रामसेतु आस्था से बड़ा आजिविका का सवाल

प्रमोद भार्गव

जिस दुनिया को भू-मण्डलीय उदारवादी दौर में विश्वग्राम में बदलने की परिकल्पना का दावा किया गया था उस तथाकथित विश्वग्राम में परस्पर सहभागिता को दरकिनार कर केवल व्यापार के लिए औधोगिक-प्रौधोगिक रास्ते तलाशे जाने की कवायद की जा रही है। जबकि होना यह चाहिए था कि आस्था का असितत्व बनाए रखते हुए रामसेतु और उसके समुद्र तटीय इलाके की विशाल आबादी की आजिविका के स्त्रोत सुरक्षित रखने की कोशिशें होती। अब आरके पचौरी समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश के पालन में सेतु समुद्रम परियोजना से जुड़े विभिन्न पहलूओं के विशलेषण के आधार पर जो रिपोर्ट दी है, उसके अनुसार रामसेतु को सुरक्षित रखते हुए वैकलिपक मार्ग व्यावहारिक दृषिट से संभव नहीं है। इस परियोजना का उददेश्य रामसेतु के बीच से मार्ग बनाकर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द-गिर्द समुद्र में जहाजों की आवाजाही के लिए रास्ता बनाना है। यह रास्ता नौवहन मार्ग (नाटिकल मील) 30 मीटर चौड़ा, 12 मीटर गहरा और 167 किमी लंबा होगा। इतनी बड़ी परियोजना को वजूद में लाने के लिए पौराणिक काल में असितत्व में आए रामसेतु को क्षति तो पहुंचेगी ही, करोड़ों मछुआरों की आजिविका भी प्रभावित होगी।

समुद्र प्राकृतिक संपदा का अथाह भण्डार होने के कारण लाखों मछुआरों की रोटी और समुद्री जल-जीवों की जैविक विविधता से भी जुड़ा है। इसलिए सेतु समुद्रम परियोजना को कुछ नाटिकल मील घट जाने और र्इंधन की बचत की दृषिट से नहीं देखा जाना चाहिए। पहले तो आर्थिक उदारीकरण के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को समुद्र का दोहन करने की छूट देकर मछुआरों की आर्थिक स्वतंत्रता छीनी गर्इ और अब पर्यावरणीय हलचल पैदा करके मछुआरों के जीवन का आधार ही उनसे छीना जा रहा है। आस्था और व्यापार के वनसिबत रोटी की चिंता बड़ी और महत्वपूर्ण होती है। हालांकि दुनिया के किसी भी देश में ऐसा उदाहरण नहीं है कि उसने अपनी पुरातन व पुरातत्वीय महत्व के विशाल और अनूठे स्मारक को तोड़कर कोर्इ रास्ता बनाया हो ?

समुद्री तटों पर फैले मछुआरों की हालत मैदानी क्षेत्रों में फैले गरीब और पराश्रित किसानों के ही जैसी है। गरीब किसानों की आजीविका का जिस तरह से मुख्य साधन और साध्य खेती है, उसी तरह से उन मछुआरों को रोटी मुहैया कराती हैं समुद्री मछलियां, विभिन्न जीव जंतु और वनस्पतियां। किसान और मछुआरे दोनों के लिए ही अन्य काम धंधे बेकार हैं। किसानों के लिए खेती और मछुआरों के लिए मछली पालना इनके परंपरागत पेशे हैं। इन धंधों से जन्मजात संस्कारों से जुड़े रहने के कारण इन लोगों को अतिरिक्त प्रशिक्षण की जरूरत नहीं रह जाती। ये बालपन से ही खेलते-खाते इन पेशों में पारंगत हो जाते हैं।

भारतीय सागर के विशाल तटवर्ती क्षेत्र के मुहाने पर रहकर मछली से गुजर-बसर करने वाले मछुआरों की तादाद करीब 6.5 करोड़ है और करीब 2.5 करोड़ मछुआरे बड़ी नदियों से मछली पकड़ने के व्यवसाय से जुड़े हैं। इनके परिवार के सदस्यों की जीविका को इन्हीं की आजिविका से जोड़ दिया जाए तो इनकी आबादी बैठती है करीब 16 करोड़। इतनी आबादी भारत के किसी राज्य में नहीं है। महज एक परियोजना के लिए इतनी बड़ी आबादी के रोजगार और रोटी के संकट में डालकर पारिसिथतिकी तंत्र को बिगाड़ने का औचित्य समझ से परे है।

तमिलनाडू की मन्नार खाड़ी से पाक जलडमरूमध्य के बीच 5 जिलों में 138 गांव, कस्बे व नगर ऐसे हैं जिनकी बहुसंख्यक आबादी समुद्री जल-जीव व अन्य प्राकृतिक संपदा पर आश्रित है। इस तटवर्तीय क्षेत्र की 50 प्रतिशत आबादी कर्ज में डूबी है। ऐसे में परियोजना के जहाज यहां से गुजारने के लिए मार्ग प्रशस्त किया जाता है तो इनकी आर्थिक व सामाजिक समस्यायें रौंदे जाने का सिलसिला चल निकलेगा और विदर्भ आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश व बुन्देलखण्ड के किसानों की तरह इनके पास भी मौत को गले लगाने के अलावा कोर्इ चारा नहीं रह जाएगा।

वैसे भी मछुआरे, उनकी औरतें, युवतियां और बच्चे मछलियों के सफार्इ जैसे मुशिकल व दुखदायी श्रम से जुडे़ हैं। इस कष्टदायी दौर से गुजरने के साथ इन महिलाओं को दैहिक शोषण के दौर से भी गुजरना होता है। वर्तमान में हालात इतने बदतर हैं कि युवा लड़कियों को बरगला कर अथवा अगवा कर मालवाहक समुद्री जहाजों में ढोकर दूसरे देशों में भी देह व्यापार के लिए ले जाया जाता है। जहां इन मासूमों का बेहरमी से यौन शोषण होता है।

भारतीय समुद्र की तटवर्ती पटटी 5 हजार 660 किमी लंबी है। गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाडू, पशिमबंगाल राज्यों और केंद्र शासित राज्य गोवा, पांडिचेरी, लक्षद्वीप तथा अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह के तहत ये विशाल तटवर्ती क्षेत्र फैले हैं। रामसेतु की विवादित धरोहर रामेश्वरम को श्रीलंका के जाफना द्वीप से जोड़ती है। यह मन्नार की खाड़ी में सिथत है। यहीं जो रेत, पत्थर और चूने की दीवार सी 30 किमी लंबी पारनुमा सरंचना है, उसे ही रामसेतु का अवशेष माना जा रहा है। अमेरिका की विज्ञान संस्था नासा ने इस पुल के उपग्रह से चित्र लेकर अध्ययन करने के बाद दावा किया था कि मानव निर्मित यह पुल दुनिया का सबसे पुराना सेतु संरचना है। इस नाते भी राम ने यदि इस सेतु का निर्माण नहीं भी किया है तो भी इस धरोहर को सुरक्षित रखने की जरूरत है। हालांकि बाल्मीकि रामायण, स्कंद पुराण, ब्रह्रा पुराण, विष्णु पुराण और अगिन पुराण इस सेतु के निर्माण और इसके ऊपर से लंका जाने के विवरण हैं। इन ग्रंथों के अनुसार राम और उनके खोजी दल ने रामेश्वरम से मन्नार तक जाने के लिए वह मार्ग खोजा जो अपेक्षाकृत सुगम होने के साथ रामेश्वरम के निकट था। जहां से राम व उनकी बांनर सेना ने उपलब्ध सभी 65 रामायणों के अनुसार लंका के लिए कूच किया। माना जाता है कि 500 साल पहले तक यहां पानी इतना कम था कि मन्नार और रामेश्वरम के बीच लोग सेतुनुमा टापूओं से होते हुए पैदल ही आया जाया करते थे। वैसे इस क्षेत्र में ऐसे कम दबाव व धार वाले पत्थर भी पाए जाते है जो पानी में नहीं डूबते। नल और नील ने जिन पत्थरों का उपयोग सेतु निर्माण में किया, शायद ये उन्हीं पत्थरों के अवशेष हों जो आज भी धार्मिक स्थलों पर देखने को मिल जाते हैं। इन सब साक्ष्यों के आधार पर इसके संरक्षण के लिए जनहित याचिकाएं शीर्ष न्यायालय में दायर की गर्इं जिससे इस सेतु को हानि न हो। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जे जयललिता ने इस परियोजना को रोकने का प्रस्ताव लाकर इस सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की मांग तक केंद्र सरकार से की है। यदि रामसेतु के प्रसंग को छोड़ भी दिया जाए तो जैव संसाधनों की दृषिट से विश्व बाजार में इस क्षेत्र को सबसे ज्यादा समृद्ध क्षेत्र माना जाता है। इसकी जैविक और पारिसिथकी विलक्षणता के चलते ही इसे ‘जैव मण्डल आरक्षित क्षेत्र घोषित किया हुआ है।

इस क्षेत्र का रामसेतु के बहाने पुरातत्वीय दृषिट से ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व भी है। मोती के लिए प्रसिद्ध रहा यह क्षेत्र शंख के उत्पादन के लिए भी जाना जाता है। दरअसल मन्नार की खाड़ी राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय महत्व की एक जीवित प्रयोगशाला है। यहां लगभग 3700 प्रकार के जीव व वनस्पतियों की जीवंत हलचल है। जिसमें कछुओं की 17 प्रजातियां हैं। मूंगे की 117 किस्में हैं। इस क्षेत्र में पाए जाने वाला दुर्लभ मैंग्रोव वृक्ष कार्बन डाइ आक्साइड का शोषण कर बढ़ते तापमान को कम करता है। बड़ी मात्रा में प्रबाल (शैवाल) भित्ति भी हैं। इसी विविधता के कारण भारत को जैविक दृषिट से दुनिया में संपन्नतम समुद्री क्षेत्र माना जाता है।

समुद्र में उपलब्ध शैलाव (कार्इ) भी एक महत्वपूर्ण खाध पदार्थ है। शैलाव में प्रोटीन की मात्रा भी ज्यादा होती है। लेकिन इसे खाने लायक बनाए जाने की तकनीकों का विकास हम ठीक ढंग से अब तक नहीं कर पाए हैं। लिहाजा इसे खाध के रूप में परिवर्तित कर दिया जाए तो परंपरागत शाकाहारी लोग भी इसे आसानी से खाने लगेंगे। शैवाल में अच्छे किस्म की चाकलेट से कहीं ज्यादा ऊर्जा होती है। आयुर्वेद औषधियों तथा आयोडीन जैसे महत्वपूण तत्व भी इसमें होते हैं। लेकिन सेतु समुद्रम परियोजना पर अमल जारी रहता है तो शैवाल भित्ति प्रणाली पर भी विपरीत असर पड़ेगा। इसके विखणिडत होने का खतरा है। ये शैवाल भित्तियां उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में न केवल खाध संसाधनों, बलिक जैव रासायनिक प्रक्रियाओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। तटीय क्षेत्रों मे ंये लहरों का अवरोध बनकर कटाव को बाधित करती हैं। 750 प्रकार की मछलियों के आहार व प्रजनन का भी यही कार्इ प्रमुख साधन है। यदि मालवाहक जहाजों के लिए परियोजना अमल में लार्इ जाती है तो यहां ध्वनि प्रदूषण जल में हलचल पैदा करेगा, जिससे शैवाल की समुद्री सतह पर फैली परतें प्रभावित होंगी और इनके उत्पादन पर असर पड़ेगा।

सुनामी कहर के विश्व प्रसिद्ध विशेषज्ञ और भरत सरकार के सलाहकार डा. टैड मूर्ति के अनुसार 26 दिसंबर 2004 को आए सुनामी तूफान के दौरान रामसेतु देश के दक्षिण हिस्से के लिए सुरक्षा कवच साबित हुआ था। इस अवरोध के परिणामस्वरूप सुनामी लहरों की प्रबलता शिथिल हुर्इ और केरल सहित दक्षिणी इलाके भारी तबाही से बचे रहे। इस परियोजना के पूर्ण होने के बाद यदि फिर सुनामी लहरें उफनती हैं तो रामसेतु के अभाव मे ंलहरें बड़ी तबाही का कारण बन सकती हैं। ऐसी प्राकृतिक आपदा आती है तो वैज्ञानिक व पर्यावरणविदों का मानना है कि इस क्षेत्र मे ंपाए जाने वाले थोरियम के बड़े भण्डार नष्ट हो जाएंगे। विश्व का 30 प्रतिशत थोरियम भारत में ही मिलता है। जो यूरेनियम बनाने के काम आता है। समुद्र की गहरार्इ बढ़ने से समुद्र में उच्च दबाव वाले ज्वार-भाटे की आशंका भी बढ़ेगी।

इस परियोजना के प्रभाव में आने वाले पांच जिलों की करीब 2 करोड़ की आबादी के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा। क्योंकि मन्नार की खाड़ी एवं पाक जलडमरूमध्य के किनारों पर आबाद मछुआरों के परिवार मुख्य रूप से मछलियों के कारोबार पर ही जिन्दा हैं। कुछ मछुआरे समुद्री शैवाल, शंख और मूंगे के व्यापार से भी जीवनयापन करते हैं। प्राकृतिक संपदा के अटूट भण्डार सागर पर ही आश्रित होने के कारण उनकी जीवन शैली, संस्कृति और सामाजिक जीवन का तानाबाना उसी अनुरूप विकसित हुआ है। इसलिए जरूरी हो गया है कि मछुआरों और तटवर्ती किसानों को पुश्तैनी व्यवसायों से जोड़े रखने, समुद्री जीव-जन्तुओं के भण्डार को बचाए रखने और तटवर्ती वन एवं वनस्पतियों को पर्यावरणीय विनाश से मुक्त बनाए रखने के लिए इस सेतु समुद्रम परियोजना को रोका जाए।

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