के लिये नहीं, वरन उस टक्कर से उत्पन्न नए कणों की ’आतिशबाजी’ का सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है। क्वार्क्स के बने भारी परमाण्विक कण, जैसे प्रोटान, ’हेड्रान’ कहलाते हैं। इसीलिये इस भूमिगत ’महाचक्र’ का नाम ’लार्ज हेड्रान कोलाइडर’ ( विशाल भारी कण संघट्टक) है। इससे सभी वैज्ञानिकों ने बड़ी आशाओं तथा सफ़लताओं के साथ बहुत मह्त्वपूर्ण प्रयोग किये हैं जिनमें हिग्ग्ज़ बोसान (’ईश्वर कण’) की खोज सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगी।

क्या है यह हिग्ग्ज़ बोसान (ईश्वर) कण ?

एक तरफ़ तो विज्ञान प्रयोग में ’महान विस्फ़ोट’ करने के निकट पहुँच रही है, दूसरी तरफ़ कृत्रिम जीवन का निर्माण करने को तत्पर है, कितु उसे यह अभी तक समझ में नही आया है कि पदार्थों में द्रव्यमान कैसे आता है !! इस विषय में डा. हिग्ज़ की संकल्पना है, सिद्धान्त नहीं, ( जिसके अब सिद्धान्त बनने की सम्भावना ९९.९९९९ है) कि समस्त दिक में, शून्य में भी, एक ’क्षेत्र’ (फ़ील्ड) है, जो, उपयुक्त दशाओं में पदार्थों को द्रव्यमान देता है। उऩ्होंने कहा था कि हिग्ग्ज़ क्षेत्र में जब कोई भी‌ कण गतिशील होता है तब यह क्षेत्र उसका विरोध करता है, कुछ वैसे ही जैसे हवा में वस्तु के चलने पर विरोध होता है। ’हिग्ग्ज़ क्षेत्र का यह विरोध ही उस कण का दव्यमान है। जिस भी कण में द्रव्यमान है, उसे वह हिग्ग्ज़ क्षेत्र से प्रतिक्रिया करने पर प्राप्त हुआ है। अर्थात यदि हिग्ग्ज़ क्षेत्र नहीं होता तो हमें यह समझ में ही नहीं आता कि पदार्थों में द्रव्यमान कैसे आता है। हिग्ग्ज़ क्षेत्र में ’हिग्ग्ज़’ कण व्याप्त है जो एक प्रकार का मूल कण है, जिसे ’हिग्ग्ज़ बोसान’ कहते हैं।

क्या है यह ’हिग्ग्ज़ बोसान’?

ब्रह्माण्ड में कुछ मूल कण हैं जैसे इलैक्ट्रान, क्वार्क, न्यूट्रिनो फ़ोटान, ग्लुआन, आदि, और कुछ संयुक्त कण, जैसे प्रोटान, न्यूट्रान, मेसान आदि, जो इन मूल कणों के संयोग से निर्मित होते हैं। सारे पदार्थ इऩ्ही मूल कणों तथा संयुक्त कणों से निर्मित हैं। हिग्ग्ज़ क्रिया विधि से पदार्थों में द्रव्यमान आता है जिससे उनमें गुरुत्व बल आता है। इसे सरलरूप में समझने के लिये मान लें कि हिग्ग्ज़ क्षेत्र ’शहद’ से भरा है। अब जो भी कण इसके सम्पर्क में आएगा, उसमें उसकी क्षमता के अनुसार शहद चिपक जाएगी, और उसका द्रव्यमान बढ़ जाएगा। यह ’हिग्ग्ज़ बोसान’ मूलकण भौतिकी के अनेक प्रश्नों के सही उत्तर दे रहा है, और भौतिकी के विकास में यह मह्त्वपूर्ण स्थान रखता है। जब कि अन्य सब मूल कण देखे परखे जा चुके हैं, किन्तु ’हिग्ग्ज़ बोसान’ अभी (३ जुलाई २०१२) तक देखा नहीं जा सका था। ४ जुलाई को जिस कण के दिखने की चर्चा की गई उसकी ऊर्जा १२५.३ गिगा इ.वो. दिखी, जो कि एक प्रोटान की ऊर्जा की लगभग १३३ गुनी है। इतना भारी मूलकण चाहे हिग्ग्ज़ बोसान न भी हो, कोई नवीन मूल कण अवश्य है।

इसके नाम में हिग्ग्ज़ के साथ बोस का नाम क्यों जोड़ा गया ?

सत्येन्द्र नाथ बसु विश्व के प्रसिद्ध वैज्ञानिक हुए हैं, जो मूलत: सांख्यिकीविद थे, जिऩ्होंने, १९२० में, एक प्रकार के मूल कणों के व्यवहार के सांख्यिकी सूत्र आइन्स्टाइन को लिख कर भेजे, क्योंकि एक तो लंदन के विशेष पत्र ने उसे वापिस कर दिया था। और दूसरे, उऩ्हें आशंका थी कि उनकी क्रान्तिकारी बात को अन्य वैज्ञानिक समुचित महत्व न दे सकें।

कणों को समझने का अर्थ है उनके व्यवहार के नियमों को समझना। अत: जिस वैज्ञानिक के द्वारा सुझाए गए सूत्रों या नियमों का जो कण पालन करते हैं उन कणों को उसी वैज्ञानिक के नाम से जाना जाता है। उस समय केवल ’फ़र्मियान’ कण का ही व्यवहार समझा गया था, जो कि वे मूल कण हैं जो ’फ़र्मी – डिरैक’ के सांख्यिकी सूत्रों के अनुसार व्यवहार करते हैं। आइन्स्टाइन तुरंत ही बसु के सूत्रों का क्रान्तिकारी‌ मह्त्व समझ गए और उऩ्होंने बसु के सूत्रों को संवर्धित कर प्रकाशित करवाया। उनके सूत्र इतने क्रान्तिकारी थे कि उऩ्होंने एक नए प्रकार के कण के अस्तित्व की भविष्यवाणी की, अर्थात वे कण आइंस्टाइन बोस सांख्यिकी के नियमों का पालन करते हैं। गणित विज्ञान की‌ भाषा मात्र नहीं है वरन गणित विज्ञान का एक महवपूर्ण सक्रिय सदस्य है, जिसका यह ’आइंस्टाइन बोस सूत्र’ एक उत्तम उदाहरण है। उन नए मूल कणों का नाम, जो उनके सूत्रों के अनुसार व्यवहार करते हैं, ’बोसान’ रखा गया। ’हिग्ग्ज़ बोसान कण’ जिसकी खोज चल रही है मूलत: बोसान कण है क्योंकि वह बोस के सूत्रों के अनुसार व्यवहार करता है, मानों कि बोस ही उन कणों के भाग्य विधाता हैं; अत: ’हिग्ग्ज़ कण का नाम हिग्ग्ज़ बोसान’ रखा गया! अर्थात अब सृष्टि के समस्त मूल कण दो प्रकार के माने जाने लगे – ’फ़र्मियान’ तथा ’बोसान’, बोस का यह सम्मान नोबेल सम्मान से भी श्रेष्ठ सम्मान है, सत्येन्द्र नाथ बोसे स्वयं के प्रचार में‌ विश्वास ही नहीं करते थे, और नोबेल समिति अनुशम्सित नामों पर ही विचार कर सकती है, दुख की ही बात है कि किसी‌ने भी उनकए नाम को नोबेल समिति तक नहीं भेजा। किन्तु हमें इस भारतीय पर नोबेल पुरस्कृत व्यक्ति से भी अधिक गर्व है।

इस प्रयोग से विज्ञान के किन रहस्यों को समझा जा सकेगा?

ब्रह्माण्ड में कुल चार प्रकार के ही बल मूल हैं, तीव्र नाभिक बल, दुर्बल नाभिक बल, विद्युत चुम्बकीय बल तथा गुरुत्व बल। विज्ञान का महान लक्ष्य रहा है – अधिक से अधिक अधिसामान्य नियमों की खोज। जैसे कि पहले पिन्डों पर पृथ्वी पर अलग नियम लगते थे और ’हैवैन्स’ में अलग। न्यूटन ने सबके लिये एक से नियम प्रतिपादित कर दिये। इसी तरह प्रकाश की तरंगें, ताप की तरंगें आदि सब अलग अलग अस्तित्व रखती थीं, सबके अपने अपने नियम थे । १८७६ में जेम्स मैक्सवैल ने एक अधिसामान्य सूत्र का आविष्कार किया और सभी ऊर्जा की तरंगें एक ’विद्युत चुम्बकीय तरंग’ वर्ग के अंतर्गत आ गईं। इसी तरह जब चारों मूल बल एकीकृत हो जाएंगे तब ’आइन्स्टाइन का ’एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त’ का स्वप्न भी साकार हो जाएगा, और ब्रह्माण्ड की हमारी समझ अधिक विकसित हो जाएगी, उसमें ’एकत्व’ दृष्टिगोचर होने लगेगा, जो हमारी आध्यात्मिक एकत्व की ओर बढ़ने में वैज्ञानिकों की‌ मदद करेगा।

’सुपर सिमिट्री’ भी दो अलग विज्ञानों – बृहत क्षेत्र तथा सूक्ष्म क्षेत्र – के समन्वय का प्रयास करती है। इसमें एक परिकल्पना है जो यह एकत्व के कार्य करने का भी दावा करती है। इसका मानना है कि ब्रह्माण्ड में दिक के तीन नहीं दस आयाम हैं। इस महाचक्र की महाटक्कर से यह संभावना बनती है कि हम दिक के चौथे या दसों आयामों की खोज कर सकें। जिससे ’सुपर सिमिट्री’ की परिकल्पना को बल मिलेगा और गुरुत्वबल को समझने में और उसके अन्य तीन मूल बलों के साथ संबन्ध समझने में मदद मिलेगी।

आइन्स्टाइन के दोनों आपेक्षिक सिद्धान्त ब्रह्माण्ड के विशाल रूप को ही समझा पाते हैं, और क्वाण्टम सिद्धान्त केवल अणु के भीतर के सूक्ष्म जगत को। एक सौ वर्षों के बाद भी वैज्ञानिक अभी तक इन दोनों में सामन्जस्य पैदा नहीं कर पाए हैं। हिग्ग्ज़ बोसान क्वाण्टम सिद्धान्त तथा व्यापक आपेक्षिक सिद्धान्त में भी सामंजस्य पैदा कर सकेगा, ऐसी आशा है।

ब्रह्माण्ड में हमें जितना भी पदार्थ दिख रहा है वह कुल पदार्थ का मात्र ४ % है, और २३ % अदृश्य पदार्थ है जब कि ७३ % अदृश्य ऊर्जा है। यह प्रयोग इस अदृश्य ऊर्जा तथा अदृश्य पदार्थ को समझने में भी मदद करेगा।

महान विस्फ़ोट में जिस क्षण ऊर्जा कणों में बदलने लगी तब कण तथा ’प्रतिकण’, जैसे इलैक्ट्रान और पाज़ीट्रान, बराबर मात्रा में उत्पन्न हुए थे; किन्तु अब तो प्रतिकण नज़र ही नहीं आते। कहां गए, क्या हुआ उनका, इसकी भी छानबीन यह ’महाचक्र’ इसी ईश्वर कण के माध्यम से करेगा। एक अवलोकन यह भी है कि गुरुत्वबल का जितना प्रभाव हमें दिखना चाहिये उतना हमें नहीं दिख रहा है। मानों कि कुछ गुरुत्वबल कहीं और किसी और आयाम में जा रहा है। इसका रहस्य भी खुलने की संभावना है कि यदि दिक के तीन से अधिक आयाम हैं, तब गुरुत्व का कुछ प्रभाव किस तरह उन आयामों में बँट जाता है !

महान विस्फ़ोट के एक सैकैण्ड के एक अरबवें हिस्से में क्या हो रहा था इसकी एक झलक सूक्ष्म रूप में यह प्रयोग दिखला सकता है।

महान विस्फ़ोट के एक सैकैण्ड के भीतर, जब तापक्रम बहुत ठंडा होकर लगभग १००० अरब सैल्सियस हुआ, तब जो ऊर्जा थी वह कणों में बदलने लगी थी। तब उस समय की प्रक्रिया को समझने के लिये हमें महान विस्फ़ोट पैदा करना होगा, वैसा विस्फ़ोट तो ब्रह्माण्ड को भस्म कर देगा, किन्तु यह प्रयोग एक अति सूक्ष्म ’महान विस्फ़ोट’ पैदा करेगा ! इसके लिये सीसे के नाभिकों को निकट प्रकाश वेग पर यह ’महाचक्र’ (विशाल हेड्रान संघट्टक) उनमें टक्कर कराएगा। उस क्षण उन कणों में जो ऊर्जा रही होगी, वही ऊर्जा प्रकाश वेग निकट से चलने वाले हेड्रान (विशेष भारी कण जैसे प्रोटान) कणों में होती है। इस तरह हेड्रान कणों को समझने से हमें यह समझ में आ सकेगा कि ब्रह्माण्ड का उद्भव और विकास किस प्रक्रिया से हुआ था, तब हम आज की बहुत सी वैज्ञानिक समस्याओं को समझ सकते हैं, प्रकृति के नियमों को बेहतर समझ सकते हैं। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि हम इस विशाल जगत को बेहतर समझ सकते हैं यदि हम सूक्ष्म जगत को समझ लें, और इसका विलोम भी सत्य है कि विशाल जगत को समझने से हम सूक्ष्म जगत बेहतर समझ सकते हैं। अर्थात दोनो में सामन्जस्य का होना बहुत आवश्यक है। यह सिद्धान्त आध्यात्मिक आयाम में भी सत्य है; यदि अमृतत्व प्राप्त करना है, तब जीवन के लिये विद्या का भी अनुकरण आवश्यक है और अविद्या का भी ।

यह स्पष्ट है कि यदि ’ईश्वर कण’ दिख भी गया, तब भी वैज्ञानिक ईश्वर में विश्वास करने नहीं लग जाएंगे !! अत: इसे ’ईश्वर कण’ कह देना अवैज्ञानिक तो है, और कुछ नाटकीयता भी है। लेडरमैन ने तो मात्र चमत्कार पैदा करने के लिये ’हिग्ग्ज़ बोसान’ को ईश्वर कण कहा था । किन्तु ’ईश्वर कण’ में अनंत और शाश्वत ब्रह्म की दिव्य ऊर्जा ही तो होना चाहिये जिसे ओरोबिन्दो ने देखा था।

सर्न ( यूरोपीय नाभिकीय अनुसंधान संगठन) स्थित इस महाचक्र यंत्र में अद्वितीय़ तथा अकल्पनीय प्रयोग हो रहे हैं, नवीन कणों की खोज हो रही है। इसमें ऊर्जा की अकल्पनीय मात्रा से लदे प्रोटानों की टक्कर की‌ जा रही है। इसमें कुछ वैज्ञानिक बड़े खतरे की संभावना की चेतावनी दे रहे हैं कि इस टक्कर से ’कृष्ण विवर’ (ब्लैक होल) उत्पन्न होंगे, जो पृथ्वी को ही लील जाएंगे। मजे की बात यह है कि यदि कृष्ण विवर उत्पन्न होते हैं तो अतिरिक्त आयामों के अस्तित्व का एक प्रमाण मिल जाएगा। सामान्य तीन आयामों वाले दिक में इतने सूक्ष्म द्रव्यमान वाले प्रयोग में कृष्ण विवर बनने का संयोग ही‌ नहीं होता, क्योंकि जो छोटे नवीन कण बनेंगे उनके अति सूक्ष्म आयतन में उस सूक्ष्म द्रव्यमान में जो गुरुत्वाकर्षण बल होगा वह कृष्ण विवर नहीं‌ बना सकता क्योंकि मूलत: गुरुत्वाकर्षण बल एक कमजोर बल है ! उसे प्रभावी बनने के लिये अत्यधिक द्रव्य की आवश्यकता होती है, जो द्रव्य वहां उपलब्ध नहीं‌ है। ऊर्जा की अकल्पनीय मात्रा से लदे इन प्रोटानों में यथार्थ में कुछ मच्छड़ों के बराबर ऊर्जा होती है !! सर्न के वैज्ञानिक कहते हैं कि वे इस खतरे को समझते हैं और कि ’कृष्ण विवर’ बनेगा ही नहीं। और यदि मान लें कि बन भी गया तब वह कृष्ण विवर कुछ ही क्षणों में, क्रान्तिकारी रहस्य का उद्घाटन करते हुए, बिना नुकसान किये फ़ूट जाएगा ।

हम उन सूक्ष्म कणों में अक्ल्पनीय ऊर्जा की बातें कर रहे हैं, कितनी है वह अक्ल्पनीय ऊर्जा? ३० मार्च १० के प्रयोग में ’महाचक्र’ ने ३.५ TeV टेरा इलेक्ट्रान वोल्ट (३५ खरब इवो) ऊर्जा के प्रति कणों की टक्कर कराने का एक विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है। कितनी ऊर्जा होती है ’टेरा इवो’ में ? जब एक प्रोटान की ऊर्जा लगभग १ टेरा इवो होती है तब उसका द्रव्यमान स्थिर दशा की अपेक्षा १००० गुना बढ़ जाता है ! आप कल्पना करें एक किलोग्राम द्रव्यमान के पदार्थ को इतनी ऊर्जा दें कि उसका वेग इतना बढ़ जाए कि उसका द्रव्यमान बढ़कर १००० किलोग्राम हो जाए !! और ३० मार्च के प्रयोग में एक प्रोटान के वेग को इतना बढ़ाया गया कि उसकी ऊर्जा ३.५ टेरा इवो हो गई, तब उसका द्रव्यमान बढ़कर ३५०० गुना हो गया था ! किन्तु महत्वपूर्ण परिणाम देखने के लिये ७ टेरा इ. वो. (TeV) प्रति कण की ऊर्जा चाहिये, जिसकी तैयारी‌ चल रही है। और सीसे के नाभिक की टक्कर के लिये तो ५७४ TeV प्रति नाभिक की ऊर्जा चाहिये होगी। सूक्ष्म विस्फ़ोट के लिये भी एक एक कदम बहुत सम्हलकर रखना पड़ता है। ऐसे में क्रान्तिकारी परिकल्पनाएं सामने आती‌ हैं, जैसे कि आइन्स्टाइन की विशेष आपेक्षिक सिद्धान्त की `१९०५’ में आई थी जब १८८७ में माईकल्सन मोर्ले ईथर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं कर सके थे।

ऐसा आरोप भी अनेक विद्वान लगा रहे हैं कि जब विश्व में इतनी भयंकर दरिद्रता छाई है तब खरबों डालर इस नास्तिक ईश्वर कण पर क्यों खर्च किये जा रहे हैं!! मुझे फ़्रान्स की प्रसिद्ध क्रान्ति की एक घटना याद आ रही है। आधुनिक रसायन शास्त्र के जन्मदाता लावासिए, जिऩ्होंने आधुनिक विज्ञान में पदार्थ के कभी भी नष्ट न होने के सिद्धान्त को स्थापित किया था, को उस क्रन्ति के दौरान फ़ाँसी का दण्ड घोषित किया गया, केवल इसलिये कि वे राजा लुई चौदह के राजस्व अधिकारी थे। कुछ समझदार लोगों ने जज के सामने पैरवी की कि लावासिए बहुत ही प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं, तब उस जज ने जो उत्तर दिया वह चकित करने वाला है, कि ’जनतंत्र को प्रतिभाशाली व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं है।’ इसी तरह जब आइन्स्टाइन ने प्रतिपादित किया कि दिक और काल वक्र हैं, तब इससे सामान्य व्यक्ति के जीवन को क्या अन्तर पड़ता है ! किन्तु आज की अधिकांश प्रौद्योगिकी की प्रगति और चमत्कार जिसका लाभ सामान्य जन ही उठा रहे हैं, उसी सिद्धान्त का सुखद परिणाम है

भगवान भला करें उस नास्तिक और लोभी वैज्ञानिक का जिसने एक अज्ञात कण को ’ईश्वर कण’ का नाम दिया। वरना ऐसे समाचार पत्र कम ही हैं जो विज्ञान के प्रयोगों के समाचार देते हैं।